राज्य सरकार कश्मीर के लिए क्या कर रही है?

रवीश कुमाररवीश कुमार   16 July 2016 5:30 AM GMT

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इस साल चार अप्रैल को जब महबूबा मुफ्ती जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री बनीं तो सबने राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में उनका इस्तकबाल किया था। 12 जुलाई को महबूबा सरकार के सौ दिन पूरे होते हैं। हालात तो जश्न के नहीं है, मगर सौवें दिन महबूबा को अपनी कुर्सी से संदेश जारी करना पड़ता है।

मुख्यमंत्री रविवार के बाद से लोगों के बीच नहीं गई हैं। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने लिखा है कि उन्होंने अपने मंत्रियों को आदेश दिए हैं कि वे लोगों के बीच जाएं। दक्षिण कश्मीर के चार जिलों में जहां स्थिति खराब बताई जाती है वहां कोई मंत्री नहीं गया है। दिल्ली में जब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कश्मीर की स्थिति पर उच्च स्तरीय बैठक हुई तो महबूबा मुफ्ती मौजूद नहीं थीं। विपक्ष के नेता उमर अब्दुल्ला ने सवाल भी उठाया कि इस बैठक में कश्मीर का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं था।

मुख्यमंत्री वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग से भी बैठक में हिस्सा ले सकती थीं। प्रधानमंत्री ने भी इस मसले पर कोई ट्वीट नहीं किया है न ही सीधे कोई बयान दिया है। पीएमओ में राज्य मंत्री जीतेंद्र सिंह ने बयान दिया कि ‘प्रधानमंत्री कश्मीर के हालात पर बारीक नज़र बनाए हुए हैं। ’ यह बयान क्या जनता से संवाद कायम करने के लिए काफी है?

प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा में मारे गए लोगों के लिए कोई शब्द नहीं। क्या उनके बारे में भी सरकार ने कोई राय बना ली है। एजेंसी की ख़बरों के मुताबिक प्रधानमंत्री ने मीडिया पर नाराज़गी जताई है कि आतंकवादी बुरहान को हीरो की तरह क्यों पेश किया गया। क्या मीडिया के कवरेज के कारण समस्या पैदा हुई या घाटी में लोग मीडिया के खिलाफ भी गए। क्या ये आने वाले समय में होनी वाली राजनीतिक लाइन का संकेत है। प्रधानमंत्री कश्मीर को समझते हैं क्योंकि सात नवंबर 2015 के दिन शेरे कश्मीर स्टेडियम में उन्होंने ऐसा ही कुछ कहा था। “मुझे इस दुनिया में कश्मीर पर किसी से सलाह या विश्लेषण की जरूरत नहीं है। अटल जी के तीन मंत्र हैं और ये आगे बढ़ने के लिए काफी हैं। कश्मीरियत के बिना हिन्दुस्तान अधूरा है।”

जम्मू कश्मीर में बड़ी संख्या में घायल अस्पतालों में भर्ती हैं। हमारे पास इसकी पुख्ता सूचना नहीं है कि स्वास्थ्य मंत्री ने अस्पतालों का दौरा किया है या नहीं। कश्मीर में जब बाढ़ आई थी तब प्रधानमंत्री ने दिवाली की रात वहीं गुज़ारी थी। सात नवंबर 2015 की सभा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि क्या जम्मू-कश्मीर के सामान्य लोगों को वो सारे अधिकार नहीं मिलने चाहिए जो हिन्दुस्तान के अन्य सारे नागरिकों को मिलते हैं। यहीं पर उन्होंने 80,000 करोड़ के पैकेज देने का वादा किया था। कितना पूरा हुआ है? एक दिसंबर 2013 को प्रधानमंत्री की जम्मू में एक सभा हुई थी।

जम्मू में उन्होंने कश्मीर में आज़ादी की मांग और अलगाववादी राजनीति को उन्होंने एक नया ही मोड़ दे दिया था। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने कहा था, “ये सेपरेट सेपरेट के नाम पर सेपरटिज्म को बढ़ावा दिया गया है। अलगाववाद को बढ़ावा दिया गया है। अलगाववादी ताकतों को बढ़ावा दिया गया है। भाइयों बहनों कितना अच्छा होता अगर सेपरेट स्टेट बनाने के बजाए सुपर स्टेट बनाने के सपने देखे होते। आप लोग ही बताएं कि आपको सेपरेट स्टेट चाहिए या सुपर स्टेट चाहिए।”

एक तरह से प्रधानमंत्री ने सेपरेट स्टेट की बात सिरे से खारिज कर दिया लेकिन क्या सुपर स्टेट बनाने की दिशा में उनकी या महबूबा की सरकार अपने वादों पर खरा उतर रही है। लोग क्यों उलझे हुए हैं कि इतनी बड़ी संख्या में बुरहान के जनाज़े में लोग कैसे आ गए। दिल्ली की चर्चाओं में समझने की जगह अपनी अपनी समझ थोपने का प्रयास हो रहा है। वहां के लोगों की शिकायत तमाम प्रकारों के सुरक्षाबलों से है। यहां के लोगों को सिर्फ सुरक्षाबलों की आवाज़ सुनाई देती है। ये एक अंतर है। ये एक दीवार है कि आप हमेशा उस तरफ देखकर बात करते हैं, इस तरफ नहीं।

