वैज्ञानिकों के लिए चुनौती हैं खरगोन की ‘रूहानी’ आत्महत्याएं

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वैज्ञानिकों के लिए चुनौती हैं खरगोन की ‘रूहानी’ आत्महत्याएंgaonconnection, वैज्ञानिकों के लिए चुनौती हैं खरगोन की ‘रूहानी’ आत्महत्याएं

मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के 3000 आबादी वाले एक आदिवासी गाँव में एक आत्महत्या रोज होती है और पिछले 120 दिन में 110 खुदकुशी के मामले सामने आ चुके हैं। इसका कारण कर्जा, बीमारी या पारिवारिक कलह नहीं है बल्कि पुलिस तक मानने लगी है और कैमरा के सामने कह रही है कि रूहानी ताकत जिम्मेदार है। आदमी जंगल जाता है, लौटकर गुम-सुम आता है और खुदकुशी कर लेता है। मामले की पूरी सच्चाई सामने नहीं आई है कि आखिर वह किस कारण से जंगल गया गया था, वहां क्या खाया और किससे मिला। क्या सभी 110 मौतों में कोई समानता है गुम-सुम अवसाद के अलावा। उस जंगल का विस्तृत सर्वेक्षण होना चाहिए था और कम से कम एक दो मृतकों का पोस्टमार्टम भी। यह कोई मामूली घटना नहीं है जिसे रूहानी ताकत कहकर छोड़ दिया जाए और वह भी पुलिस द्वारा। यह घटना भारतीय अंधविश्वास का वैसा ही ज्वलंत उदाहरण है जैसे पतीली का एक चावल। 

हमारी समस्या यह है कि हम हर बात पर बिना तर्क विश्वास कर लेते हैं। किसी ने कहा हवा में रस्सी उछाल दिया और उसके सहारे चढ़ते चले गए, हवा में हाथ फैलाया और छप्पन भोग की थाली आ गई, भभूत का प्रसाद साधू ने दिया और वह सोने का सिक्का बन गया, रास्ते में आदमी मिला उसने हमारे घर के अन्दर गड़ा सोना बता दिया। इन बातों पर आंख मूंद कर विश्वास कर लेना कम से कम उपनिषदों की परम्परा के विपरीत है जहां शिष्य से गुरु पूछता है कि यह छोटा फल किस पेड़ का है? शिष्य कहता है बरगद का। गुरु फिर पूछता है, ''इसे तोड़ो इसमें क्या है,'’ शिष्य तोड़कर कहता है बहुत छोटे बीज हैं। तो इन बहुत छोटे बीजों से विशालकाय बरगद कैसे बन गया। वह परम्परा तर्क-वितर्क वाली हम भूल चुके हैं और आंख मूंद कर सब मान लेते हैं, इसे ही अंधविश्वास कहते हैं।  

रोजमर्रा की जिन्दगी में यदि किसी ने चलते समय छींक दिया, रास्ते में बिल्ली रास्ता काट गई और वह काली हुई तो वापस लौट जाना ही बेहतर माना जाता है। ऐसी हजारों घटनाएं हैं जिनके कारण हम दुविधा में पड़ जाते हैं और हमारी हिम्मत कमजोर हो जाती है। गाँवों में भाग्यवाद और अंधविश्वास के कारण आत्मविश्वास को लकवा मार गया है। शहरों में भी हालत यह है कि टीवी पर भोर होते ही राशिफल बताने का सिलसिला आरम्भ हो जाता है। हम भविष्यवाणी को कभी आजमाते नहीं। बच्चों के दिमाग में जाने- अनजाने अंधविश्वास के बीज बो दिए जाते हैं।

काफी समय पहले भविष्यवक्ताओं ने बताया प्रलय आएगी और यह संसार नष्ट हो जाएगा, दिन, माह और वर्ष भी बता दिया। रेलगाड़ियों के तमाम डिब्बें खाली चले गए, देश का करोड़ों का नुकसान हुआ और भविष्य बताने वालों से किसी ने यह तक नहीं पूछा कि भविष्यवाणी के नाम पर तुमने अफवाह क्यों फैलाई। ऐसे में समाचार माध्यमों की विशेष जिम्मेदारी बनती है कि ऐसी अफवाहों को भविष्यवाणी कह कर प्रचारित न करें। हमारे देश के कानून में यह प्राविधान होना चाहिए कि यदि बताया गया राशिफल या भविष्यवाणी गलत निकले तो प्रभावित व्यक्ति द्वारा मुकदमा दायर करके नुकसान की भरपाई हो सके।

सड़क किनारे या मेले में तमाम कार्ड लेकर बैठा हुआ तथाकथित ज्योतिषी अपने तोते से भोले-भाले लोगों के भाग्य का कार्ड निकालने को कहता है और लोग उस कार्ड पर लिखे भाग्य पर विश्वास भी करते हैं। कुछ लोग तो मस्तक पर बनी ब्रह्मा की लकीरें पढ़ लेने का दावा करते हैं तो कुछ हाथ की रेखाएं देखकर भाग्य बताने का दम भरते हैं। जन्मकुण्डली देखकर लोग मनुष्य के जीवन भर का भाग्य ही नहीं बल्कि पिछले जन्म का हाल और होने वाली सन्तानों की संख्या तक बताते हैं।

ऐसा नहीं कि भारत की परम्परा हमेशा भाग्यवादी रही है। यहां के विद्वानों ने बहुत पहले स्पष्ट कहा था ‘‘उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथेन, सुप्तस्य सिंहस्य मुखे न प्रविशन्ति मृगाः” अर्थात उद्यम से ही कार्य सिद्ध होते हैं, अभिलाषा करने से नहीं, सोते हुए सिंह के मुंह में हिरन प्रवेश नहीं करते। फिर भी पता नहीं क्यों हम अपने पूर्वजों की बातें अपने बच्चों को नहीं बताते।

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