चीन की सिंचाई परियोजनाओं को विश्व विरासत का दर्जा, और हमारी नदियां मर रहीं

Mithilesh DharMithilesh Dhar   18 March 2018 10:51 AM GMT

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चीन की सिंचाई परियोजनाओं को विश्व विरासत का दर्जा, और हमारी नदियां मर रहींभारत की कई नदियों का अस्तित्व खतरे में है।

22 मार्च को विश्व जल दिवस है। इसे देखते हुए गाँव कनेक्शन आपके लिए एक स्पेशल खबरों की सीरीज ‘पानी कनेक्शन’ लेकर आ रहा है। इस सीरीज में हम आपको पानी की वास्तविक स्थिति से रू-ब-रू कराने का प्रयास करेंगे...

दुनिया में जब पानी और सिंचाई की बात चलेगी चीन का जिक्र आएगा। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में माना जाता है चीन के प्रोडक्ट सस्ते और घटिया होते हैं। लेकिन तकनीकी के मामले में पूरी दुनिया में चीन का डंका भी बजता है। उसी चीन की प्राचीन सिंचाई परियोजनाएं विश्व विरासत में शामिल हो रही हैं। जबकि भारत की पारंपरिक सिंचाई विधियां और परियोजनाएं हाशिए पर हैं।

चीन की तीन और सिंचाई परियोजनाओं को विश्व विरासत के रूप में चिन्हित किया गया है। वहीं नदियों का देश कहे जाने वाले भारत में सिंचाई परियोजनाएं किस स्थिति में होंगी इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि भारत का 25 फीसदी भाग रेगिस्तान बन रहा है। यहां प्रमुख नदियों का अस्तित्व खतरे में हैं। पिछले वर्ष सिंचाई और ड्रेनेज पर 23वें अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस ने पिछले दिनों मैक्सिको सिटी तीनों को विश्व विरासत सिंचाई संरचनाओं के रूप में शामिल करने की घोषणा की।

अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस की टीम ने भारत के आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में अध्ययन किया और उन्होंने बताया कि यहां परियोजनाओं के असफल होने के कारण सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीति गतिविधियां हैं। टीम इन राज्यों में अभी भी शोध कर रही है। ये वही राज्य हैं जहां किसान खेती के चलते, पानी के चलते सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं।

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चीन के शानक्सी प्रांत में हनजोंग थ्री वीयर्स परियोजना, शान्ये वीर, वुमन वेयर और यांगजेन वीर, जो सभी हान राजवंश (206 बीसी-एडी 220) में पूरी हुई थीं। हानजोंग बेसिन का सिंचाई को लेकर लंबा इतिहास रहा है। हान्शुई नदी के साथ खेतों में सिंचाई की सबसे विकसित अवधि 11 वीं शताब्दी में थी। इनमें हांग्जांग के तीनों वाइरस की भूमिका खास रही। पीला नदी प्राचीन परियोजना उत्तर पश्चिम चीन के निंग्सीआ हुई स्वायत्त क्षेत्र में स्थित था। इसका निर्माण किन राजवंश (221-206 बीसी) में शुरू हुआ था। कुल 12 नहरों को येलो नदी से निकाला गया। चीन में अब तक 13 सिंचाई प्रणालियों को विश्व के जल विरासत के रूप में पहचान मिली है।

ये तो रही चीन की बात। हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है। ऐसे में ये सवाल उठता है कि हमारी परियोजनाएं इस लिस्ट में क्यों नहीं हैं। हमारे यहां के किसान तो सिंचाई के लिए पानी को तरस जाते हैं। अगर आप ने ध्यान दिया होगा तो ता चलता है कि योजनाएं बहुत पुरानी हैं और उन्हें नदियों की मदद से अंजाम तक पहुंचाया गया। लेकिन हमाने यहां तो नदियां का अस्तित्व ही खतरे में हैं। ऐसे में योजनाएं कैसे सफल होंगी। ऐसा नहीं है कि जल संरक्षण के लिए हमारे यहां परियोजनाएं नहीं चलीं, खूब चलीं लेकिन उनका बेहतर क्रियान्वयन नहीं हो पाया। इसमें से एक सबसे कारण ये भी है कि हमारी नदियों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है।

