जान जोखिम में डाल क्यों जंगलों में जाते हैं सुंदरबन के मछुआरे?

टापू के लोगों की जिंदगी तमाम तरह की दुश्वारियों से भरी हुई है। वे मेनलैंड तक उन्हीं वक्तों में जा सकते हैं, जब ज्वार आया हुआ हो। शाम ढलने के बाद उन्हें टापू में कैद हो जाना पड़ता है क्योंकि शाम के बाद नावें नहीं चलती हैं। टापुओं में अच्छा अस्पताल नहीं है। रोजगार के साधन नहीं हैं। लोगों के पास पर्याप्त जमीन भी नहीं है, नतीजतन पलायन भी खूब होता है।

Umesh Kumar RayUmesh Kumar Ray   17 Feb 2020 9:01 AM GMT

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sundarban fishermen storyवनलता की तस्वीर दिखाते उनके पति गौर तरफदार। वनलता की बाघ के हमले में मौत हो गई थी।

बाघ का जिक्र आते ही गोसाबा के रहने वाले 42 वर्षीय मनोरंजन जाना खौफ से भर जाते हैं। खौफ की वजह उनके सिर की दाईं तरफ कान से ठीक ऊपर पड़ा जख्म का एक बड़ा निशान है। जख्म का असर ऐसा हुआ है कि उस हिस्से में बाल नहीं उगा है और दाएं कान से उन्हें कुछ सुनाई भी नहीं पड़ता।

जख्म के बाबत पूछने पर वह साल 2011 की घटना सुनाते हैं। 6 अप्रैल का दिन था। मनोरंजन एक नाव पर सवार होकर घर से कुछ दूर नेताधुबुनी के दलदले जंगल बस्ताबुरी में मछली पकड़ने गए थे। नाव में उनके साथ चार और लोग थे। सुबह में जाल फेंक दिया था और दोपहर के वक्त जाल निकालने पहुंचे थे। जाल से सारी मछलियां चुन ली गई थीं। जाल समेट कर वे लोग वहां से निकलने ही वाले थे कि बाघ ने मनोरंजन पर झपट्टा मारा।

मनोरंजन दुनिया के सबसे बड़े मैन्ग्रोव जंगल का दर्जा पा चुके पश्चिम बंगाल के सुंदरबन के गोसाबा द्वीप में रहते हैं। सुंदरबन पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश तक फैला है। बंगाल के हिस्से में जो सुंदरबन है और उसका क्षेत्रफल करीब 4000 वर्ग किलोमीटर में पसरा हुआ है। यहां करीब 100 टापू हैं, जिनमें से 54 टापुओं पर लोग रहते हैं।

टापू के लोगों की जिंदगी तमाम तरह की दुश्वारियों से भरी हुई है। वे मेनलैंड तक उन्हीं वक्तों में जा सकते हैं, जब ज्वार आया हुआ हो। शाम ढलने के बाद उन्हें टापू में कैद हो जाना पड़ता है क्योंकि शाम के बाद नावें नहीं चलती हैं। टापुओं में अच्छा अस्पताल नहीं है। रोजगार के साधन नहीं हैं। लोगों के पास पर्याप्त जमीन भी नहीं है, नतीजतन पलायन भी खूब होता है।

लेकिन, जो रोजगार के लिए टापू छोड़ना नहीं चाहते हैं, उनके लिए विकल्प सीमित है- या तो वे खेती-बारी कर न्यूनतम जरूरतें पूरी करते हुए जिंदगी खपा दें या फिर थोड़ी बेहतर जिंदगी के लिए खेती के अलावा नदी कछार के बीहड़ में जाकर मछलियां, केंकड़ा पकड़े और शहद निकालें। दूसरे विकल्प के साथ जान का खतरा भी नत्थी है, क्योंकि उन्हें मछलियां व केंकड़ा पकड़ने के लिए घने जंगलों में जाना पड़ता है, जहां बाघ रहते हैं।

