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विचार: धरती की धमनी, मैं गंगा हूं

गाँव कनेक्शन | Nov 10, 2020, 05:36 IST
#Ganga
- अजय दीक्षित


दक्षिण एशिया में पता नहीं क्यूं– मैं गंगा नदी सभ्यता, मोक्ष, पुण्य व स्वच्छता का पर्याय बन बैठी हूं। न केवल मैं, सखी सिंधु, उधर हिमालय के उस पार से निकलकर बहने वाला बह्मपुत्र.... हमारे अनगिनत भाई-बहनें हैं। हम सभी सभ्यता के आधार हैं, बहुउपयोगी हैं और पवित्र भी। सर्वदा स्वच्छ-अविरल बहते रहने का विश्वास था हमारा।

लेकिन इधर हमारा यह विश्वास डगमगाने लगा है । अगर ऐसे ही आप मनुष्य लोग हमारे जलाधार व हम पर मनमानी करते रहे तो हमारा अस्तित्व शीघ्र ही संकट में पड़ जाएगा । जलवायु परिवर्तन से वर्षा के चरित्र पर पड़ने वाला प्रभाव हम नदियों पर और बढ़ता गया है। आप नदियों, आर्द्रभूमि एवं समस्त जल के दुरुपयोग को रोकिए और हमें नष्ट होने से बचाइए। हमारी विनती है– संरक्षण की यात्रा शुरू करिए। नहीं तो एक दिन ऐसा आएगा जब स्वयं तुम्हीं लोग पानी-पानी के मोहताज हो जाओगे।

भूतख्तों का घर्षण, अवतरण व यात्रा हमारा जन्म कुछ करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है। हमारे जन्म की कहानी भी काफी दिलचस्प है। अभी हम जिस धरातल पर बहते हैं, यह गोंडवाना व यूरेशियन नाम के भूतख्तों के बीच रहे टेथाइस समुद्र के नीचे था। गोंडवाना से टूटकर भारतीय भूतख्त जब यूरेशियन भूतख्त से टकराया तो टेथाइस समुद्र सिकुड़ गया । इस तरह समुद्र के सिकुड़ने से समुद्र की तलहटी उपर उठ गयी और हिमालय, महाभारत, (शिवालिक) चुरिया पर्वत श्रृंखला व मैदानी क्षेत्र बन गया। सूरज के ताप से बंगाल व अरब समुद्र का पानी वाष्प (बादल) बनने लगा और मानसूनी हवा, पश्चिमी वायु, वर्षा व हिमपात का सिलसिला शुरू हो गया। यह वायु वाष्प को आकाश में पहुंचाने लगा। इस प्रकार से जलचक्र की स्थापना हुई।

हम हिमालय, महाभारत, चुरिया, विंध्य पर्वतमाला एवं मैदानी भूभाग होकर बहते हुए बंगाल व अरब सागर में पहुंचने लगे। हम नदियां केवल जलधारा न होकर सम्यता भी हैं। हमारे किनारों में कई सभ्यताओं के विकास हुए। ये सभ्यताएं अभी भी हैं और भविष्य में भी इनका रहना जरूरी है।

भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनंदा, यमुना, महाकाली, कर्णाली, सरयू, गोमती, मोहना, रापती, गंडकी, वागमती, कमला, कोशी और कंकाई (महानंदा) मेरी बहनें हैं। नेपाल से बहने वाली महाकाली, कर्णाली व बबई नदी जब भारत पहुंचती हैं तो इनका नाम बदल जाता है और यह क्रमशः शारदा, घाघरा व सरयू कहलाती है।

हम तो नदी हैं। असल में हम में जात-बिरादरी, लिंग जैसी कुछ भी नहीं है। पर तुम मनुष्यों ने हम में से कुछ को पुरुष व कुछ को स्त्री बना दिया। यही नहीं, एक ही नदी को कहीं पुरुष तो कहीं नारी का नाम देते हुए अर्द्धनारीश्वर बना दिया। कैलाश पर्वत के पश्चिमी मोहड़े से निकलकर पाकिस्तान में बहने बाली सखी सिंधु को उपरी क्षेत्र में शेर दरिया (सिंह नदी), अब्बासीन (नदियों के पिता) भी बुलाया जाता है।

