मुद्दा: यही बाढ़ बनेगी सूखे का सबब

हालांकि उसे पता नहीं चल पाता कि कितना पानी गिरा, कितना बांधों में भरा और कितना पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ बहकर समुद्र में चला गया। बेकार जा रहा यही पानी सर्दियों और गर्मियों में याद आएगा।

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मुद्दा: यही बाढ़ बनेगी सूखे का सबब


सुविज्ञा जैन

किसान की नज़र बादलों पर है। मानसून का मौसम आए डेढ़ महीना गुज़र गया। अभी तक की रिपोर्ट यह है कि अब तक देश भर में जितनी बारिश होनी चाहिए थी उससे आठ फीसदी कम हुई है। कहीं-कहीं तो 60 फीसदी कम हुई है और कहीं बाढ़ के हालात हैं।

वैसे देश में बाढ़ तो आजकल वहां भी आने लगी है, जहां सामान्य बारिश हो जाती है। हालांकि वे सब शहरी इलाके हैं जहां ताबड़तोड़ विकास ने पानी की निकासी के रास्ते रोक दिए। लेकिन गाँव यानी किसान तो झमाझम बारिश ही चाहता है ताकि उसके खेत हफ्ते दो हफ्ते तो पानी से तर रहें। वह यह भी चाहता है कि इतना पानी गिरे कि बांधों में भी पानी भर जाए और आगे जरूरत पर नहरों से भी पानी मिल जाए।

हालांकि उसे पता नहीं चल पाता कि कितना पानी गिरा, कितना बांधों में भरा और कितना पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ बहकर समुद्र में चला गया। बेकार जा रहा यही पानी सर्दियों और गर्मियों में याद आएगा। यानी जब सूखा पड़ता है तब हमें यह याद करना चाहिए कि मानसून में हम कितना पानी रोककर नहीं रख पाए। सूखे के समय रोने गाने की बजाए क्या हमें बारिश के दिनों में ही चिंता नहीं करनी चाहिए कि सूखे से बचाव के लिए हम कर क्या रहे हैं?

मौसम विभाग का रवैया

मौसम विभाग ने बड़े शौक से अनुमान लगाया था देश में सामान्य बारिश होगी। उसके मुताबिक मानसून ने दस्तक भी समय पर दी। मौसम विभाग का यह दावा भी है कि मानसून ने इस साल अपने तय समय से दो हफ्ते पहले पूरे देश को कवर कर लिया। लेकिन पूर्वोत्तर भारत में अच्छी बारिश के बावजूद मानसून के पहले महीने के दौरान देश में बारिश सामान्य से कोई सात फीसदी कम हुई थी।

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यानी वर्षा के सरकारी अनुमान गड़बड़ा गए हैं। एक महीने से ज्यादा गुज़रने के बाद भी नए अनुमान नहीं जताए गए। माना जा रहा था कि बाकी बचे तीन महीनों में ज्यादा पानी गिर जाएगा और पहले महीने में कम गिरे पानी की भरपाई हो जाएगी। लेकिन मानसून के दूसरे महीने के शुरुआती दो हफ्तों में भी बारिश कम हुई। बारह जुलाई तक कम बारिश की घटोतरी की आंकड़ा आठ फीसद कम बारिश का है।


वैसे तो मामला आसमानी है सो आगे का कुछ पता नहीं, लेकिन क्या यह बड़ी चिंता की बात नहीं है कि मानसून के मौसम का एक तिहाई समय गुजर जाने के बाद बारिश के हिसाब-किताब में आठ फीसदी का घाटा चल रहा है। फिर भी सरकारी विभागों को उम्मीद है कि बाकी बचे ढाई महीनों में बारिश की भरपाई हो जाएगी। ये इच्छित अनुमान तभी सही निकल सकता है जब मानसून के बाकी बचे ढाई महीनों में ताबड़तोड़ बारिश हो।