मनोरंजन बताते हैं, "बाघ कम से कम 10 फीट का तो रहा ही होगा। मैं अपने सामने मौत को झपट्टा मारते देख रहा था। बचने की कोई उम्मीद तो मुझे दिख नहीं रही थी, लेकिन तत्काल मेरे जेहन में एक ख्याल कौंधा और मैं बाईं तरफ हो गया। बाघ का पंजा मेरे सिर के दाहिने हिस्से को नोचते हुए निकल गया। नाव पर सवार अन्य मछुआरों ने साहस जुटा कर लाठी से बाघ पर दबिश बनाई, तो वह जंगल की तरफ भाग गया।"

बाघ के हमले से मनोरंजन जाना बाल-बाल बच गए थे

मनोरंजन के साथ गए अन्य मछुआरे उन्हें नाव में लेकर तुरंत वहां से भागे और इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया। दो महीने तक वह अस्पताल में भर्ती रहे। अपनी जांघ में पड़ा जख्म का एक अन्य निशान दिखाते हुए वह कहते हैं, "डॉक्टरों ने जांघ के इसी हिस्से की चमड़ी काट कर सिर में लगाया। इलाज पर दो लाख रुपए खर्च हो गए।"

मनोरंजन बताते हैं, "पहले मैं जंगल से शहद निकालता था, मछलियां और केंकड़े पकड़ता था। इसी से मेरा घर चलता था क्योंकि मेरे पास खेत कम है। उस खौफनाक हमले के बाद मैंने जंगल जाना छोड़ दिया है।" मनोरंजन के पास 15 कट्ठा खेत है। इसी खेत से उपजने वाले अनाज से मनोरंजन, उनकी पत्नी और दो बच्चों का पेट पलते हैं। वक्त मिलता है, तो अब वह मजदूरी भी कर लेते हैं।

मनोरंजन की तरह ही कुछ मुट्ठीभर लोग खुशकिस्मत रहे। वे मौत के पंजे से बाहर निकल आए। लेकिन ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा है, जो बच नहीं पाए।

49 वर्षीया वनलता तरफदार पिछले साल 8 जुलाई को पीरखाली के जंगल की तरफ केंकड़ा पकड़ने गई थीं। वह लगातार 15 साल से अपने पति के साथ जंगल में जा रही थीं, पर बाघ से कभी सामना नहीं हुआ, लेकिन 8 जुलाई की उनकी जंगल की यात्रा जिंदगी की अंतिम यात्रा साबित हुई।

वह भोर में चार बजे अन्य तीन महिलाओं के साथ पीरखाली जंगल में गई थीं। केंकड़ा अपने बिल से बाहर तभी निकलता है, जब ज्वार आता है, लेकिन ज्वार सुबह 8 बजे आनेवाला था, तो वे लोग इंतजार करने लगे। 8 बजे ज्वार आया, तो उन्होंने पर्याप्त केंकड़ा पकड़ लिया और वहां से निकलने की तैयारी करने लगे। वनलता बीच में थीं, तभी बाघ ने सामने से हमला किया और गर्दन पकड़ कर जंगल की तरफ चला गया।

वनलता के 60 वर्षीय पति गौर तरफदार विकलांग हैं। मिट्टी के घर के दालान पर बैठे गौर कहते हैं, "बाघ हमेशा लक्षित हमला करता है। वह पहले ही तय कर लेता है कि किसे शिकार बनाना है। नाव पर मेरी पत्नी की दोनों तरफ अन्य महिलाएं थीं, इसके बावजूद बाघ ने मेरी बीवी पर हमला किया और उठा ले गया। हम अब तक उसकी लाश नहीं ढूंढ सके।"

बाघ के हमले से मारे गए लोगों की लाश अमूमन नहीं ही मिलती है, क्योंकि हमले के बाद काफी दिनों तक लोग वहां जाने से डरते हैं और जब तक जाते हैं, तब तक लाश को बाघ व अन्य जंगली जानवर खा चुके होते हैं।

