दुधारू पशुओं में नज़रअंदाज न करें थनैला रोग, समय रहते करें प्रबंधन

ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालक थनैला रोग के शुरूआती लक्षणों को देखकर इस रोग की भयानकता का अंदाजा नहीं लगा पाते हैं और वह इलाज के लिए टोने-टोटकों में समय जाया करते रहते हैं। जिसके चलते यह रोग काबू से बाहर हो जाता है।

Dr. Satyendra Pal SinghDr. Satyendra Pal Singh   31 Aug 2022 12:36 PM GMT

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दुधारू पशुओं में नज़रअंदाज न करें थनैला रोग, समय रहते करें प्रबंधन

थनैला रोग दुधारू पशुओं खासकर गाय और भैंस में बड़ी तेजी से पनप रहा है। यह दुधारू पशुओं के अयन का एक बहुत ही घातक रोग है, जो कि बैक्टीरिया के माध्यम से फैलता है। अगर रोग के शुरूआती लक्षणों को देखकर इसका निदान नहीं किया जाता है तो यह पशु के थनों को बेकार करके उसके दूध को सुखा देता है। यह रोग अयन से संबंधित है, इसलिए केवल मादा दुधारू पशुओं को ही होता है। इस रोग में पशु मरते कम हैं, लेकिन अयन सूखकर थन सदैव के लिए बेकार हो जाते हैं।

इस प्रकार से आर्थिक दृष्टिकोण से यह रोग बहुत क्षति पहुंचाता है, जिससे लाखों पशु प्रतिवर्ष देश में बेकार होकर पशुपालक तथा राष्ट्र को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाते हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में थनैला रोग डेयरी पशुओं की मुख्य बीमारी के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। अधिकांशतः ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालक थनैला रोग के शुरूआती लक्षणों को देखकर इस रोग की भयानकता का अंदाजा नहीं लगा पाते हैं और वह इलाज के लिए टोने-टोटकों में समय जाया करते रहते हैं। जिसके चलते यह रोग काबू से बाहर हो जाता है।

रोग की प्रारंभिक अवस्था में पशु के थनों पर सूजन की शुरूआती होती है, जिसे पशुपालक छछूंदर आदि के सूंघने के कारण होना समझकर थनों की गर्म पानी से सिकाई करते रहते हैं। इसके चलते रोग की तीव्रता और बढ़ जाती है। थनैला रोग पशु के अयन की संरचना और संक्रमण को दर्शाता है। इस रोग से दूध बनाने वाली एपीथिलियल कोशिकाएं प्रभावित होकर या तो मर जाती हैं या दूध में विसर्जित हो जाती हैं जिसके फलस्वरूप पशु कम दूध देना शुरू कर देता है।


गाय-भैंसों में अधिकतर यह रोग स्ट्रेप्टोकोकस जीवाणुओं द्वारा होता है, लेकिन भारत में मुख्य रूप से इस रोग को फैलाने में स्टैफिलोकोकाई जीवाणु प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। थनैला रोग मुख्यतः पशु के खराब, गंदी, नमीयुक्त स्थान पर रखने अथवा बैठने से जीवाणु संक्रमण द्वारा पैदा होता है। इसके अलावा दुग्ध दोहन का गलत तरीका प्रयोग में लाने, पशु के थनों पर चोट अथवा रगड़ लग जाने, खराब सड़ा-गला चारा खिलाने और पशु के आवास में उचित सफाई व्यवस्था नहीं रखने से यह रोग हो जाता है। कई बार ग्वाले के गंदे हाथ, कपड़े, पशुओं के शरीर और पशुशाला की दीवारें भी इस रोग के फैलाने में सहायक होती हैं।

अधिक दूध देने वाले पशु इस रोग से ज्यादा प्रभावित होते हैं। वातावरण भी थनैला रोग को काफी हद तक प्रभावित करता है। बरसात के मौसम में अधिक तापमान व नमी और सर्दियों में कम तापमान और नमी के कारण पशु की अवरोधक क्षमता घट जाती है और पशु आवास में सफाई नहीं रहने की दशा में, गीलापन एवं गोबर होने की वजह से जीवाणु अधिक पनपते हैं। इस प्रकार के फर्श पर लगातार बैठने से ये थनैला रोग का जीवाण पशु के अयन में थनों की दुग्ध नलिका के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। अयन में प्रवेश करने के पश्चात् ये जीवाणु दूध के संपर्क में आकर और अधिक वृद्धि करते हुए कोशिकाओं पर आक्र्रमण करते हैं और इन्हें नष्ट कर देते हैं। जिसके फलस्वरूप पशु थनैला रोग के विभिन्न लक्षणों को दर्शाता है। यह रोग गायों की अपेक्षा भैंसों में कम होता है। इसका मुख्य कारण भैंसों की थनों की मजबूत मांसपेशी है जो जीवाणु को थन के सुराख में प्रवेश नहीं करने देती है। लेकिन देखा जा रहा है कि दुधारू भैंसों में भी यह रोग बहुत तेजी से पनपने लगा है।


