टीचर्स डायरी: एक तमिलियन संपादक का प्यार से अपनी हिंदी टीचर को याद करना
पचास साल पहले मेरी हिंदी शिक्षिका ने मुझे जो कुछ भी सिखाया था, उसमें से ज्यादातर को तो मैं अपने जीवन के सफर में भूल गई। लेकिन सालों पहले शशि गोयला का बड़े प्यार से यह कहना कि मैं भाषा पर अधिक ध्यान दूं, मुझे आज भी फायदा पहुंचा रहा है।
Pankaja Srinivasan 12 April 2023 12:46 PM GMT
शशि गोयला कुछ ही महीनों में 85 साल की हो जाएंगी। वह 1975 से लेकर 1977 तक कलकत्ता में मेरी हिंदी शिक्षिका रहीं थीं।
खासतौर पर, पिछले ढाई सालों में एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब मैंने उन्हें गहरी कृतज्ञता के साथ याद न किया हो। इसलिए नहीं कि मैं उनका पसंदीदा छात्रा थी या फिर वह मेरी पसंदीदा शिक्षिका थीं, बल्कि इसलिए कि सालों पहले उन्होंने मुझे जो हिंदी सिखाई थी, वह ग्रामीण मीडिया प्लेटफॉर्म ‘गाँव कनेक्शन’ के वरिष्ठ संपादक के रूप में मेरी आजीविका का स्रोत बन गई।
मैं स्कूल में एक अच्छी छात्रा नहीं थी। हिंदी इतनी कम आती थी कि मुझे इस विषय से ही नफरत होने लगी। स्त्रीलिंग-पुलिंग ने तो मुझे खासा परेशान किया हुआ था। संधि पढ़ने बैठती तो रात को बुरे सपने आने लगते।
मैंने क्लास में श्रीमती गोयला को कितनी बार नाराज किया होगा। मैं उनसे तेज आवाज में पूछती थी, "हम पुलिसवाले के लिए ‘था’ का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन उसकी मूछों के लिए ‘थीं’- ऐसा क्यों।" मेरे लिए इसका कोई मतलब नहीं था। मेरे पास हिंदी बोलने, पढ़ने या लिखने का कोई सहज तरीका नहीं था क्योंकि मैं एक मद्रसान यानी एक दक्षिण भारतीय थी!
इसलिए जब यह साफ हो गया कि हममें से कुछ ऐसे हैं जो कड़ी मेहनत किए बिना कभी आईसीएसई पास नहीं कर पाएंगे, तो काफी तकलीफ हुई। उस समय हमारी टीचर गोयला ने मामले को अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने हम सभी के दर्द को अनदेखा करते हुए घोषणा कर दी कि वह हमें 'अतिरिक्त' कोचिंग देने जा रही हैं।
70 का दशक तब था जब स्कूल में मनमानी नहीं चलती थी। आज की तरह नहीं कि अगर मन किया तो आएंगे, नहीं तो छुट्टी लेकर बैठ गए। अगर टीचर गोयला ने कहा है कि ‘स्पेशल क्लासेस’ होंगी, तो हमें उनके लिए खुशी-खुशी आना ही पड़ेगा। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था।
उन्होंने मुझे सामने वाली बेंच पर बिठाया। मैं बातूनी थी, शायद पूरी क्लास को परेशान करने वाली और पढ़ने में कतई अच्छी नहीं थी। धीरे-धीरे और धैर्य के साथ उन्होंने मेरे मन में अपने लिए एक जगह बना ली थी। मैं शांत हो गई और वास्तव में वह जो सिखाती थी, उसे पढ़ने में मुझे मजा आने लगा था। वह निश्चित रूप से सिलेबस को समय पर पूरा कर लेतीं, लेकिन ये एक्स्ट्रा क्लासेस हमें हिंदी में सहज बनाने के लिए थीं। उन्होंने ही मुझे मुंशी प्रेमचंद की कहानियों से परिचित कराया था - परदा, दो बैलों की कथा, गबन, गोदान, पूस की रात....
उन्होंने मुझे ‘लोट पोट’ की सदस्यता लेने के लिए कहा। इसमें खासतौर पर बच्चों के लिए पहेलियां, कॉमिक स्ट्रिप्स, कहानियां आदि होती थीं। उन्होंने मुझसे कहा था, "बेटा, जितना हिंदी पढ़ोगे उतना आसान लगेगा तुम्हे।"
उन्होंने कभी ऊंची आवाज में बात नहीं की। अगर मैं कोई बात नहीं समझ पाई तो उसे कई बार समझाया। वह अपनी मुस्कान के साथ हमेशा तैयार रहती थीं। फिर मैं उनकी बातों को ध्यान से सुनने लगी। मेरे पिताजी ने धर्मयुग जैसी कुछ हिंदी पत्रिकाओं की सदस्यता भी ली थी!
गोयला कलकत्ता के बाहरी इलाके बजबज से लेकर किद्दरपुर तक हर रोज एक लंबा सफर तय करके हमारे स्कूल तक आती थीं। मांड लगी कोटा साड़ी में लिपटी, करीने से बंधे बालों वाली गोयला एकमात्र ऐसी टीचर थीं, जो मुझे कक्षा में आगे बढ़ते हुए देखकर वास्तव में खुश होती थीं!
लेकिन मैं वह सब भूल गई थी... क्योंकि जिस समय मैंने हिंदी विषय का साथ छोड़ा था, मैंने उस भाषा में पढ़ना या लिखना भी बंद कर दिया।यह मेरे स्नातक होने के बाद हुआ।
लेकिन जब मैं श्रीमती गोयला से इस साल जनवरी में हमारे स्कूल के रीयूनियन समारोह में मिली, तो यादें वापस लौट आईं। इतने सालों में उन्होंने एक अच्छा जीवन जिया था। वह आज भी वैसी ही दिख रही थीं। हम लोगों की एक टोली ने उन्हें घेर लिया। उनके पास हम में से हर एक के लिए एक शब्द था। हमें काफी हैरानी हुई कि उन्हें हम सभी का नाम कैसे याद है। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं एक ग्रामीण मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए हिंदी रिपोर्ट्स का अंग्रेजी में अनुवाद कर रही हूं तो वह बहुत खुश नजर आईं। उन्होंने कहा, “मुझे पता था बेटा पंकजा …, तुम कुछ करके दिखाओगी।”
गोयला ने महामारी तक पढ़ाना नहीं छोड़ा था। लेकिन फिर उन्हें रुकना पड़ा। इस बीच उन्होंने अपने पति को भी खो दिया। फिर भी, जब मैंने उससे पूछा कि वह कैसी हैं, तो उन्होंने कहा, “जिंदगी अच्छी है। कोई शिकायत नहीं है।”
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