भारत की नदियां जबर्दस्त बदलाव से गुजर रही हैं। आबादी और विकास के दबाव के कारण हमारी बारहमासी नदियां मौसमी बन रही हैं। कई छोटी नदियां पहले ही गायब हो चुकी हैं। बाढ़ और सूखे की स्थिति बार-बार पैदा हो रही है क्योंकि नदियां मानसून के दौरान बेकाबू हो जाती हैं और बारिश का मौसम खत्म होने के बाद गायब हो जाती हैं। नदियों को बचाने के लिए ईशा फाउंडेशन सदगुरु द्वारा वदियों को बचाने के लिए रैली फॉर रिवर्स अभियान चलाया जा रहा है। फाउंडेशन ने रिसर्च और विभिन्न स्त्रोतों के आधार पर कई आंकड़े और नदियों को बचाने तरीकों का प्रचार कर रहे हैं।

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कुछ चौंकाने वाले तथ्य:

  • भारत का 25 फीसदी भाग रेगिस्तान बन रहा है।
  • हो सकता है अगले 15 सालों में अपने गुजारे के लिए जितने पानी की हमें जरुरत है उसका सिर्फ 50% जल ही हमें मिलेगा।
  • गंगा दुनिया की उन पांच नदियों में से है, जिनका अस्तित्व भारी खतरे में है।
  • गोदावरी पिछले साल कई जगहों पर सूख गई थी।
  • कावेरी अपना 40 फीसदी जल प्रवाह खो चुकी है। कृष्णा और नर्मदा में पानी लगभग 60 फीसदी कम हो चुका है।
  • हर राज्य में, बारहमासी नदियां या तो मौसमी बनती जा रही हैं या पूरी तरह सूख रही हैं।
  • केरल में भरतपुजा, कर्नाटक में काबिनी, तमिलनाडु में कावेरी, पलार और वैगाई, उड़ीसा में मुसल, मध्य प्रदेश में क्षिप्रा।
  • कई छोटी नदियां तो गायब ही हो गई हैं।

इस अभियान के बारे में सदगुरु कहते हैं "यह कोई धरना या विरोध प्रदर्शन नहीं है, यह अभियान इस जागरुकता को फैलाने के लिए है, कि हमारी नदियां सूख रही हैं। हर वो इंसान जो पानी पीता है उसे इस नदी अभियान में अपना सहयोग देना होगा।" अधिकांश बड़ी नदियों पर कुछ राज्य विवाद कर रहे हैं।

इससे आप कैसे प्रभावित होते हैं

अनुमान बताते हैं कि जल की हमारी 65 फीसदी जरूरत नदियों से पूरी होती है। 3 में से 2 बड़े शहर पहले से ही रोज पानी की कमी से जूझ रहे हैं। बहुत से शहरी लोगों को एक कैन पानी के लिए सामान्य से दस गुना अधिक खर्च करना पड़ता है।

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हम सिर्फ पीने या घरेलू इस्तेमाल के लिए जल का उपयोग नहीं करते। 80 फीसदी पानी हमारे भोजन को उगाने के लिए इस्तेमाल होता है। हर व्यक्ति की औसत जल आवश्यकता 11 लाख लीटर सालाना है। बाढ़, सूखा और नदियों के मौसमी होने से देश में फसल बर्बाद होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। अगले 25-30 सालों में जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे की स्थिति और बदतर होगी। मानसून के समय नदियों में बाढ़ आएगी। बाकी साल सूखा रहेगा। ये रुझान शुरू हो चुके हैं।

नदियों को बचाने का तरीका

नदी के दोनों ओर कम-से-कम एक किलोमीटर की चौड़ाई में बड़ी संख्या में पेड़ लगाने से पर्यावरण बेहतर होगा, साथ ही देश तथा समाज को सामाजिक और आर्थिक लाभ होंगे। स्वस्थ नदी प्रणालियां मौजूदा और भावी पीढ़ियों के लिए जल तथा भोजन को सुरक्षित करती हैं। व्यक्तिगत खुशहाली और भारत के उद्योगों तथा वाणिज्य के लिए सुरक्षित जल संसाधन बहुत जरूरी हैं।

