यह ज्योतिषियों का अहंकार है या ग्रहों की चाल बदल गई
डॉ. शिव बालक मिश्र 24 March 2016 5:30 AM GMT

बच्चे सैकड़ों किलोमीटर दूर से तमाम असुविधा उठाकर हमारे साथ होली मनाने आए थे । घर पहुंचे तो हम उन्हें यह भी नहीं बता सके कि होलिका दहन कब होगा और कब रंग खेला जाएगा । रात में थके थे सो गए और सवेरे उठे तो पता चला कि तीन बजे रात में होली जल गई ।
ऐसा पहले नहीं होता था जब होली की आग घर में लाते थे, महिलाएं घर में ही होलिका के नाम से हवन करती थीं । लाई गई आग को साल भर बचाकर रखते थे । तब माचिस और लाइटर नही थे, इसी आग का सहारा था । तब ज्योतिषियों में अहंकार नहीं था।
बात इसकी नहीं कि हमारे बच्चे और पोते होली नहीं ताप सके या उनकी नाप का धागा हम होली में नहीं डाल सके या होली की प्रदक्षिणा करके गुझिया का हवन कर सके बल्कि मसला यह है कि ऐसा अनिश्चय बार-बार होने लगा है।
मुस्लिम त्योहारों में ज्योतिष ज्ञान का अहंकार नहीं है । चांद दिखेगा तो त्योहार होगा और नहीं दिखेगा तो नहीं होगा । हिन्दू ज्योतिषी तो ग्रहों की चाल जानने का दम भरते हैं तब क्या आजकल उनकी चाल बदल गई है।
पहले गाँव के लोग जानते थे कि वसंत ऋतु में फागुन का महींना आता है और फागुन के आखिरी दिन पूर्णमासी को हिरणाकश्यम की बहन ने प्रहलाद को अपनी गोद में बिठाकर जलाने का प्रयास किया था क्योंकि हिरणाकश्यम अपने बेटे प्रहलाद को मार डालना चाहता था और होलिका को वरदान था वह नहीं जलेगी । हुआ था उल्टा। होलिका जल गई और प्रहलाद बीच में खड़े रह गए । उसके दूसरे दिन हिरणाकश्यप मारा गया था । फागुन का अन्तिम दिन एक ही होगा, दो नहीं हो सकते ।
इसी प्रकार मकर संक्रान्ति 14 जनवरी को होती थी क्योंकि इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में जाते हैं । हमेशा से सुनते आए हैं कि भीष्मपितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था और उन्होंने मकर संक्रान्ति के ही दिन अपने प्राण त्यागे थे । यदि आज वाले ज्योतिषी होते तो 14 की जगह 15 को संक्रान्ति बता देते तो भीष्म को एक दिन और शरसैया पर यानी वाणों की नोक पर लेटे रहना पड़ता ।
रामचन्द्र जी लंका जीत कर अयोध्या लौटे तो वहां खुशियां मनाई गईं थी, दीपमालिका सजी थी और समय के साथ यह दीपावली का पर्व बन गया । यह पर्व क्वार के महीने में अमावस्या के दिन पड़ता है लेकिन अब इस अमावस्या को भी ज्योतिषी लोग इधर उधर खिसका देते है ।
जब होली, दीवाली और मकर संक्रान्ति इधर उधर खिसकते हैं तो स्वाभाविक है शेष सभी त्योहार अपनी जगह बदलेंगे । लेकिन जगह बदलने से उतनी तकलीफ नहीं जितनी दो दिन त्योहार मनाने से होती है ।
त्योहार दो दिन मनाने का कोई औचित्य नहीं, केवल ज्योतिषियों का अहंकार है । हम जानते हैं कि त्योहार तिथियों के हिसाब से होते हैं और तिथ का आरम्भ सूर्योदय से होता है और उदया तिभि मानी जाती है । तब दो दिन एक ही तिथि हो ही नहीं सकती ।
मुस्लिम समाज ने चांद देखने के लिए दूरबीन का प्रयोग आरम्भ कर दिया है । यदि हिन्दू समाज के ज्योतिषी अपना अहंकार नहीं छोड़ेंगे तो त्योहारों के प्रति आस्था समाप्त हो जाएगी । आशा है वे ऐसा नहीं चाहेंगे ।
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