'मेरी लाइब्रेरी के नाम का विरोध गाँव में ही नहीं मेरे घर में भी हुआ था'

गाँव की इस लाइब्रेरी में मशहूर लेखक और कवियों के साथ ही नए लेखकों की किताबें मिल जाएँगी, तभी तो गर्मी की छुट्टी हो या बरसात या फिर दिसंबर-जनवरी की कड़ाके वाली ठंड, बच्चे स्कूल के बाद यहाँ ज़रूर आते हैं।

Manvendra SinghManvendra Singh   28 Dec 2023 11:02 AM GMT

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मेरी लाइब्रेरी के नाम का विरोध गाँव में ही नहीं मेरे घर में भी हुआ था

तीन जनवरी, 2018 को उच्च प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका ममता सिंह ने अमेठी जिले में अपने घर में ही सावित्रीबाई फुले के नाम पर लाइब्रेरी शुरु की। 

12 साल की मुस्कान बानो स्कूल से आने के बाद अपने घर से डेढ़ किमी दूर खेत के मेड़ और पगडंडियाँ होते हुए साइकिल से लाइब्रेरी के लिए निकल पड़ती हैं; फिर दो-तीन घंटों तक वहीं पर पढ़ती हैं।

इस लाइब्रेरी में मुस्कान ही नहीं आसपास के कई गाँवों के बच्चे हर दिन पहुँचते हैं और ख़ुद के स्कूल की किताबों के साथ ही कविता और कहानियाँ पढ़ते हैं। सातवीं में पढ़ने वाली मुस्कान बानो गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "मुझे अपनी किताबों के साथ ही ग़जल पढ़ना पसंद है। आजकल तो मैं ग़ज़ल की किताब हर्फ़-ए-आवारा पढ़ रही हूँ।"

जिस लाइब्रेरी में मुस्कान पढ़ने जाती हैं, ये है उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले के अग्रेसर गाँव का सावित्री बाई फुले पुस्तकालय, जिसकी शुरुआत की है उच्च प्राथमिक विद्यालय, नरायनपुर, अमेठी की प्रधानाध्यापिका ममता सिंह ने। तीन जनवरी, 2018 को जब उन्होंने इसकी शुरुआत की तो इन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ा।


30 जनवरी 2018 को गाँव में अपनी लाइब्रेरी के उद्घाटन को याद करते हुए ममता सिंह कहती हैं कि कैसे लाइब्रेरी के नाम को लेकर उन्हें लोगों के ऐतराज़ का सामना करना पड़ा। क्योंकि ममता ने अपनी लाइब्रेरी का नाम महान समाज सेविका और भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फूले के नाम पर रखा था। जबकि गाँव वालों और ममता के परिवार के लोगों का मानना था कि लाइब्रेरी का नाम वो अपनी माँ के ऊपर रखें या फिर कोई और नाम रख लें लेकिन ये नहीं।

ममता सिंह उस दिन को याद करते हुए गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "पहले तो गाँव में बाते होने लगीं कि सावित्रीबाई के नाम पर लाइब्रेरी क्यों, अपनी माँ के नाम पर रखो। मैं भी थोड़ी सी ज़िद्दी हूँ तो किसी की बिना सुने तीन जनवरी 2018 को बहुत अच्छे से लाइब्रेरी का उद्घाटन हुआ बहुत दूर दूर से लोग आए।" उच्च प्राथमिक विद्यालय, नरायनपुर, अमेठी की प्रधानाध्यापिका ममता सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया।

लेकिन ऐसी क्या वजह थी, जो विरोध की वजह बनी थी के सवाल पर ममता सिंह कहती हैं, "अगर आप उत्तर प्रदेश को जानते हैं तो यहाँ की जाति व्यवस्था को भी जानते होंगे; यहाँ पर कॉलेज और स्कूल के नाम भी अपने माता और पिता के नाम पर रखते हैं; महिलाएँ, दलित, और मुस्लिम यहाँ एक ही सफ़ें में खड़े हैं कोई माने या न माने, तो सावित्रीबाई फुले के साथ तो दो चीज़े थी एक तो वो दलित और दूसरी महिला, उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के ऊपर काम किया।"