अगर ऐसा हुआ तो देश के बाढ़ की चपेट में आने का अंदेशा खड़ा समझिए। वैसे अब तक एक अनुभव यह भी है कि देश में अनुमान से कम भी पानी गिरे फिर भी कई जगह बाढ़ का खतरा बना ही रहता है। इसीलिए देश में जल कुप्रबंधन की आलोचना होती है। पूरे आसार हैं कि इस साल पहले बाढ़ और फिर सूखे से तबाही के बाद जल कुप्रबंधन की आलोचना सबसे ज्यादा होगी।

जल प्रबंधन की नियामक संस्थाओं की कमी नहीं

जल प्रबंधन के लिए हमारे पास हर राज्य में सिंचाई विभाग और केंद्र में केंद्रीय जल आयोग, जल संसाधन मंत्रालय वगैरह हैं। आजकल नीति आयोग नाम की अलग से एक और नई संस्था भी है। इस आयोग ने हाल में एक नई कवायद की थी, जिसमें पानी के मामले में हर राज्य की स्थिति के लिहाज से एक सूचकांक बनाकर प्रचारित किया था। इसी रिपोर्ट में हवाला था कि पानी के मामले में देश की हालत कुछ ज्यादा ही ख़राब है।

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इस सूचकांक को मानसून के दिनों में जारी करने का मकसद समझ में नहीं आया। हो सकता है कि इस सूचकांक को बनाने का मकसद स्थायी बनती जा रही सूखे की समस्या के मद्देनज़र रहा हो। बहरहाल देश में पानी की सनसनीखेज कमी पर चिंता जताती यह रिपोर्ट बाढ़ के अंदेशे के कुछ हफ्ते पहले आई है।

बाढ़ या सूखा, दोनों का कारण एक ही

बाढ़ के दिनों में आमतौर पर बाढ़ से नुकसान की ही चर्चा की जाती है। जबकि बाढ़ के कारणों पर भी नज़र डाली जानी चाहिए। अगर सरसरी तौर भी देखें तो एक ही बड़ा कारण निकलकर आएगा कि बारिश के दिनों में हम आगे की जरूरत के लिए पर्याप्त पानी रोककर नहीं रख पाते। बारिश का ये पानी छोटे बड़े बरसाती नालों के जरिए नदियों को उफनाता हुआ बाढ़ लाता है और बहकर समुद्र में चला जाता है। और कुछ ही दिनों बाद खेती में जरूरत के दिनों में जब पानी की जरूरत पड़ती है तो पानी कम पड़ जाता है। सूखा पड़ने के दिनों में यह याद नहीं किया जाता कि अभी कुछ महीने पहले ही बारिश के दौरान पानी रोक कर नहीं रख पाए थे। यानी बाढ़ और सूखे के लिए एक ही कारण समझ आता है वह है जल संरक्षण की नाकामी। इसीलिए सुझाव यह बनता है कि देश की व्यवस्था की शक्ल बदलने के मकसद से बनाए गए नेशनल इंस्टीटयूट फॉर ट्रांसफोर्म इंडिया यानी नीति आयोग को देश में जल संसाधन की मात्रा का बारीकी से नया अध्ययन भी करवा लेना चाहिए। और सरकार के लिए सुझाव बनाकर देना चाहिए कि जरूरत पड़ने पर किसानों को उनके खेत तक पानी पहुंचाने के लिए प्राथमिकता के आधार पर क्या काम किया जाए।

देश में पानी की कमी का सच

आंकड़ों के मामले में हर सरकार बड़ी चौकन्नी रहती है। ऐसे आंकड़े या तथ्य या सूचना या ज्ञान किसी सरकार को अच्छे नहीं लगते जिससे उस पर जिम्मेदारी आती हो या उस पर कुप्रबंध के आरोप लगते हों। देश में पानी के इंतजाम को लेकर अपनी सरकार तो इस समय खासी मुश्किल में है। कृषि प्रधान देश का मुख्य मुद्दा ही किसानों को मौके पर सिंचाई के लिए पानी देने का है। लिहाज़ा इस समय पानी से जुड़े लगभग सारे सरकारी विभाग पानी के कुप्रबंध को देखने की बजाए देश में पानी की उपलब्धता कम बताने में लगे या लगाए जाते दिख रहे हैं। जबकि सरकारी आंकड़ों से ही सिद्ध हो रहा है कि फिलहाल देश की 135 करोड़ जनता को प्रकृति से मिलने वाला उनके हिस्से का पानी अभी भी भरपूर है।

पानी के आंकड़ों का इतना छुपाव क्यों?