जोखिम भरे जंगलों में जानेवाले मछुआरों को ब्लॉक दफ्तर में पंजीयन कराना होता है। इसके बाद ब्लॉक के अधिकारी मछुआरों के लिए पास जारी करते हैं। पास निश्चित अवधि के लिए जारी होता है। बारिश के सीजन में तीन महीने तक जंगलों में जाने पर रोक रहती है और इस अवधि में पास जारी नहीं होता है। वनलता तरफदार ने 7 जुलाई को ही डेढ़ महीने तक जंगल में जाने के लिए पास हासिल किया था और 8 जुलाई को जंगल की तरफ रवाना हुई थीं।

गौर तरफदार के चार बेटे हैं। इनमें से तीन अलग रहते हैं। एक बेटा और बहू साथ रहते हैं। वह लीज पर खेत लेकर किसानी करते हैं। पत्नी केंकड़ा वगैरह पकड़ कर लाती थी, तो कुछ ठीकठाक कमाई हो जाती थी। पत्नी की मौत से टूट चुके गौर तरफदार ने प्रण ले लिया है कि वह अब न तो खुद जंगल में जाएंगे और न ही अपने बेटे को जाने देंगे।

अनिल मंडल की कहानी

अनिल मंडल की मौत 23 नवंबर को बाघ के हमले में हो गई

पिछले साल ही 22 नवंबर को गोसाबा के 65 वर्षीय अनिल मंडल खोलाखाली जंगल में केंकड़ा पकड़ने गए थे, लेकिन उनकी भी वापसी नहीं हो सकी। अनिल मंडल का किस्सा दुर्योगों से भरा हुआ है। अनिल मंडल के भांजे प्रसाद मंडल कहते हैं, "22 नवंबर को वो जंगल में गए थे। रात वहीं बिताई और 23 को केंकड़ा पकड़ कर लौटने वाले थे, लेकिन बाघ का शिकार हो गए। दूसरे मछुआरों ने हमें हमले की खबर दी।"

अनिल मंडल के परिजन बताते हैं कि करीब 30 साल पहले भी एक बार बाघ ने उन पर हमला किया था, लेकिन वह बच गए थे। प्रसाद मंडल के मुताबिक, वह केंकड़ा पकड़ने के बाद नौका बांध कर नहा रहे थे, तभी बाघ ने हमला किया था, लेकिन बाघ का मुंह उनकी धोती में उलझ गया था, जिस कारण वहां से भागने में कामयाब हो गए थे।

इस खौफनाक घटना के बाद उनके बेटों ने सख्त हिदायत दी थी कि आइंदा वे जंगल में कभी न जाएं। हिदायत मानते हुए अनिल मंडल ने जंगल जाना लगभग छोड़ दिया था। इस बीच कुछ दिन वह अंडमान निकोबार में भी थे। बाद में गांव लौटे, तो गाहे-ब-गाहे जंगल चले जाते। प्रसाद मंडल कहते हैं, "जंगल में जाकर मछलियां पकड़ना भी एक नशा है। चाचाजी को भी इसका नशा हो गया था, इसलिए सख्त हिदायत के बावजूद खुद को रोक नहीं पाए।"

पांच साल में 71 मछुआरों की मौत

सुंदरबन वैसे तो बाघों के हमले से कभी अछूता नहीं रहा है, लेकिन ये जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद बाघों के हमले की घटनाओं में अप्रत्याशित गिरावट आ गई थी। प्रसाद मंडल ने उन्हीं दशकों में होश संभाला था। उनका का कहना है कि पहले मछुआरों पर बाघ के इतने ज्यादा हमले नहीं होते थे। हाल के वर्षों में ऐसी घटनाओं में तेजी आई है। मंडल का ये कहना काफी हद तक सही है और इसकी तस्दीक सुंदरबन में बाघों के हमलों के आंकड़ों से हो जाती है।

