बोतल बंद पानी और RO छोड़िए, हर्बल ट्रीटमेंट से भी पानी होता है शुद्ध, पढ़िए कुछ विधियां
Deepak Acharya | Apr 17, 2018, 10:51 IST
बोतलबंद पानी को लेकर चौंकाने वाली ख़बर आई है। अमेरिका में हुई रिसर्च में पता चलता है जिसमें एक्वा, एक्वाफिना और नेस्लेप्योर समेत कई कंपनियों के पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिले हैं। आरओ को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं, इसलिए आज हम आपको पानी को साफ करने के कुछ खास तरीके बता रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक कैंसर से दुनिया में होने वाली कुल मौतों में अगर 3.7 फीसदी लोग कैंसर, 4.9 फीसदी एड्स से मरते हैं तो पानी की बीमारियों (सिर्फ दस्त और सांस में संक्रमण) से 10 फीसदी लोगों की जान जाती है। यानि बाकी रोगों, बीमारियों, हादसों के लिए पानी ज्यादा खतरनाक है। इसलिए जरुरी है आप शुद्ध पानी पिएं।
देश के कुछ शहर-गांव के लोग खुशनसीब हैं कि उन्हें पूरा और अच्छा पानी मिल रहा है। देश में उन लोगों की संख्या भी लाखों में होगी जिन्हों घरों में आरओ लगवा रखे हैं, लेकिन उन लाखों की संख्या कई करोड़ हैं जिनके पास न तो साफ पानी है और न ही आरओ लगनाने के लिए पैसे। इनके पास तो इतने पैसे भी नहीं कि ये सामान्य फिल्टर ही ले पाएं। वैसे भी आरओ के पानी की गुणवत्ता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं।
इस विश्व जल सप्ताह में हम आपको कुछ ऐसी विधियां बता रहे हैं, जिनसे न सिर्फ आप दूषित पानी को शुद्ध कर पाएंगे बल्कि अपने पैसे भी बचेंगे और सेहत भी बनेगी। वैसे भी आज के कुछ वर्ष पहले न आरओ थे और न वाटर फिल्टर इसलिए तभी भी लोग घरेलू चीजों से पानी को शुद्ध करते ही थे।
हमारे देश में एक जगह है पातालकोट, यहां के आदिवासी सरकार या किसी दूसरी संस्था की मदद के प्राचीनकाल के पारंपरिक नुस्खों का उपयोग कर पानी को साफ कर रहे हैं। वे अपने दादा-परदादाओं से मिले पारंपरिक ज्ञान के आधार पर उपलब्ध जलस्रोतों से जल एकत्र कर उनका शुद्दीकरण करते हैं और इसे पेय योग्य बनाते हैं। सदियों से चली आ रही परंपरा को कोई भले ही शंका की नज़रों से देखें लेकिन अब इसका दमखम आधुनिक विज्ञान भी प्रमाणित कर रहा है।
पीने के पानी के लिए इन दिनों तरस रहे हैं देश के कई इलाके। फोटो-ललितपुर से
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के मुख्यालय से करीब 80 किमी दूर पातालकोट घाटी सदियों से वनवासियों का घर है। गोंड और भारिया जनजाति के वनवासी यहां सैकड़ों सालों से मूल निवासी हैं। बाकी दुनिया से कटा ये इलाका समाज की मुख्यधारा से सैकड़ों साल पीछे हैं। बावजूद इसके, जिस तरह से ये वनवासी स्वास्थ्य संबंधी विकारों के उपचारों, दैनिक दिनचर्या और स्वयं के रहन-सहन में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते रहें है, ये देखकर मैं शहरी विकसित-समाज को पिछड़ा हुआ देखता हूं। घोड़े के नाल के आकार में और करीब 79 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली इस घाटी के वनवासियों को अपनी हर छोटी-बड़़ी जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ता है। और मजे की बात ये भी है कि इन लोगों के पास अपनी हर समस्याओं के लिए जुगाड़ और चिरस्थायी उपाय भी हैं।