साधारणतया थनैला रोग अयन तक ही सीमित रहता है और तीव्र, कुछ तीव्र और दीर्घकालिक अवस्थाओं में पशु को होता है। तीव्र थनैली में तापक्रम का बढ़ना, बेचैनी, भूख में कमी, गर्म लाल तथा दर्द युक्त अयन, बाद में बढ़ती हुई सुस्ती, तापक्रम का गिरना, अयन ठण्डा और कड़ा होकर थनों से अचानक दूध का बहाव बंद हो जाना आदि इस अवस्था के प्रमुख लक्षण हैं। थनों से निकला दूध पहले पीलापन लेकर बाद में गहरे लाल रंग का हो जाता हैं। अयन ठण्डा, कड़ा और नीलापन लिए हुए प्रतीत होता है। कुछ तीव्र थनैली के लक्षण तीव्र थनैली जैसे ही हैं। अंतर केवल इतना है कि वे धीरे-धीरे प्रकट होकर पशु को कुछ कम हानि पहुंचाते हैं। अयन से निकले दूध में छीछड़े एवं पीलापन होता है। दीर्घकालिक अवस्था में इसके लक्षण बहुत ही धीरे-धीरे प्रकट होने के कारण रोग का आक्रमण होने के काफी दिनों बाद उसकी पहचान हो पाती है। इस अवस्था में अयन बड़ा होकर सख्त हो जाता है, दबाने पर दर्द नहीं होता है। थनों से निकला दूध पतला एवं छीछड़े युक्त होता है। धीरे-धीरे अयन क्षीण होकर, पशु का दूध कम होता चला जाता है। जो कि बाद में पूरी तरह आना बंद हो जाता है।

थनैला रोग से प्रभावित पशु का इलाज तुरंत कराना चाहिए जिससे दुग्ध उत्पादन में कमी न आये और रोग पर समय रहते रहते काबू पाया जा सके। क्योंकि थनैला रोग प्रमुख रूप से कुप्रबंधन से पैदा होता है। इसलिए रोग के बचाव एवं रोग होने की दशा में निम्न बातों पर अमल करना चाहिये-

पशु आवास एवं दूध निकालने के स्थान को हमेशा साफ, स्वच्छ और सूखा रखें। पशु आवास में समुचित मात्रा में हवा, सूरज का प्रकाश और रोशनी आनी चाहिए। पशुशाला में हर सप्ताह क्रमशः चूने और फिनाइल के घोल का छिड़काव करते रहना चाहिए, जिससे नुकसानदायक कीटाणु नष्ट होते रहें। पशुओं की देखभाल में लगे ग्वाले के हाथों, कपड़ों, दूध दुहने वाले बर्तनों, पशुओं के अयन आदि की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। थनों एवं अयन पर सूजन की दशा में गर्म पानी अथवा गर्म सिकाई कदापि नहीं करनी चाहिए। इसके स्थान पर बर्फ से ठंडी सिकाई करनी चाहिए।


स्वस्थ पशुओं को रोगी पशुओं से अलग रखना चाहिए। दूध निकालने से पहले थन एवं अयन को साफ पानी से धोएं। दूध की पहली धार को जांच करें, सामान्य होने पर ही बाल्टी में दूध निकालें। हर रोज दूध निकालने के बाद थनों को पोटेशियम परमैगनेट अथवा लाल दवा मिश्रित पानी के घोल से धोना चाहिए। बेहतर होगा यदि लाल दवा युक्त घोल में चारों थनों को एक-एक मिनट के लिए बारी-बारी से डुबायें। थनों पर झाग लगाकर दूध न निकालें, यदि ऐसा कर रहे हैं तो दुग्ध दोहन उपरांत लाल दवा से थनों को धोने के बाद चारों थनों पर एक भाग ग्लिसरीन और एक भाग पोटेशियम परमैगनेट मिलाकर बनाई गई दवा लगाते रहना चाहिए। इससे थन नहीं चटकेंगे तथा चटके थन बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगे।

दूध दोहन के अपरांत गाय-भैंस को आधा घंटा कदापि नीचे न बैठने दें, क्योंकि इस दौरान थनों के छिद्र खुले रहते हैं। अगर पशु दूध निकालने के बाद बैठ जाता है तो जीवाणु आसानी से अयन में प्रवेश करके संक्रमण कर सकते हैं। इसलिए दुग्ध दोहन उपरांत पशु को हरा चारा अथवा थोड़ा चोकर आदि खाने को डाल दें जिसे वह खाता रहेगा और नीचे नहीं बैठेगा। दुधारू पशुओं को विटामिन-ई की एक ग्राम मात्रा प्रतिदिन दाना मिश्रण के साथ खिलाना चाहिए। विटामिन-ई अयन की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है और दूध की गुणवत्ता में भी सुधार करता है। इस कारण पशु को थनैला रोग कम होता है। पशु को साफ पानी पिलायें, गोबर और पेशाब आदि को दिन में आवश्यकतानुसार साफ करते रहें। दुग्ध दोहन में अंगूठा विधि की बजाये पूर्ण हस्त दोहन विधि को ही प्रयोग में लायें। समय-समय पर थनों में गांठ, सूजन, दूध की गुणवत्ता आदि की जांच करते रहें। यदि इसमें कोई गड़बड़ दिखाई देती है तो तत्काल योग्य पशु चिकित्सक अथवा पशु वैज्ञानिक से सलाह लेकर अति शीध्र उपचार कराना चाहिए।

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