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भाई रावी, ब्यास, सतलज, झेलम व चेनाव भारत और पाकिस्तान से आकर सखी सिंधु से मिल जाते हैं। सिंधु अरब सागर में विलय हो जाती है। कैलाश पर्वत से निकला यार्लुंगसाङ्पो आसाम पहुंचने पर बह्मपुत्र बन जाता है, जब कि बांग्लादेश पहुंचने पर जमुना। इस तरह कहीं भाई होता है तो कहीं बहन। नारायणी भारत पहुंचने पर गंडक बन जाती है। भूगोल ने भी हमारे बहाव का स्वरूप निर्धारित कर दिया है। झारखंड के राजमहल से आगे बढ़ने के बाद मैं गंगा स्वयं दो भागों में बंट गयी हूं। उधर मुझे पद्मा और हुगली कहा जाता है। दामोदर और रूपनारायण हुगली के दो भाई हैं। पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) की ओर बढ़ने के बाद पद्मा को पद्दा नाम से भी बुलाया जाता है। मेघालय और बांग्लादेश से आयी बहन मेघना पद्मा में समाहित हो जाती है।

मेघना और बह्मपुत्र को गोद में लेकर पद्मा बंगाल की खाडी की ओर बढ़ जाती है। बहन पद्मा व हुगली अनगिनत धारों में बंटकर सुंदर-वन होते हुए बंगाल की खाडी में मिल जाती हैं। मैं, मेरी सखियां व मेरे भाइ-बहनों का विस्तार क्षेत्र विश्व जनसंख्या के करीब 15 प्रतिशत लोगों का वासस्थान है। मौसम के अनुसार हमारे व्यवहार भी बदलते रहते हैं। वर्षा के समय में हम कुछ आक्रामक हो जाते हैं। बाढ़ के साथ हम ढेर सारे पत्थर, रेत व मिट्टी ढो कर लाते हैं और मैदानी क्षेत्र में ले जा कर जमा कर देते हैं। पहाड़ियों को कुतर-कुतर कर हम धरातल पर मिट्टी लाते हैं। बारिस के मौसम में तो केवल मिट्टी ही नहीं, कभी-कभार छोटी-मोटी पहाड़ियों को ही अपने बहाव में ले लेना हमारे लिए चुटकियों का खेल है। हम अगर मिट्टी न लाएं तो तुम्हारे खेत उर्वर नहीं हो पाएंगे और ज्यादा महीन मिट्टी को तो बहाते हुए हम समुद्र तक पहुंचा देते हैं।

जलविज्ञान, साहित्य व त्रिवेणी विज्ञान कहता है कि हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक परमाणु मिलकर पानी के अणु बनते हैं, जो हमारा आधार है। अमेरिकी विज्ञान व तकनिकी काउंसिल के अनुसार जलविज्ञान पृथ्वी का जल, उसकी उपलब्धता व वितरण, उसके रासायनिक व भौतिक गुण, पर्यावरण सहित समस्त प्राणी जगत के साथ उसके संबंध की व्याख्या करता है। पौराणिक ग्रंथों में जलविज्ञान की मर्म को समेटा गया है। एक व्याख्या कहती है कि सूरज की गरमी के कारण आकाश में पहुंचा पानी बादल बनकर वर्षात्‌में परिणत होता है व नदी, तालाव तथा समुद्र में संचित होता है। हमारे संबंध में लोगों की समझ भलेही अलग-अलग हो, लेकिन व्याख्या निर्मल जलचक्र की मान्यता से मिलती-जुलती है । कुछ लोग मुझे काफी चाहते हैं। दक्षिण एशिया के अधिकांश लोग मुझे माता (मैया, माई) कहते हुए पूजते हैं। उन्होंने मेरे १०७ नाम दिए हैं, श्रद्धापूर्वक गंगा जी कहते हैं। अंग्रेजी भाषी लोग मुझे 'गैंगेज' बुलाते हैं, जो शायद 'गंगा जी' का अपभ्रंश हो । इडन बागीचे के चार में से एक 'पिसन' नदी से मुझे जोड़ा गया है।

