गाँव का सामुदायिक पुस्तकालय, जो बच्चों के साथ बड़ों की भी सबसे पसंदीदा जगह है

उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के बांसा गाँव के ज़्यादातर लोगों का समय आजकल यहाँ के सामुदायिक पुस्तकालय में बीतता है, आखिर यहाँ पर हर एक उम्र के लोगों के पसंद की किताबें जो हैं।

Aishwarya TripathiAishwarya Tripathi   9 Aug 2023 5:11 AM GMT

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गाँव का सामुदायिक पुस्तकालय, जो बच्चों के साथ बड़ों की भी सबसे पसंदीदा जगह है

13 साल की माया देवी बड़े होकर पुलिस बनना चाहती हैं, ताकि वो गाँव में मौजूद बुराइयों को खत्म कर सकें। तभी तो आजकल उनका भी काफी समय लाइब्रेरी में बीतता है।

उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के बांसा गाँव में पारंपरिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदाय, अनुसूचित जाति की माया भी अपने गाँव में जातिवादी टिप्पणियों से अछूती नहीं थी।

"बहुत से लोग कहते हैं कि मैं चमार हूँ और पढ़ाई के लायक नहीं हूँ, लेकिन शिक्षा हमारा अधिकार है। हर किसी को पढ़ाई करनी चाहिए, ”माया ने कहा। यही नहीं वो दहेज के बारे में कहती हैं, “लेना-देना, दोनों गलत है।"


दिसंबर 2020 में शुरू हुई ये लाइब्रेरी सभी के लिए खुली है - उम्र, लिंग, जाति और वर्ग पर कोई रोक नहीं है। पुस्तकालय गाँव के परिसर में स्थित है और इसमें जिले के पड़ोसी गाँवों के 1,700 पंजीकृत सदस्य हैं, जिनमें वयस्क और बच्चे दोनों शामिल हैं, जो हर महीने 200 से 300 किताबें जारी करते हैं।

एक युवा, जतिन ललित सिंह ने अपने बांसा गाँव में एक ऐसी जगह की कल्पना की, जहां लोग आनंद के लिए पढ़ सकें। और इस तरह सामुदायिक पुस्तकालय की शुरुआत हुई, जिसने गाँव के लोगों में कानून, अधिकारों और ग्रामीण योजनाओं के प्रति जागरूकता जगाई।

25 वर्षीय जतिन ललित सिंह ने अपने गाँव में एक सामुदायिक पुस्तकालय शुरू करने का विचार नई दिल्ली में द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट (टीसीएलपी) से लिया, जहाँ उन्होंने 2016 में बीए एलएलबी की पढ़ाई के दौरान वीकेंड में स्वेच्छा से काम किया। टीसीएलपी ने दिल्ली और गुरुग्राम में तीन पुस्तकालय स्थापित किए हैं, जो सप्ताह के सातों दिन 6,000 से अधिक बच्चों और वयस्कों की सदस्यता प्रदान करते हैं।


टीसीएलपी के साथ स्वेच्छा से काम करते हुए, जतिन ने समय के साथ दिल्ली में पुस्तकालय में आने वाले प्रवासी मजदूरों के बच्चों के व्यक्तित्व में बदलाव देखा। गाँव कनेक्शन से बात करते हुए उन्होंने उदाहरण के तौर पर टीसीएलपी के एक बच्चे दक्ष को याद किया।

“वह एक मजदूर का बच्चा था और जब उसने टीसीएलपी में आना शुरू किया था तो वह हमेशा डरपोक रहता था लेकिन मैंने देखा कि पुस्तकालय में दो साल की नियमित यात्रा के बाद उसका आत्मविश्वास कैसे बढ़ गया। वह पुस्तकालय में अन्य लोगों के साथ बातचीत करने लगा था, ”जतिन ने याद किया।

उन्होंने कहा, "मैं केवल कल्पना कर सकता हूँ कि यह बांसा में कितना प्रभाव डाल सकता है, जहाँ अधिकांश बच्चे दक्ष के समान आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से हैं।"

बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी के संस्थापक ने गाँव कनेक्शन को बताया, "लाइब्रेरी मेरे लिए एक समान अवसर है।"

“जब मैं बड़ा हो रहा था, पढ़ने का मतलब हमेशा गणित और विज्ञान जैसी पाठ्यक्रम की किताबें होती थी, लेकिन हमें कभी भी आनंद के लिए पढ़ना नहीं सिखाया गया। मैं इसे अपने गाँव को देना चाहता था, ''जतिन सिंह ने कहा।