पश्चिम बंगाल के वन निदेशालय की किताब एनिमल डायवर्सिटी, नेचुरल हिस्ट्री एंड कंजर्वेशन के वॉल्यूम-2 में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि साल 1994-1995 से लेकर साल 2010-2011 तक 15 वर्षों में 106 लोगों की मौत बाघ के हमले से हुई थी। लेकिन, बाद के वर्षों में इसमें भारी इजाफा हुआ। पिछले साल 28 जून को लोकसभा में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की तरफ से दिए आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 से 2018 के बीच महज 5 सालों में सुंदरबन में बाघों के हमले से 71 लोगों की मौत हुई है।

अगर इन आंकड़ों का औसत निकालें, तो साल 1994-1995 से 2010-2011 के बीच हर साल औसतन 7 लोगों की मौत बाघ के हमले से हुई, जबकि साल 2014 से 2018 के बीच हर साल बाघ के हमले से औसतन 14 लोगों की जान गई। गोसाबा का एक पूरा मोहल्ला उन महिलाओं से आबाद है, जिनके पतियों की मौत बाघ के हमले के कारण हो चुकी है। इस मोहल्ले को "विधवा पाड़ा" कहा जाता है।

नहीं मिलता मुआवजा

परिमटधारी मछुआरों की बाघ के हमले में मौत होने पर पश्चिम बंगाल के वन विबाग और मत्स्य विभाग की तरफ से 4 से पांच लाख रुपए मुआवजा मिलने की बात है, लेकिन इसके लिए आधा दर्जन से ज्यादा शर्तें हैं। इन शर्तों को पूरा करना नामुमकिन होता है, नतीजतन मुआवजा नहीं मिल पाता । कई बार तो मृतकों के परिजन प्रशासन के सामने साबित भी नहीं कर पाते कि उनके लोग बाघ के हमले में मारे जा चुके हैं क्योंकि इसके लिए लाश की पोस्टमार्टम रिपोर्ट होनी चाहिए।

जुलाई 2016 में एक आरटीआई दायर कर पश्चिम बंगाल सरकार से पूछा गया था कि पिछले 6 सालों में बाघ के हमले में मारे गए 100 मछुआरों में से कितने मछुआरों के परिवार को मुआवजा मिला। जवाब में सरकार ने बताया कि 6 सालों में महज 5 परिवारों की तरफ से मुआवजे का आवेदन आया, जिनमें से सिर्फ तीन परिवारों को 1-1 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया।

पिछले साल नवंबर में बाघ के हमले का शिकार हुए अनिल मंडल के परिजनों ने बताया कि मुआवजे के लिए जरूरी दस्तावेज मत्स्य व वन विभाग के कार्यालय में जमा किया है, लेकिन अब तक उन्हें मुआवजा नहीं मिला है।

क्यों बढ़े बाघों के हमले?

मनुष्य और वन्यजीव सदियों से अपने-अपने दायरों में सुरक्षित रहते आए हैं। लेकिन, हाल के वर्षों में बाघ और मछुआरों के बीच जिस तरह से मुठभेड़ बढ़ा है, वो चिंता की बात है।

इस मुठभेड़ की वजहों की पड़ताल की कड़ी में गौर तरफदार जंगल और मछलियों पर बात करते हुए एक अहम जानकारी साझा करते हैं, जिससे मछुआरों पर बाघ के हमले की वजहों का एक सिरा मिलता है। वह बताते हैं, "पहले हमलोग जिस जगह मछलियां व केंकड़ा पकड़ने जाते थे, वहां अब इनकी आमद नहीं होती है, इसलिए हमलोगों को जंगल में दो-तीन किलोमीटर भीतर जाना पड़ता है।"

गौर तरफदार की इस बात पर गोसाबा के दूसरे मछुआरे भी हामी भरते हैं। मछुआरों का कहना है कि पानी में खारापन बढ़ने से मछलियों की आमद प्रभावित हुई है, यही वजह है कि उन्हें अब भीतर की तरफ जाना पड़ता है। इसका मतलब है कि जो कभी बाघ का अपना इलाका हुआ करता था, वहां मछुआरे जा रहे हैं, नतीजतन बाघों के हमले बढ़ रहे हैं।