शोध अध्ययनों और सर्वेक्षणों के अभाव के कारण कुछ साल से पानी के विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है। बेशक देश में वर्षा से मिलने वाले पानी की मात्रा सदियों से जहां की तहां है। लेकिन सदियों से लगातार जनसंख्या बढ़ते जाने के कारण प्रति व्यकित जल की उपलब्धता कम होती जा रही है। आजादी के समय जनसंख्या के कारण जहां प्रति व्यक्ति 5000 घनमीटर पानी उपलब्ध था। लेकिन तब से आजतक जनसंख्या तीन गुनी बढ़ने के कारण प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता एक तिहाई यानी लगभग 1400 घनमीटर प्रति वर्ष रह गई है। अंतरराष्टीय मानदंडों के अनुसार प्रति व्यक्ति कम से कम 1700 घनमीटर पानी की जरूरत होती है। इसीलिए जल प्रबंधन के लिए हमारे ऊपर सबसे ज्यादा दबाव है। सिर्फ पानी ही क्या किसी भी मामले में प्रबंधन के लिए सबसे पहली जरूरत आंकड़ों की होती है। लेकिन आजकल सरकारों और योजनाकारों को आंकड़ों से अरुचि होने लगी है।

दशकों से एक से आंकड़े

पानी के मामले में जो कुछ एक दशक पहले पता था वही बार-बार दोहराया जा रहा है। दशकों से आगाह किया जा रहा है कि हमें सतही जल यानी वर्षा के जल का संचयन बढ़ाने की जरूरत है। कुछ साल पहले तक के केंद्रीय जल आयोग और जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़े मौजूद हैं। मसलन छह साल पहले राज्य सभा में एक सवाल के जवाब में जल संसाधन राज्यमंत्री ने कुछ आंकड़े दिए थे। अपने जवाब में उन्होंने देश की जल संचयन क्षमता का आंकड़ा देते हुए बताया था कि देश की जमीन पर गिरे 4000 अरब घनमीटर पानी में सिर्फ 253 अरब घनमीटर पानी को रोकने लायक बांध और दूसरे साधन बन पाए हैं। जबकि देश में किसी भी साल कितनी भी कम बारिश हो लेकिन कम से कम 690 अरब घनमीटर सतही पानी तो हमारे पास उपलब्ध रहता ही है।


क्या है बारिश के पानी का पूरा हिसाब

यह सबको पहले से पता ही है कि भारत में हर साल जितनी बारिश सैकड़ों साल से हो रही है, औसतन उतनी ही आज भी हो रही है। देश की 32 करोड़ हेक्टेअर जमीन पर हर साल औसतन 118 सेंटीमीटर वर्षा होती है। पानी की कुल मात्रा देखें तो बारिश और बर्फ बारी मिलाकर हमें 4000 अरब घनमीटर पानी मिलता है। इस चार हजार अरब घनमीटर पानी में से 2131 अरब घनमीटर पानी में काफी कुछ भाप बनकर उड़ जाता है, काफी इधर-उधर से बहता हुआ नदियों से होता हुआ समुद्र में चला जाता है, और कुछ ज़मीन सोख लेती है। इसीलिए जल विज्ञानी हिसाब लगाते हैं कि सिर्फ 1869 अरब घनमीटर पानी ही हमें नदियों में और भूजल के रूप में उपलब्ध है। लेकिन भारत की टोपोग्राफी या स्थालाकृति के कारण यह 1869 अरब घनमीटर पानी भी पूरा का पूरा हमारी पहुंच में नहीं है।