उन्होंने किसी की न सुनी और गाँव में शुरु की पहली लाइब्रेरी, सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय, जहाँ बच्चों से लेकर बड़े, महिलाओं से लेकर बुज़ुर्ग भी पढ़ने आते है। ममता की ये अनोखी लाइब्रेरी सुबह से देर रात तक खुली रहती है, कोई कभी भी आकर वहाँ पढ़ सकता है या फिर लाइब्रेरी से किताबें लेकर अपने घर पर भी किताब पढ़ सकता है।

ममता गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "मेरे गाँव के एक चाचा हैं वो 70 साल से अधिक के हैं और हम लोग कभी नहीं जानते थे कि चाचा इतने भयंकर पढ़ाकू हैं; और 16 किलोमीटर दूर से एक बच्चा आता है, एक बार में बीस से तीस किताबें ले जाता है फिर वो दो-तीन महीने बाद आता है, मेरे यहाँ सात साल का सबसे छोटा पाठक है; हम लोग वाईफाई की सुविधा तो गाँव में नहीं दे सकते, लेकिन काफी बच्चे आते हैं, जो दिन भर बैठ कर पढ़ते हैं और ये सब बिलकुल मुफ़्त है और 24 घंटे लाइब्रेरी खुली रहती है।"

आपके मन में भी ये सवाल ज़रूर आया होगा कि एक सरकारी स्कूल की प्रधानाध्यापिका को गाँव में लाइब्रेरी खोलने की क्या ज़रुरत थी, इतनी किताबों का संकलन करना फिर लाइब्रेरी की देखरेख उसका संचालन करना वो भी ऐसी लाइब्रेरी जोकि 24 घंटे खुली रहती है और साथ ही सब कुछ मुफ़्त। लेकिन इस कामयाब कोशिश के पीछे ममता सिंह के पास एक बहुत बड़ी वजह थी और वो थी उनके संघर्ष की यादें।


ममता सिंह को बचपन से ही पढ़ाई का बहुत शौक़ था और उनके घर पर पढ़ाई और पढ़ने का माहौल था। उनकी माँ और पिताजी दोनों अध्यापक थे। वो बीते दिनों को याद करतें हुए बताती हैं, "बहुत छोटे से मेरा सपना था, मेरे घर में किताबें हमेशा आती रही, मेरी माँ और मेरी चाची किताबों की बहुत शौक़ीन थी और हम लोग खूब कॉमिक्स और बच्चों की मैगज़ीन जो उस समय की थी महीने में आठ नौ मैगज़ीन हम लोग पढ़ते थे; चंपक, बालहंस, चंदामामा, लोटपोट तो पढ़ने की आदत थी, मुझे बड़ा शौक था कि मेरे पास एक ऐसा कमरा हो जो ऊपर से नीचे तक किताबों से भरा हो, लेकिन ये नहीं पता था की वो लाइब्रेरी भी हो सकती है।"

घर पर पढ़ने का इतना अच्छा माहौल और प्रगतिशील सोच के परिवार में जन्मी ममता के मन में आज भी एक सवाल है जो वो अपने पिता से पूछना चाहती हैं कि आखिर उन्होंने उन्हें पढ़ने क्यों नहीं दिया। ममता उस वक़्त को याद करते हुए कहती हैं, "मेरे पापा बाकी चीज़ों में बहुत अच्छे थे हर चीज़ में बहुत साथ देते थे; लेकिन मुझे आज तक ये समझ नहीं की वो इतने दूरदर्शी थे कि उस ज़माने में माँ को नौकरी कराई और उस ज़माने में वो चाची और माँ के लिए मैगज़ीन लाया करते थे। उन्होंने लड़कियों को सिलाई कढ़ाई बुनाई नहीं सीखने दिया कि कौन सिला हुआ कपड़ा पहनता है आज कल, लेकिन उन्होंने मुझे क्यों नहीं पढ़ाया, ये सवाल आज भी मेरे मन में है ,अब तो मेरे पिता जी हैं नहीं ; माता जी भी जीवित नहीं हैं।"