लेकिन, यह इकलौती वजह नहीं है। विशेषज्ञ इसे जलवायु परिवर्तन से भी जोड़ते हैं। समुद्र के जलस्तर में इजाफे के कारण भूखंड सिकुड़ रहा है, जिस कारण बाघों की सैरगाह भी सिमटती जा रही है, लेकिन बाघों की संख्या में इजाफा हो रहा है।

टाइगर रिजर्व में काम करने वाले एक वन्यजीव विशेषज्ञ नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "हर बाघ का अपना इलाका होता है। जब बाघों की संख्या बढ़ती है, तो नए बाघ अपना इलाका तलाशने लगते हैं और दूसरे बाघों से लड़ भी जाते हैं। बाघों के गुस्से को शांत करने के लिए रिजर्व एरिया बढ़ाने की जरूरत पड़ती है, लेकिन सुंदरबन में भूखंड सिकुड़ रहा है, इससे बाघों के भीतर गुस्सा है, जो उनके क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले मछुआरों पर उतरता है, क्योंकि मछुआरों के प्रवेश से उन्हें खतरा महसूस होता है।"

सैटेलाइट तस्वीरों का अध्ययन कर इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) ने एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 वर्षों में सुंदरबन का 9990 हेक्टेयर भूखंड कटाव के कारण पानी में डूब गया है। एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ वर्ल्डवाइड फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के मुताबिक, बंगाल की खाड़ी में सुंदरबन के सागरद्वीप व आसपास के क्षेत्र में समुद्र का जलस्तर प्रतिवर्ष 11 मिलीमीटर बढ़ रहा है, जबकि वैश्विक स्तर पर जलस्तर में महज 2 मिलीमीटर का इजाफा हो रहा है।

एनिमल डायवर्सिटी, नेचुरल हिस्ट्री एंड कंजर्वेशन के वॉल्यूम-2 के एक चैप्टर में लिखा गया है, "सुंदरबन में समुद्री जलस्तर व इससे संबंधित बदलाव यहां की जैवविविधता के लिए गंभीर खतरा है। साल 2005 में आई सुनामी के कारण सुंदरबन के पश्चिमी हिस्से के पानी में खारापन आ गया है।"

किताब में आगे लिखा गया है, "पिछले तीन दशकों में रॉयल बंगाल टाइगर की सैरगाह सुंदरबन टाइगर रिजर्व क्षेत्र का 20 प्रतिशत हिस्सा पानी में समा चुका है। साल 1969 से 2009 तक 210।247 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र नदी की भेंट चढ़ गया है।"

गोसाबा का मैन्ग्रोव जंगल

जानकारों की राय

जानकार ये भी बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते जलस्तर से बाघों को भोजन (हिरण, बंदर जैसे जानवर) भी नहीं मिल पा रहा है क्योंकि ज्यादा पानी होने से ये जानवर (जिनकार शिकार बाघ करते हैं) सुरक्षित ठिकाने की तलाश में दूसरे जगह भाग जा रहे हैं। मछली पकड़ने के लिए जंगलों में जानेवाले मछुआरों ने बताया कि पहले जंगलों में काफी संख्या में हिरण हुआ करते थे, लेकिन अब उनकी संख्या बहुत कम हो गई है। ये भी एक वजह है कि वे जब तब मछुआरों पर हमला कर देते हैं।

पश्चिम बंगाल सरकार के वन निदेशालय में अहम पद पर रह चुके जयंत कुमार मल्लिक ने सुंदरबन पर काफी काम किया है। वह बताते हैं, "जंगल का कुछ हिस्सा सुरक्षित वन में आता है। इन जगहों पर वे मछुआरे ही जा सकते हैं, जिनके पास परमिट है। लेकिन कई दफे वैसे मछुआरे भी उन जंगलों में चले जाते हैं, जिनके पास परमिट नहीं होता है। जंगलों में खास कर जो संकरे नाले होते हैं, वहां मछलियों और केंकड़ों की आमद ज्यादा होती है। लेकिन इन्हीं नालों में जोखिम भी ज्यादा होती है। क्योंकि यहां वे आसानी से बाघ के शिकार हो सकते हैं।"