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तरह-तरह से जोड़ घटाकर पाया गया है कि इस समय हमारी पहुंच सिर्फ 1123 अरब घनमीटर पानी तक ही है। इस 1123 घनमीटर पानी के आंकड़े में भी सतही जल सिर्फ 690 अरब घनमीटर है। बाकी 433 भूजल के रूप में मिलता है। बेशक यह भूजल एक प्रकार से वर्षा का ही पानी है जो रिसकर जमीन में जमा होता है। लेकिन सबसे सनसनीखेज तथ्य यह है कि जमीन में रिसकर जाने की रफ़्तार साल दर साल कम होती जा रही है। ऊपर से भूजल का इस्तेमाल साल दर साल बढ़ता जा रहा है। इसीलिए जगह जगह भूजल का स्तर चिंताजनक गति से नीचे गिरता जा रहा है। उधर वर्ष 2009 में सेंट्रल वाटर कमीशन के जुटाए आंकड़ों से पता चला था कि जो 690 अरब घनमीटर सतही जल इस्तेमाल के लिए उपलब्ध है उसमें से सिर्फ 450 अरब घनमीटर ही इस्तेमाल कर पा रहे हैं। क्योंकि बाधों की जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 ही बना पाए हैं।

इसका मतलब है कि 690 अरब घनमीटर पानी आसानी से हमारी पहुंच में होते हुए भी उसमें से 240 अरब घनमीटर पानी हम गर्मियों के लिए रोककर नहीं रख पा रहे हैं। यह सहज उपलब्ध पानी भी हमारी नज़रों के सामने से ही बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस जा रहा है। इधर हम यह रोना रो रहे हैं कि देश में पानी की कमी है।

तो दिक्कत कहां है?

दिक्कत है देश में सहज और विपुल उपलब्ध बारिश के पानी को रोककर रखने की। बेशक बूंद-बूंद पानी बचाने के नारे पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए लेकिन बारिश के महीनों में 240 अरब घनमीटर पानी जो नदियों को उफनाता हुआ, बाढ़ की तबाही मचाता हुआ हर साल बहे चला जा रहा है उसे रोक कर रखने के काम पर लगना चाहिए। ऐसा भी नहीं है आजादी के बाद सत्तर साल में हमने इस बारे में सोचा या किया न हो। देश में आज 3500 छोटे बड़े बांध और जलाशय हमारी उस सोच से ही बने हैं। लेकिन अभी इन बांधों की जल संचयन क्षमता उपलब्ध वर्षा जल की तुलना में आधी ही है। एक और दिक्कत यह है कि निकट भूतकाल में हम बांधों की अवधारणा का इतना विरोध कर आए हैं कि अब जल संचयन के लिए बांध बनाने की बात किस मुंह से करें। आज तो यह बात भी निकलकर आने लगी है कि देश की बाढ़ प्रवण नदियों पर बने बांध ही नदियों को सदा नीरा बनाए रखने में भूमिका निभा रहे हैं।

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इन बांधों से निकली कच्ची नहरें खेत तक पानी पहुचाने के अलावा भूजल को कुछ न कुछ रिचार्ज कर रही हैं। बांधों और नहरों की यह व्यवस्था ही इस समय जरूरत के मुताबिक अनाज उत्पादन में सबसे बड़ी भूमिका निभा रही है। लेकिन परेशानी यह है कि अनाज की भावी चिंता को मिटाने के लिए खेतों को और पानी चाहिए। अगर भविष्य में पानी की मांग की मात्रा का हिसाब लगाएं तो आज की व्यवस्था से लगभग दो गुना। और इतना पानी हमें प्रकृति से आज उपलब्ध है। जरूरत उस व्यवस्था को बढ़ाने की है जिसे बांधों और नहरों की व्यवस्था कहते हैं।

नीति आयोग की सनसनीखेज रिपोर्ट के मायने

एक बार फिर दोहराने की जरूरत है कि मानसून के बाद सर्दियों और गर्मियों में जब पानी की जरूरत पड़ती है तो जलाशयों में जमा पानी कम पड़ जाता है। उन दिनों हमें भूजल का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। साल दर साल भूजल पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही है। लेकिन आज यह निर्भरता इतनी बढ़ गई है कि नीति आयोग को हाल ही में जारी रिपोर्ट में इसका जिक्र सनसनीखेज ढंग से करना पड़ा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले दिनों में कुछ क्षेत्रों के पास भूजल बचेगा ही नहीं। बजरिए नीति आयोग इस हालत के जिक्र का मकसद क्या यही नहीं है कि हमें फौरन ही भूजल के पुनर्भरण के उपाय करने चाहिए। वैसे तसल्ली से सोचने बैठेंगे तो यह भी पता चलेगा कि भूजल के साथ साथ हमें सतही जल को रोककर रखने की उससे ज्यादा जरूरत है।


तत्काल क्या कर सकती हैं सरकारें?