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मुझे, मेरी बहनों, भाइयों को कवि व गायकों की परिकल्पना में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है । पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) में पद्मा व भगिनी धारों में नाव खेते हुए रवीन्द्रनाथ ठाकुर को गीतांजलि लिखने की प्रेरणा मिलने की बात बतायी जाती है।

मैथिली के महाकवि विद्यापति के संबंध में तो मुझ से जोड़कर किवंदंती ही बन गयी है। उन्होंने लिखा भी है–

कर जोरि विनमओं विमल तरंगे पुनि दरशन होए पुन मति गंगे

नेपाली के कवि शिरोमणि लेखनाथ पौड़ेल ने लिखा है– 'गंगामा भुक्ति मुक्ति दुई दिदीबहिनी नित्य खेल्छन् कपर्दी।'

इसी तरह आसाम के सुप्रसिद्ध कवि/कलाकार भूपेन हजारिका ने गाया है– 'ओ गंगा, तू बहती है क्यों?'

हिंदू धर्मावलंबियों में स्नान करते समय वाचन किए जाने वाले श्लोक में सिंधु, यमुना, सरस्वती, विंध्य श्रृंखला के उस पार के गोदावरी, नर्मदा, काबेरी और मेरा नाम लिया जाता है।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती । नर्मदे सिंधु कावेरी जलेद्रस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।

अर्थात् हे पवित्र नदियों! मेरे स्नान करने वाले जल में आप उपस्थित हों। जल का आदर करने वाले उस श्लोक को तत्कालीन 'नदी-गान' कहना कैसा रहेगा ? लेकिन मुझे एक बात का बड़ा अचंभा लगता है– श्लोक में मेरे अन्य भाई-बहन क्यों नहीं हैं! ब्रह्मपुत्र भी नहीं है । मेघदूत के रचयिता महाकवि कालीदास ने जिसे 'पृथ्वी की नाड़ी' कहा है, उस हिमालय पर्वतमाला को हम ने कैलाश पर्वत के पूरब, उत्तर व दक्षिण तीन दिशाओं से घेरा हुआ है।

हम भाई-बहनें जब आपस में मिलते हैं तो वह स्थान तीर्थस्थल बन जाता है, जहाँ लोग त्रिवेणी की परिकल्पना करते हैं। लोगों की कल्पनाओं में मात्र जीवित बहन सरस्वती प्रयाग (इलाहाबाद) में यमुना और मेरे साथ भूमिगत मार्ग से आती है। कई लोग मानते हैं कि सखी सिंधु और बहन यमुना के बीच से बहते हुए अरब सागर में पहुंचने वाला घग्गर ही सरस्वती है, बहन सरस्वती सूखी हुई है, वह बहती नहीं। हर १२ वर्षों में प्रयाग (इलाहाबाद) स्थित त्रिवेणी संगम में लगने वाले कुंभ मेले में आस्था के करोड़ो पुजारी व अनगिनत लोग जमा होते हैं। नेपाल के धनकुटा जिले में बहन सुनकोशी, भाई तमोर और अरुण के मिलने से त्रिवेणी बनी है। भाई अरुण तिब्बत से हिम-श्रृंखलाओं से बहते हुए नेपाल में आता है। त्रिवेणी से पहाड़ी को पार करते हुए कोशी चतरा आ पहुंचती है और नेपाल से निकलकर बिहार के कुरुसेला में मुझ से मिलती है।

इस क्षेत्र के बासिंदो का भविष्य हमारे जलाधारों के संतुलन व स्वच्छता में टिके होने के कारण इनकी हिफाजत करना आवश्यक है। संरक्षण के रास्ते बनाने के लिए तुम मनुष्य लोग अगर नई कल्पनाओं के साथ प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान व लोकविद्या को मिलाकर पूर्ण ज्ञान सृजित कर सकें तो सभी का भला होगा। बेलगाम दोहन, प्रदूषण व ह्रास आप मनुष्य लोग अपनी सीमितता व प्रकृति की भूमिका तथा देन का लेखाजोखा करना भूल से गए हो । इस यथार्थ को भूलकर कि प्रकृति में अंतर्निहित होकर ही समाज व हम जीवित हैं, प्रकृति बनाम विकास के तर्क को तुम लोगों ने जीवन का लक्ष्य बना लिया। प्रकृति व जैविक विविधता के अंधाधुंध विनाश से आज तुम लोग खुद ब खुद डरे डरे से रहते हैं। अगर मनुष्यों की भाषा में कही जाय तो हमारा पानी यूं ही बर्बाद हो रहा है।