लेकिन ममता सिंह के भाइयों ने उनका पूरा साथ दिया, वो कहती हैं, "मेरे दोनों भाइयों ने मुझे बहुत सपोर्ट किया; मुझे प्राइवेट फॉर्म भरवाते रहे, ग्रेजुएशन भी प्राइवेट ही किया है पोस्ट ग्रेजुएशन किया, मैंने नेट क्वालीफाई किया यूपीएसएसी प्री जैसे कॉम्पिटिटिव एग्जाम निकाले वो सब सिर्फ भाइयों की बदौलत।"


शादी के तुरंत बाद ही भाई के कहने पर ममता ने बीटीसी का एग्जाम दिया और उनका चयन भी हो गया और साल 2002 में उन्होंने अपने टीचिंग करियर की शुरुआत की। हालाँकि उन्होने कभी नहीं सोचा था की वो एक टीचर बनेंगी। उन दिनों को याद करते हुए ममता बताती हैं, "अगर सच बताऊँ तो पढ़ाना है, ऐसा कोई मेरा प्लान नहीं था; मेरे भाई को शौक था की बहन पढ़ ले, तो ग्रेजुएशन करतें ही शादी हो गयी और भाई ने बीटीसी का फॉर्म भरवाया, क्योंकि ये सब नौकरी अच्छी मानी जाती है लड़कियों के लिए बजाए डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के , क्योंकि उसमे बड़ा खर्चा लगता है और आईएएस-पीसीएस बनने के लिए समय बहुत लगता है।"

पढ़ाई और किताबों का क्या महत्व होता है ये शायद ममता सिंह ने बहुत करीब से जाना था। यही वजह है की आज उनकी लाइब्रेरी की अनोखी पहल से उनका गाँव ज़रा अलग है। अब यहाँ के लोगो का शौक़ बन गया है लाइब्रेरी जाना और अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ना। ममता ने बड़े गर्व के साथ गाँव कनेक्शन को बताया, "मेरे यहाँ लोग अपडेट रहते हैं , क्योंकि वो जब उस किताब को हाथ में लेते हैं जिस किताब के चर्चें अख़बार में हो, न्यूज़ में हो, वो मेरे यहाँ लोग गाँव में पढ़ रहे होते हैं।"

उच्च प्राथमिक विद्यालय, नरायनपुर में 6वीं कक्षा में पढ़ने वाली एकता यादव आईएएस बनना चाहती हैं। कहीं जाएँ या न जाएँ लाइब्रेरी आना नहीं भूलती हैं। एकता कहती हैं, "मुझे कहानी और कविताएँ पसंद हैं, आजकल तो मैं तोत्तो चान पढ़ रही हूँ; स्कूल से आने के बाद मम्मी-पापा कहते हैं कि आज लाइब्रेरी नहीं जाना है ? "

ममता का लाइब्रेरी से इतना ज़्यादा लगाव है कि वो भले तीर्थ यात्रा न जाए, पूजा पाठ करना भूल जाए लेकिन कहीं किताबें मिल रही हो तो ये तय होता है वे वहाँ ज़रूर जाएँगी, ताकि वो अपनी लाइब्रेरी और बच्चों के लिए किताबे ला पाएँ। इस काम में उनके दोस्त भी उनकी काफी सहायता करते हैं और लाइब्रेरी के लिए किताबें भेजते रहते हैं। अब तो गाँव में आने वाले डाकियाँ को भी पता है कि अगर पार्सल ज़्यादा भारी है, तो उसके अंदर निश्चित ही किताबें होंगी और पार्सल का पता है सावित्रीबाई फूले लाइब्रेरी।

TeacherConnection #Savitribai Phule The Changemakers Project 

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