पातालकोट धरातल से करीब 3000 फीट नीचे एक गहरी खाई में बसा 2500 वनवासियों का प्राकृतिक आवास है जो करीब 16 गांवों में फैला हुआ है। चारों ओर विशालकाय पहाड़ों और चट्टानों से घिरी इस घाटी की बनावट ऐसे ही कि पानी रुख नहीं पानी। बारिश खूब होती है लेकिन ज्यादातर पानी बह जाता है। गर्मियों के आगमन के साथ पीने योग्य पानी की समस्या आम हो जाती है।
पातालकोट धरातल से करीब 3000 फीट नीचे एक गहरी खाई में बसा 2500 वनवासियों का प्राकृतिक आवास है जो करीब 16 गांवों में फैला हुआ है। चारों ओर विशालकाय पहाड़ों और चट्टानों से घिरी इस घाटी की बनावट ऐसे ही कि पानी रुख नहीं पानी।
ये भी पढ़ें- पानी की खाली बोतलों से आप कर सकते हैं ऐसे कई काम
पातालकोट वनवासी पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाए पारंपरिक तरीकों से अशुद्ध पानी को पीने लायक बनाते हैं। निर्गुंडी, निर्मली, सहजन, कमल, खसखस, इलायची जैसी वनस्पतियों का इस्तमाल कर आज भी जल शुद्धीकरण की इन देसी तकनीकों को आम शहरी लोग भी घरेलू स्तर पर भी अपना सकते हैं।
सूरज से करते हैं पानी का शुद्धीकरण
सुबह महिलाएं इस पानी को अपने बर्तनों में लेकर घर तक ले आती हैं। गर्मियों में पानी से भरी घुंडियों ये लोग अपने घरों के ऊपर खपरैल से बनी छ्त पर सूर्य प्रकाश में रख देते हैं। यहाँ के बुजुर्गों का मानना है कि ऐसा करने से दिन भर धूप की गर्मी पानी पर पड़ती है और शाम होते-होते पानी की सारी अशुद्धियाँ खत्म हो जाती हैं। सूरज के ढ़ल जाने के बाद शाम से इस पानी को पीने योग्य माना जाता है।
विज्ञान ने भी माना सूर्य का चमत्कार
निर्गुंडी यानी पानी की पत्ती
वनवासियों के अनुसार निर्गुंडी की पत्तियाँ मिट्टी के कणों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं जिससे गर्त या कण इनकी सतहों पर लिपट जाते हैं और मिट्टी के भारी कणों के साथ सूक्ष्मजीव भी इन सतहों तक चले आते हैं। आयुर्वेद में भी निर्गुंडी के बीजों में जल शुद्धीकरण की उपयोगिता का जिक्र किया गया है।
निर्मली के बीज भी करते हैं पानी को साफ
निर्मली के बीज करते हैं पानी को शुद्ध। इसके पके हुए 2-3 फलों को मसलने के बाद पानी से भरे बर्तनों में डाल दिया जाता है और 2 से 3 घंटे के बाद इस पानी को पीने योग्य माना जाता है। कई लोग इसके पके फलों को मटके या घुंडी की आंतरिक सतह पर रगड़ देते हैं और बाद में इस पात्र में झिरिया का पानी डाला दिया जाता है। निर्मली के बीजों पर की गयी शोधों से ज्ञात हुआ है कि इनमें एनऑयनिक पॉलीइलेक्ट्रोफाइट्स पाए जाते हैं जो कोऑग्युलेशन की प्रक्रिया के कारक हो सकते हैं।
पानी का फिल्टर दही
शहर के लोगों के लिए ये नुस्खा है मुफीद
सहजन या मुनगा के पेड़ भी घाटी में खूब दिखायी देते हैं। हिन्दुस्तानी सभ्यता में करीब 4000 सालों से इसे अलग अलग तरह से इस्तमाल में लाया जाता रहा है। करेयाम गांव के गोंड और भारिया वनवासी पीने के पानी को शुद्ध करने के लिए सहजन या मुनगा (मोरिंगा ओलिफ़ेरा) की फल्लियों और तुलसी की पत्तियों को तोड़कर मटके में डाल देते हैं।
