घाटे का सौदा साबित हो रही केले की खेती

Deepanshu MishraDeepanshu Mishra   20 Feb 2017 10:18 AM GMT

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घाटे का सौदा साबित हो रही केले की खेतीलागत न निकल पाने के कारण किसानों का मोह केले की खेती से दूर होता जा रहा है

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

बाराबंकी। साढ़े पांच एकड़ खेत में केले की खेती कर रहे बाराबंकी के किसान श्याम सुन्दर यादव ने केले की खेती सिर्फ इसलिए खेती छोड़ दी क्योंकि लागत नहीं निकल रही पा रही थी।

बाराबंकी जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित सिपहियापुर गाँव में अपने साढ़े पांच एकड़ के खेत के बारे में बताते है कि पहले केले की खेती करते थे, लेकिन लागत का सही दाम नहीं मिल पा रहा था इस वजह से केले की खेती छोड़ दी और अन्य फसलों की खेती करने लगा।
श्याम सुन्दर यादव

कई ऐसे और किसान हैं जो लागत न मिल पाने से केले की खेती से मुंह मोड़ रहे हैं। केले की खेती की शुरुआत बड़ी उम्मीदों के साथ मैंने की थी। सोचा था कि आगे भी करता रहूंगा लेकिन केले ने एक बार में ही ऐसा झटका दिया कि अब दोबार खेती करने की हिम्मत नहीं है।
श्याम सुन्दर यादव

मैंने साढ़े पांच एकड़ में केले की खेती शुरू की और उसमें अच्छी लागत भी लगाई लेकिन जब बाजार केला लेकर पहुंचा तो लोग चार-पांच रुपए में केला खरीद रहे थे, जितने लेकर गया था उतना तो बेचा दिया लेकिन जो खेत में फसल लगी थी वो आस-पास के गाँव में बंटवा दी। हमें लाभ नहीं मिला कम से कम मिला गाँव के लोग तो इसका लाभ उठा लें। सरकार को चाहिए जब केला खरीद नहीं सकते तो केले का कुछ बनाकर ही बाहर ही भिजवाएं।
श्याम सुन्दर यादव

लागत जितना भी नहीं मिलता था मुनाफा

श्याम सुन्दर यादव बताते हैं, “केले की खेती में मैं जितनी लागत लगाता था उतनी भी नहीं मिल पाती थी। केले में पहले खेत को जुतवाना उसके बाद जहां केले का पेड़ लगाना होता है वहां गड्ढा करके गोबर डालना उसके कुछ दिन बाद केले का पेड़ लगाना। समय-समय पर खेत की गुड़ाई करवाना। इस सब चीजों में मैंने काफी पैसा खर्च किया लेकिन मिला कुछ नहीं।”

शुरू कर दी सब्जियों की खेती

केले की फसल में मुनाफा ना मिल पाने के बाद श्याम सुन्दर यादव ने कई प्रकार की सब्जियों की खेती शुरू कर दी जिससे उन्हें केले की खेती की अपेक्षा अधिक लाभ है। श्याम सुन्दर ने बताया, “केले की फसल से मुझे सब्जियों में अच्छा मुनाफा तो मिल रहा है। जो लागत लगाता हूं उससे ज्यादा कमा लेता हूं।”

This article has been made possible because of financial support from Independent and Public-Spirited Media Foundation (www.ipsmf.org).

    

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