फसलों की जगह जैविक फलों की खेती करने पर किसानों की आय कम से कम तीन से चार गुना बढ़ जाती है। किसान भारत की कार्यशक्ति का सबसे बड़ा हिस्सा हैं मगर उनकी कमाई सबसे कम है। उनकी आय बढ़ने से काफी सकारात्मक असर पड़ेगा। यह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाएगा और उसमें विविधता भी लाएगा।

इतने बड़े पैमाने पर और दीर्घकालीन कार्रवाई को सिर्फ सरकारी नीति से ही स्थायी बनाया जा सकता है। इस राष्ट्रीय मुद्दे के बारे में जागरूकता पैदा करने और कार्रवाई को प्रेरित करने के लिए सद्गुरु ने ‘नदी अभियान’ का विचार दिया, जिसमें वह खुद कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक ड्राइव करेंगे।

1955 और 1970 के बीच बांध बनाने का अभियान चलाने वाले और पद्मश्री सम्मान से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता सिमोन उरांव ने गाँव कनेक्शन को बताया "जब मैंने बांध और नहर बनाने का काम शुरू किया तो काफी दिक्कतें आई। मैंने पूरे इलाके में घूम-घूमकर यह आकलन किया कि आखिर कैसे बांध खोदा जाए कि पानी का बेहतरीन इस्तेमाल हो। मैंने अनुमान लगाया कि यदि बांध को 45 फीट पर बांधेंगे और नाले की गहराई 10 फीट होगी तो फिर बरसात के पानी को वह झेल लेगा। इसी मॉडल को अपनाकर बांध बनाया गया और नतीजा यह है कि आज जहां भी मैंने काम किया उस इलाके में पानी की समस्या कम हो गई और किसान खुशहाल हो गया। सिंचाई के लिए पानी की समस्या इससे काफी हो गई। सिमोन आगे बताते हैं कि पेड़ नदियों का संरक्षण कर सकते हैं। जरूरी बस ये है कि इसमें सभी का योगदान हो।"

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पेड़ किस तरह हमारी नदियों को बचा सकते हैं?

भारत की नदियां मुख्य रूप से वर्षा जल से पोषित होती हैं। तो वे साल भर, यहां तक कि सूखे मौसमों में भी कैसे बहती हैं? वनों के कारण। बारिश का मौसम खत्म होने के बाद भी बारहमासी नदियां बहती रहें, इसमें पेड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

पेड़ की जड़ें मिट्टी को छेददार बना देती हैं जिससे वह बारिश के समय पानी सोख लेती है और उसे थाम कर रखती है। मिट्टी में मौजूद यह जल साल भर धीरे-धीरे नदी में मिलता रहता है।

अगर पेड़ नहीं होंगे, तो बाढ़ तथा सूखे का विनाशकारी चक्र चलता रहेगा। मानसून के दौरान अधिक पानी सतह पर आ जाएगा और बाढ़ लाएगा क्योंकि मिट्टी बारिश के पानी को नहीं सोखेगी। मानसून के समाप्त होने के बाद नदियां सूख जाएंगी क्योंकि उन्हें पोषित करने के लिए मिट्टी में नमी नहीं होगी। इसीलिए नदियों के दोनों ओर पेड़ों का होना बहुत जरुरी है।

वैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक नदियों के तटों पर पेड़ लगाने के बहुत से फायदे हैं

  • नदियां बारहमासी रहती हैं
  • बाढ़ की घटनाएं कम होती हैं
  • सूखे से लड़ने में मदद मिलती है
  • भूजल फिर से भरने लगता है
  • वर्षा सामान्य होती है
  • जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव कम होते हैं
  • मिट्टी का कटाव रुकता है
  • जल की गुणवत्ता में सुधार होता है
  • मिट्टी की गुणवत्ता बेहतर होती है
  • जैव-विविधता की सुरक्षा

(नोट-ये खबर थोड़ बदलाव के साथ दोबारा पोस्ट की गयी है। इसे पिछली बार 13 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित किया गया था)

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