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दरअसल आपकी सोच के अनुरूप उपयोग न होने के कारण हमारे बारे में तुम्हारी ऐसी धारणा बनी हुई है। सन् 1900 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में तो और आगे बढ़कर तुम लोगों ने यह कहते हुए विशेष नीति लागू कर दी कि हम जितनी भी नदियां हैं, सभी का धर्म केवल सिंचाई, बिजली उत्पादन व उद्योग ही है। इस नीति से उन्हें तो कुछ लाभ अवश्य हुआ, लेकिन निचले भूभाग, वहां रहने वाले मानव समुदाय, हम बहनों व भाइयों के बहने के अधिकार, हम पर आश्रित प्राणियों एवं जलचर (मछली, डॉल्फिन, घड़ियाल की प्रजातियों) की आवश्यकताओं व अभिरुचियों की अनदेखी होने लगी । इसी दृष्टिकोण से इस क्षेत्र की जलयात्रा भी आगे बढ़ने लगी। हमारी तलहटी व किनारे से तुम लोग जथाभावी पत्थर व रेत निकाला करते हो। तुम्हारे घरों व पूर्वाधारों के निर्माण के क्रम में सीमेंट में मिलाने के लिए ये सामग्रियां आवश्यक हैं। लेकिन तुम जहां भी कुछ देखते हो, अंजाम की परवाह किए बगैर असंतुलित रूप से उत्खनन करने लग जाते हो । उससे भी बड़ी बात– अभी तक इस तरह की निर्माण-सामग्रियों का विकल्प ढूंढ़ने दिशा में तुम लोगों ने सोचा तक नहीं है। समय-समय पर अव्यवस्थित उत्खनन् से परहेज करने की बातें तो करते हो, लेकिन राज्य के नियमनकारी संयंत्रों को तुम लोगों ने ही पंगु बनाकर रख दिया है। तुम लोगों ने इस तरह की नीति व नियत बना रखी है ताकि केवल तुम्हारे ही गूट के सदस्य लाभ ले सकें, राज्य के स्रोतों पर तुम्हारा ही कब्जा रह सके। अनियंत्रित दोहन की गतिविधि दिनदहाड़े होती रहती हैं।

आवश्यकताओं को देखकर ही शायद तुम लोगों ने कई तरह की संरचनाओं का निर्माण किया है। तुम्हारे संगठनों व विज्ञों में ऐसा करने की क्षमता है। तकनीक बनबाए व खरीदे जा सकते हैं, राज्यशक्ति भी सहयोगी है। लेकिन तुम लोग न जल का उचित संरक्षण कर पाए हो न तो गुणस्तरीय पेयजल आपूर्ति का उचित प्रबन्ध । आर्थिक रूप से विपन्न परिवारों व महिलाओं को पेयजल व सफाई के अभाव में जो पीड़ा भोगनी पड़ रही हैं उसके न्यूनिकरण के लिए तात्त्विक रूप से कुछ नहीं कर पाए हो। जल प्रदूषण निरंतर है, जिस के कारण हमरा रूप एवं गति बद् से बद्तर होती जा रही है।

हम नदियों का ही कहां, तुम लोग तो भूमिगत जल का भी बेलगाम दोहन करने से पीछे नहीं रहते। बड़ेबड़े पंपों का प्रयोग कर ऐसे भूमिगत जलाशयों से पानी खिंचते हो, जिसका वर्षा के जल से भरना नामुमकीन है। और इसका प्रयोग व्यापारिक खेती व शहरी क्षेत्र में विलासिता के कामों में करते हो। हमने अपने किनारों पर सामाजिक व सांस्कृतिक परंपराओं की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की। विना किसी भेदभाव के हम जलचक्र के धागे की तरह अविरल बहते रहे, भविष्य में भी इसी तरह बहते रहने की हमारी आकांक्षा हैं। सच पूछो तो तुम लोगों की तरह हमारी भाषा में विभेद के लिए कोई जगह ही नहीं है । लेकिन तुम लोग राजनीतिक एवं सामाजिक सीमाओं व बन्देजों का निर्माण करते हुए हमारा लय बिगाड़ने लगे। पानी के प्रयोग में विभेद व सीमांतीकरण की शुरुआत कर दी तुमने।