भूजल के पुनर्भरण के लिए सतही जल को बांधों और तालाबों में रोककर रखने के अलावा और क्या उपाय हो सकता है। जल विज्ञानी तो कई साल पहले ही ऐसे खास तालाबों की डिजाइन तैयार कर चुके हैं। जल विज्ञान की भाषा में इन्हें परकोलेशन टैंक कहते हैं। इन सोख्ता तालाबों को इस हिसाब से बनाया जाता है ताकि उनमें भरे पानी को जल्दी से जल्दी जमीन सोख ले और भूजल का स्तर बढ़ जाए।

दो हजार साल पहले से लेकर अब तक जितनी भी जल सरंचनाएं हमने बनाकर रखी हैं उनकी गाद मिट्टी फौरन निकालने की जरूरत है। बांधों और तालाबों में भरी गाद मिट्टी ने उनकी जल संभरण क्षमता को कम कर दिया है। साथ ही तलहटी में जमा गाद के कारण उनका पानी जमीन सोख भी नहीं पा रही है।

शहरीकरण और स्मार्टसिटी की बातों वाले इस दौर में कम से कम नगर नियोजन तो जल प्रबंधन के लिहाज़ से होना ही चाहिए। साल दर साल नगरों महानगरों में बारिश के दिनों में जल भराव और कहीं कहीं बाढ़ आने लगी है। शहरी इलाकों में ही जल संरचनाएं बनाने की बात आज नहीं तो कल सोचनी ही पड़ेगी।

मौजूदा जल निकायों के कैचमेंट एरिया का ट्रीटमेंट वक़्त की एक बहुत बड़ी मांग है। देश भर से ये रिपोर्ट आनी शुरू हो गई हैं कि कुछ बांघों के जल ग्रहण क्षेत्र में पर्याप्त बारिश के बाबजूद उन बांधों में पानी नहीं भर पा रहा है। अवैध निर्माणों और अविचारित विकास कार्यो से उनके जल ग्रहण क्षेत्र के ढलान ही बदल गए हैं। जो पानी दशकों पुराने बांधों और सदियों पुराने तालाबों में जमा हुआ करता था वह कैचमेंट एरिया में बिगड़ाव के कारण किसी और रास्ते से नदियों में जा रहा है और बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाने लगा है। आज अगर ईमानदारी से सर्वेक्षण हो तो यह सनसनीखेज तथ्य भी निकल कर आ सकता है कि देश के बांधों में जल संभरण क्षमता 253 अरब धनमीटर से भी कम हो गई है।

बढती आबादी के कारण पानी की बढती मांग और बाढ़ से बचाव के लिए बांधों के निर्माण के आलावा और कोई समाधान शायद ही कोई सुझा सके। सरकार की नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना भी असल में बांध निर्माण पर ही निर्भर है। भले ही बड़े बांधों की उपयोगिता का जिक्र हमारी सरकार न कर पा रही हो लेकिन यह बुद्धिमत्तापूर्ण बात है कि नदियों को आपस में जोड़ने के नाम पर बांधों की श्रंखला बनाने की योजनाएं बन रही हैं। हालांकि ये योजनाएं हैं बड़ी खर्चीली। इसीलिए शक होता है कि नदी जोड़ो अभियान को हम जल्दी शुरू कर पाएं। लेकिन बढ़ती आबादी के कारण निकट भविष्य में जिस तरह का संकट आसन्न है उसे देखते हुए इसके अलावा कोई चारा है नहीं।

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)

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