मौसम में बदलाव के चलते दरपेश खतरों की तरफ इशारा करते हुए मल्लिक कहते हैं, "सुंदरबन के दक्षिणी तटीय इलाकों में जलवायु से संबंधित खतरे बढ़ जाने से बाघ और उनका शिकार उत्तर की तरफ रुख कर रहे हैं। लेकिन, उत्तरी क्षेत्र में बाघ के लिए शिकार करना बहुत मुश्किल होता है और वे थक जाते हैं। "

मछुआरों पर बाघ के हमले को लेकर वह एक और दिलचस्प बात बताते हैं। "जब बाघों के क्षेत्र में मछुआरों के प्रवेश में तेजी आती है, तो भूखे बाघ के लिए वे आसान शिकार बन जाते हैं क्योंकि हिरण या दूसरे जानवरों का शिकार करने के लिए बाघ को काफी भागना-दौड़ना पड़ता है। लेकिन, मछुआरों के मामले में ऐसा नहीं होता है, क्योंकि वे जानवरों की तरह भाग नहीं सकते", मल्लिक ने कहा।

मछुआरों की मजबूरी

मछुआरों को मालूम है कि बाघ के क्षेत्र में घुसपैठ की कीमत उनकी जान भी हो सकती है। किसी मछुआरे के बाघ के हमले से मारे जाने की खबर आती है, तो वे भीतर तक सिहर उठते हैं। फिर कुछ दिनों तक जंगलों में जाना बंद कर देते हैं, लेकिन उनके पास बहुत विकल्प भी नहीं है। लिहाजा जान हथेली पर लेकर जंगलों का रुख करना पड़ता है।

मछुआरों की इस मजबूरी को समझते हुए पश्चिम बंगाल सरकार मछुआरों के बच्चों को रोजगारमूलक ट्रेनिंग दे रही है ताकि वे बड़े होकर मछली व केंकड़ा पकड़ने के लिए जंगलों की तरफ न जाएं, बल्कि अपने घर पर ही रोजगार कर सकें। पश्चिम बंगाल के सुंदरबन विकास मंत्री मंटूराम पाखीरा कहते हैं, "सरकार की तरफ से युवाओं को कपड़ा सिलाई, टीवी-रेडियो व मोबाइल रिपेरिंग, नलकूप मरम्मत करने, ब्यूटिशियन आदि की शिक्षा दी जाती है। ट्रेनिंग खत्म होने के बाद इच्छुक युवाओं को आर्थिक मदद भी मिलती है, ताकि वे रोजगार शुरू कर सकें।"

स्थानीय लोगों ने बताया कि इस ट्रेनिंग के बाद कुछ युवाओं ने स्वरोजगार शुरू किया है और वे कमोबेश संतुष्ट हैं, लेकिन इससे बड़ा बदलाव अब तक नहीं आया है।

मंटूराम पाखीरा ने कहा, "अगर बाघों के क्षेत्र में मछुआरे प्रवेश करेंगे, तो वे हमला करेंगे ही। हमलोग इसको लेकर जागरूकता कार्यक्रम भी चला रहे हैं। इसके तहत मछुआरों को बताया जा रहा है कि वे बाघों की सैरगाह में न जाएं।"

लेकिन, सच तो ये है कि मछुआरों को जागरूकता से ज्यादा रोजगार के वैकल्पिक व सुगम अवसरों की जरूरत है। क्योंकि, जागरूक हो जाने के बाद भी उन्हें रोजीरोटी का जरिया तो जंगलों से ही मिलना है और इसके लिए इन्हें गहरे जंगलों का ही रुख करना होगा। भले ही जान हथेली पर लेकर ही क्यों न जाना पड़े।

(उमेश कुमार राय एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह स्टोरी नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की फेलोशिप के तहत उन्होंने की है।)

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