समाज में बोलवाला चलने वालों ने सरकारी नीतियों को ही अपने हितों के अनुरूप मोड़ने की परिपाटी बसा डाली। इस परिपाटी ने समाज को बुरी तरह से जकड़ लिया है। नदी, तालाव, भूमिगत जल व वर्षा का खंडित लेखाजोखा करते हुए किसी मकड़जाल की तरह तुम लोगों ने जलविकास का प्रशासनिक पथ बना लिया है। सिंचाई, जलविद्युत्, पेयजल, व्यवस्थापन आदि कार्य करने वाले तुम्हारे राजकीय संगठन एक-दूसरे से समन्वय के बगैर सब अपने ही ढंग से काम करते हैं। तुम लोगों में भी सबकी बातें अलग-अलग तरह की हैं। कोई राज्य को अक्षम बताते हुए एकाकी बाजार के शरण में जाकर नदी व जलनिधि के पूर्ण निजीकरण का पक्षपोषण करते हो तो कोई जलसेवा आपूर्ति में बाजार की संलग्नता को अपरिहार्य मानते हुए भी बाजार का नियमन नहीं करते । हम नदियों का निर्माण तुम लोगों ने नहीं किया है। तुम्हें इस बात का ज्ञान शायद अभी तक नहीं हो पाया है कि हावा, पानी, मिट्टी जैसी चीजों के निर्माण की क्षमता तुम में नहीं है। पोखरों, कुंडों, तालावों एवं आर्द्रभूमियों पर आंखे मूंदकर बुलडोजर चला देते हो। खाली मैदान देखते ही उन्हें कंक्रिट से भरने की जुगत में लग जाते हो।

भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं हो पाता है। तुम लोग ना तो यह सोचते हो कि जलचक्र खंडित होने से हम नदियां रुग्ण हो जाएंगी। तुम्हारे दिमाग में यह भी नहीं आता कि इससे विपन्न लोगों का जीवन दुभर हो जाता है, वे अन्याय में पड़ जाते हैं। प्रकृति के साथ प्रेम से बातचीत करने वाले कुछ सच्चे लोगों ने जल संरक्षण संबंधी स्थानीय सत्प्रयास भी किए हैं, लेकिन ये हमारी बिगड़ती अवस्था को संवारने के लिए यथेष्ट नहीं हैं। हमारे बहाव-मार्ग का अतिक्रमण कर इन्हें तुम लोगों ने संकीर्ण कर दिया है। इस से तुम्हारे शहर अव्यवस्थित, कुरूप व प्रदूषित हो गए हैं, हरियाली विहीन उजाड़-उजाड़ से। बासिंदामैत्री तो कतई नहीं हैं। अब तो ऐसे शहरों में भी बाढ़ की विभीषिकाएं देखी जाने लगी हैं, जहां कभी जल आपूर्ति का संकट हुआ करता था। और ऐसी घटनाएं निरंतरता सी लेने लगी हैं। मुसलाधार बारिस होने के बाद जब हम हाहाकारी वेग के साथ बहते हैं तो बरबस ही तुम संकट में पड़ जाते हो और फिर हमें गालियां देने लगते हो– अपनी बर्वादी का रोना रोते हुए। लेकिन कुछ ही दिनों बाद फिर सब कुछ भूल जाते हो। जल-सुशासन स्थापित करने के मामले में तुम लोग चूक गये हो। अधिक क्या कहूं, बस इतना समझ लो कि हमपर की जाने वाली मनेमानी अंततः मानव जाति के लिए ही अहितकर होती है।