घाटी में बुधवार तक कर्फ्यू है। सोशल मीडिया को आतंकवाद का वाहक और कानून व्यवस्था में बाधक बताकर बंद कर दिया गया है। यह सवाल तो पूछना ही होगा कि क्यों पढ़े लिखे, अच्छे घरों के नौजवान आतंक के रास्ते पर जा रहे हैं। किसी ने कहा कि सुरक्षाबलों की ज्यादती आपको उन हर परिवारवालों में मिलेगी जहां से कोई बागी हुआ है। फिर भी नौजवान कहते हैं कि हम यूनिफॉर्म देखकर बड़े होते हैं। हमारे दिलो-दिमाग पर खास तरह का असर होता है। कोई हमें समझता क्यों नहीं है।

न्यूज़लौंड्री की कश्मीर और दिल्ली की मीडिया की रिपोर्टिंग के तुलनात्मक अध्ययन में ये अंतर पाया है कि दिल्ली की मीडिया में पुलिस और सुरक्षा बलों का पक्ष ज्यादा है। कश्मीर की मीडिया में लोगों का पक्ष ज्यादा है। एक समस्या शब्दों की भी है। कश्मीर का मीडिया मिलिटेंट शब्द का इस्तेमाल करता है यानी चरमपंथी। दिल्ली का मीडिया सीधे टेररिस्ट लिखता है आतंकवादी। कभी दिल्ली का मीडिया भी चरमपंथी या मिलिटेंट लिखता था मगर बहुत साल से आतंकवादी लिखने लगा है।

2011 में जम्मू-कश्मीर के छात्रों के लिए चलाई गई स्पेशल स्कॉलरशिप की योजना के तहत हर साल पांच हज़ार छात्रों को भारत के तमाम कॉलेजों में एडमिशन दिया जाना था, ताकि घाटी के छात्र मुख्यधारा से जुड़ सकें। पिछले दो साल से इस स्कॉलरशिप की मांग गिरने लगी है। छात्रों ने बताया कि इसके कई कारण हैं। एक जनवरी, 2016 को जीवन प्रकाश शर्मा ने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में इस स्कीम पर एक रपट छापी थी। प्रधानमंत्री के नाम पर चले इस स्कॉरलशिप की हालत ये है कि ऐसे कॉलेज के लिए छात्रों को एडमिशन दिया गया जहां कॉलेज ज़मीन पर था ही नहीं। कई बार फंड समय से नहीं आया तो कॉलेज ने छात्रों को निकाला और कई बार कॉलेजों को पता ही नहीं था कि इस स्कॉलरशिप का क्या महत्व है।

अगर प्रधानमंत्री के नाम से चल रही इतनी महत्वपूर्ण योजना की ये हालत है तो फिर हम कौन से संवाद की आशा लगाए बैठे हैं। इस स्कीम को मॉनिटर करने के लिए कई मंत्रालयों की एक कमेटी बनी है। मानव संसाधन मंत्रालय के सचिव उसके प्रमुख होते हैं। जम्मू कश्मीर में बेरोज़गारी की दर 5.3 प्रतिशत है जबकि भारत का औसत 2.6 प्रतिशत है।

हमें कश्मीर का सुंदर पहाड़ ही दिखता है वहां की ग़रीबी और बेकारी नहीं दिखती है। हालात जिम्मेदार हैं तो वहां की राज्य सरकार क्या करती रही है। इसके बाद भी जूनियर रिसर्च फेलोशिप के तहत इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चर रिसर्च में शामिल होने वाले छात्रों में कश्मीर के छात्र बहुत अच्छा करते हैं। इस अखिल भारतीय परीक्षा में बहुत अधिक संख्या मे कश्मीरी छात्र चोटी के पचास छात्रों में होते हैं।

मुझे भी हैरानी हुई कि कश्मीर के छात्र वेटरनरी और एग्रीकल्चर साइंस की पढ़ाई क्यों कर रहे हैं। तो एक छात्र ने बताया कि राज्य में 1000 से अधिक वेटनरी स्नातक बेरोज़गार हैं। इसी 2 जुलाई को जम्मू में बेरोज़गार वेटनरी डॉक्टरों ने प्रेस क्लब के सामने प्रदर्शन किया था कि सरकार नौकरी नहीं निकाल रही है। मुफ्ती मोहम्मद सईद साहब ने मुख्यमंत्री रहते हुए वादा किया था कि नौकरी दी जाएगी मगर सरकार ने सिर्फ 24 पदों के लिए वेकैंसी निकाली है। राज्य में 2445 वेटरनी सेंटर हैं और करीब 600 डॉक्टर ही हैं जबकि राज्य में मवेशियों की संख्या काफी है। करोड़ों में है।कश्मीर पर जब भी बात होती है बात कश्मीर से नहीं होती है। सब कश्मीर को लेकर अपनी अपनी बात करने लगते हैं। अपनी अपनी धारणाओं के पहाड़ चढ़ने लगते हैं।

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

 

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