आठ साल की शशि शर्मा, जो पांचवीं कक्षा में पढ़ती है और नियमित रूप से बांसा पुस्तकालय जाती है, उन्होंने अपनी ज़िंदगी में पहले कभी इतनी किताबें नहीं देखी थीं। एक ऐसी दुनिया ढूंढना जहाँ उन्हें हर दिन नई कहानियों से परिचित कराया जाए।

“मैं हर दिन आती हूँ और घर वापस ले जाने और पढ़ने के लिए हफ्ते में कम से कम दो किताबें ले जाती हूँ। मजा आता है, ''उसने कहा।

आठ साल की उम्र में, शशि अपनी दो छोटी बहनों - सपना और अंजलि - को कहानियाँ सुनाती हैं। आजकल उनकी पसंदीदा कहानी आम वाली चिड़िया है।

जतिन ने कहा, "समुदाय को पुस्तकालय की स्थापना से समस्या थी क्योंकि इसमें सभी लिंगों और जातियों को एक ही कमरे में बैठने, किताबें साझा करने और बातचीत करने की इजाजत थी।"


उन्होंने कहा, "उन्हें चिंता थी कि किशोर लड़कियों और लड़कों का एक साथ समय बिताना एक समस्या हो सकती है।"

लेकिन समय के साथ ये मुद्दे शांत हो गए हैं। उन्होंने कहा, "कभी-कभी, अभी भी कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जिसे इससे कोई समस्या हो लेकिन चीजें धीरे-धीरे बदलती हैं।"

जब सिंह ने शुरुआत की थी, तो उनके दिमाग में दो उद्देश्य थे ,एक - पढ़ने का माहौल बनाना और इसे लंबे समय तक बनाए रखना और दूसरा अपने गाँव में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों की मदद करने, जिन्हें बाहर पलायन करना पड़ा था। इसके लिए लखनऊ और प्रयागराज जैसे शहरों में भी जाना होता है।

उनकी कल्पना में सबसे चुनौतीपूर्ण काम एक पुस्तकालय के लिए गुणवत्तापूर्ण बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए पैसे इकट्ठा करना था।सिंह ने हंसते हुए कहा, "लेकिन समय के साथ मुझे एहसास हुआ कि यह सबसे आसान काम था।"


लाइब्रेरी की स्थापना सोशल मीडिया और क्राउडफंडिंग से की गई थी। इसमें दो लाइब्रेरियन हैं। यह सप्ताह के सातों दिन खुला रहता है।

शिवांगी शर्मा ने इस जून में अपनी बी.एड की परीक्षा दी है और प्रतियोगी परीक्षा के अभ्यास पत्रों तक पहुंचने के लिए पुस्तकालय की मदद ली। यदि यह बांसा सामुदायिक पुस्तकालय के लिए नहीं होता, तो शिवांगी को इनके लिए कानपुर या लखनऊ तक जाना पड़ता।

दोनों लाइब्रेरियन ने 11 छात्रों - सात लड़कियों और चार लड़कों की पहचान की है जो नियमित रूप से पुस्तकालय आते हैं और एक छात्र नेतृत्व परिषद का गठन किया है। यह परिषद प्रशासनिक सहायता जैसे किताबें छांटने और छोटे बच्चों को किताबें पढ़ने में मदद करने के लिए हर दिन अपना 15 मिनट का समय समर्पित करती है।

प्रत्येक व्यक्ति जो पुस्तकालय के कामकाज का हिस्सा है, ग्रामीण समुदाय से संबंधित है।

सिंह ने कहा, "समुदाय के लिए इसका प्रबंधन करना महत्वपूर्ण है क्योंकि कोई बाहरी व्यक्ति वास्तव में इस बात से संबंधित नहीं हो सकता कि कुछ चीजें क्यों होती हैं और उनसे कैसे निपटा जाए।"

उन्होंने एक उदाहरण के साथ जारी रखा। "अगर मैं जाकर देखता हूँ कि एक विशेष समय अवधि में बहुत कम बच्चे पुस्तकालय में आए हैं, तो मुझे ऐसा लग सकता है कि बच्चों को पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन समुदाय का एक लाइब्रेरियन समझता है कि यह बात है धान रोपाई का समय है इसलिए कई बच्चे इसमें व्यस्त हो सकते हैं।”

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