जल-विवेक, निर्मलता व स्वच्छता वर्तमान जल संकट का एक कारण है– खंडित जलचक्र की स्वीकार्यता का दृष्टिकोण व विधि । समुद्र और बादलों के बीच चें रहकर हम जमीन, जंगल, समुदाय के साथ ही आस्था, सभ्यता व प्रयोगों को जीवंत रखते हैं। हम नदियां धरती की धमनी यानि रक्तकोशिकाएं हैं। हम बहते हैं, इस का मायने यह कतई नहीं कि हम पानी बर्वाद करते हैं। और ऐसा हम कभी करेंगे भी नहीं। बहना हमारा धर्म है। हमें अनवरत स्वच्छ रहना होता है। कुंभ के मेले में आने वाले बहुसंख्यक लोग पवित्र जल व नदी की ही मान्यता से प्रेरित होकर आते हैं, अन्य किन्हीं कारणों से नहीं। दुर्भाग्य की बात है कि यह मान्यता तुम्हारे क्रियाकलापों में नहीं देखी जाती। अत्याचार की भी एक सीमा होती है। तुम लोग तो अपने मल-मूत्र तक सीधे हमारे शरीर में उंड़ेल देते हो। यह सोचते हो कि इन नदियों का क्या काम, ये तो बहा ही ले जाएंगी! अपने अपने घरों में प्राकृतिक जल लाते हो और शौचालय में विष्ठा के साथ फ्लॉस कर देते हो । साफ पानी में बिष्ठा मिलाने वाली सांस्कारिक विडंबना तुम्हें कहां ले जाएगी, यह तो उपर वाला ही जानता है।

हमें ऐसी आशा तो नहीं है कि जल से मल बहाने वाले अपने संस्कार को तुम तत्काल बदल लोगे, फिर भी मलचक्र व जलचक्र को अलग-अलग करने की विधि तो शुरु कर ही सकते हो! अप्रशोधित मल को जलचक्र में न मिलाने की सामूहिक वचनवद्धता के साथ अगर तुम लोग आगे बढ़ते तो हमें भी संतोष मिलता। अब हम तुम लोगों से कुछ आह्वान करते हैं। जल व नदी संरक्षण को देखने का नजरिया बदलो। इसे एक नया यज्ञ के रूप में देखो। कौन व कैसी विधि अपनानी है, यह सोचने व पता लगाने का दायित्व तुम्हारा है। प्राकृतिक विज्ञान तुम लोगों को इस से संबद्ध कई सवालों का जवाब दे देगा। न्याय व शासन पद्धति के लिए सामाजिक विज्ञान आवश्यक है। लोकविद्या से स्थानविशेष के समुदाय की मान्यता को अपनापन मिलता है। किसी एक के नजरिये से इनका प्रयोग करना अधूरा या अपूर्ण होगा। प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान व लोकविद्या का सम्मिलन करो। संयोजित विधि को पवित्र जल की मान्यता का लेप लगाओ । विवेक का आधार ज्ञान, ज्ञान का आधार सूचना व सूचना का आधार तथ्यांक है। आजकल तथ्यांक की बाढ़ सी आयी हुई है। इसे विवेक में रूपांतरित करने के लिए तुम्हें अथक परिश्रम करना होगा। जल-विवेक से निर्देशित होकर ऐसी शासन पद्धति की शुरुआत करो जो तुम्हारी आवश्यकताओं की परिपूर्ति के साथ ही ऐसा वातावरण बनाए, जिस से हम नदियां भी स्वच्छतापूर्वक अनवरत बह पाएं। हम सभी के स्वच्छ व अविरल रहने की संस्कृति जल संकट समाधान में सहायक होगी।

हमारी आशा है– आप मनुष्य लोग नदी, तालाव, कुंड, आर्द्रभूमि व भूमिगत जल का संतुलित प्रयोग करोगे। अगर ऐसा हुआ तो हमारा विश्वास है कि तुम्हारी संतान दर संतान जल संकट से मुक्त रहेगी। कंचन बहती मेरी बहनें व भाइयों को देखने, अनुभव करने व आनंद लेने के सुअवसर पाएंगी। तुम्हारे शरीर के अंदर भी तो दो तिहाई जल ही है। सत्य यही है– जल के विना जीवन संभव नहीं है।

इस लेख के लेखक अजय दीक्षित नेपाल की राजधानी काठमांडू में रहते हैं और आइसेट नेपाल से जुड़े हुए हैं। यह लेख नेपाल के राष्ट्रीय दैनिक अखबार कांतिपुर में प्रकाशित हो चुकी है, जिसका नेपाली से हिंदी में अनुवाद धीरेन्द्र प्रेमर्षि ने किया है।

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