दूषित पानी को साफ करने के लिए सहजन का भी इस्तेमाल करते हैं आदिवासी। इस पात्र में एकत्र किया पोखरों और झिरिया का अशुद्ध या मटमैला जल डाल दिया जाता है। दो से तीन घंटो बाद पात्र की ऊपरी सतह से पानी को निथारकर या एकत्र कर साफ सूती कपड़े से छानते हुए किसी अन्य पात्र में डाल दिया जाता है जो कि अब पीने योग्य हो जाता है।
तुलसी की पत्तियों से बनाए पानी को शुद्ध
सूखाभांड गाँव की वनवासी महिलाएं सहजन की परिपक्व फल्लियां एकत्र कर लेती हैं, फल्लियों को तोड़कर इसके बीजों को एकत्र कर लिया जाता है और इन बीजों को एक साफ सूती कपड़े में डालकर पोटली तैयार कर ली जाती है। प्रत्येक दिन सुबह शाम एक एक बार इस पोटली को पानी से भरे पात्र के भीतर 30 सेकेण्ड के लिये घुमाया जाता है, इन महिलाओं का मानना है कि ऐसा करने से पानी के भारी कण और सूक्ष्मजीव इस पोटली की सतह पर चिपक जाते है। बाद में पोटली से बीजों को बाहर निकाल लिया जाता है और अन्य साफ सूती कपड़े में लपेट दिया जाता है ताकि अगली बार इस पोटली का पुन: उपयोग हो सके। आधुनिक विज्ञान भी सहजन और तुलसी के द्वारा सूक्ष्मजीवों की वृद्धि को रोके जाने की पुष्टि कर चुका है।
सन 1995 में एल्सवियर लिमिटेड से प्रकाशित जर्नल "वाटर रिसर्च" के 29वें अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र से प्राप्त परिणामों के अनुसार वास्तव में सहजन के बीजों में हल्के अणुभार वाले कुछ प्रोटीन्स होते हैं जिनपर धनात्मक आवेश होता है और ये प्रोटीन्स पानी में उपस्थित ऋणात्मक आवेश वाले कणों, जीवाणुओं और क्ले आदि को अपनी ओर आकर्षित करते हैं जिससे ना सिर्फ पानी शुद्ध होता है, बल्कि इसकी कठोरता भी सामान्य हो जाती है। ये शोध परिणाम आधुनिक विज्ञान में अब प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन इसका आधार और उपयोग सदियों पहले से वनवासी करते चले आ रहे हैं।
जामुन और अर्जुन की छाल भी असरदार
नीम को तो विज्ञान की मानता है असरदार। अब वक्त आ चुका है जब हमें मिलकर आधारभूत स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल जैसी व्यवस्थाओं की उपलब्धताओं पर कार्य करना होगा। जैसे जैसे दुनियाभर में जनसंख्या दबाव बढ़ता जा रहा है, मूलभूत आवश्कताओं की मांग भी तेजी से बढ़ रही है और ऐसे में पीने योग्य पानी के लिए त्राहि त्राहि होना तय है। क्या हम पातालकोट के वनवासियों के पारंपरिक ज्ञान पर आधारित पेयजल सफाई युक्तियों पर कोई आधुनिक शोध कर इसे प्रमाणित कर इन वनस्पतियों को बतौर उत्पाद या आसानी से उपलब्ध संसाधन के तौर पर नहीं ला सकते?
वनवासियों के पारंपरिक हर्बल ज्ञान को स्रोत मानकर इस पर गहन अध्धयन किया जाए तो निश्चित ही आम जनों तक शुद्ध पेयजल आसानी से पहुँच जाएगा। बायोरेमेडियेशन जैसी तकनीकियों द्वारा इस पारंपरिक ज्ञान का परिक्षण भी किया जाना चाहिए ताकि प्राप्त परिणाम वनवासियों के इस पारंपरिक हर्बल ज्ञान की पैठ दुनिया को दिखा सके, अनुभव करा सके। ये नुस्खे ना सिर्फ शुद्ध पानी प्राप्ती के लिए कारगर है बल्कि पानी का हर्बल ट्रीटमेंट होना बेहतर सेहत के लिए अनेक तरह से फायदेमंद भी है।
(साभार: इंडिया वाटर पोर्टल)