लॉकडाउन में बेबसी का सफर: मुश्किलों भरा वो लंबा दौर जिसके जख्म अभी तक नहीं भरे

ठीक दो साल पहले, 25 मार्च 2020 को पूरे देश में लॉकडाउन लग गया था। ग्रामीण भारत के लाखों प्रवासी मजदूर शहरों में फंसे हुए थे। उनके पास न तो नौकरी थी, न रहने की जगह और ना ही खाने का कोई सामान। उनमें से सैकड़ों हजारों तो पैदल ही अपने घरों की ओर निकल पड़े थे। दो साल बाद, गांव कनेक्शन ने इन प्रवासी मजदूरों से मिलकर उनकी स्थिति को जानने की कोशिश की और पाया कि लॉकडाउन से मिले उनके वो घाव अभी पूरी तरह से भरे नहीं हैं, निशान काफी गहरे हैं।

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उस दिन को दो साल हो गए हैं जब कोविड महामारी के चलते लॉकडाउन के रूप में देश में एक डरावना पड़ाव आया था। कोरोना वायरस की चपेट में आने से लोगों में हड़कंप मच गया था। न केवल भारत से, बल्कि दुनिया भर से अफवाहें, हताशा और वायरस से लोगों के मरने की भयानक खबरें आ रहीं थीं।

भारत में, कोरोनोवायरस ने अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को प्रभावित किया था। महामारी की लहर न जाने कितने घरों को तबाह करती हुए चली गई। इसके प्रकोप का खामियाजा उन लाखों दैनिक वेतन भोगियों और प्रवासी मजदूरों को भी उठाना पड़ा था, जो बिना नौकरी, खाने या पानी के शहरों में फंसे हुए थे। ग्रामीण भारत से शहरों में आए इन मजदूरों के घर यहां से काफी दूर थे।

धीरे-धीरे, भयावह आंकड़े सामने आने लगे। पलायन या रिवर्स माइग्रेशन उन मजदूरों से शुरू हुआ, जो शहरों में भोजन और पानी के बिना रहने के बजाय अपने घर वापस जाना पसंद कर रहे थे। भेड़-बकरियों की तरह लोगों से लदे हुए ट्रकों, वैन और ऑटो पर चढ़कर अपने घरों की और निकल गए। जिन्हें ये साधन नहीं मिले वो पैदल या साइकिल चलाते हुए अपनी राह पर आगे बढ़ने लगे। सभी सार्वजनिक परिवहन बंद कर दिए गए थे। केंद्र सरकार ने संसद को सूचित किया कि लॉकडाउन में अपने घर वापस लौटने वाले मजदूरों की संख्या एक करोड़ (सटीक रूप से 10,466,152) से ज्यादा थी।

सैकड़ों किलोमीटर चलने के बाद, उनमें से कुछ तो अपनी मंजिल पर पहुंच गए, तो वहीं, उनमें से कई ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन में अपने घरों की तरफ निकलें उन प्रवासी मजदूरों की कहानियों और खबरों को काफी नजदीकी से कवर किया था।

गांव कनेक्शन ने 30 मई से 16 जुलाई, 2020 के बीच 23 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 179 जिलों में एक सर्वे भी किया था। सर्वे में 25,300 ग्रामीणों को शामिल किया गया था। (सर्वे रिपोर्ट के लिए www.ruraldata.in पर जाएं)। इससे पता चला कि 23 प्रतिशत प्रवासी मजदूर पैदल चलकर अपने घर लौटे थे। वहीं 18 फीसदी मजदूरों ने बसों का इस्तेमाल किया था और 12 फीसदी मजदूरों ने ट्रेन पकड़कर अपने घर की राह ली थी।

इसी बीच, एक निजी वेबसाइट ने लॉकडाउन के दौरान गैर-कोविड ​​​​मौतों की संख्या को दर्ज करना शुरू कर दिया था। वेबसाइट के अनुसार, भारत में 30 जुलाई 2020 तक ऐसी 991 मौतें हुई थीं। इनमें से 209 लोग पलायन के दौरान पैदल चलने या दुर्घटना में मारे गए थे। 'भुखमरी और आर्थिक संकट' के कारण 224 लोगों ने दम तोड़ा था तो वहीं 47 लोगों की मौत 'थकावट' (चलने और लाईन में खड़े होने) के कारण हुई थीं।

घर लौटे इन प्रवासी मजदूरों की स्थिति फिलहाल कैसी है और इन दो सालों में उनके जीवन में क्या बदलाव आया है? जब ये जानने के लिए गांव कनेक्शन ने उनमें से कुछ लोगों से मुलाकात की तो पाया कि उस दौरान मिली तकलीफ और आघात को वो भुला नहीं पाए हैं। कई लोगों ने अपने गांवों में ही रहने का फैसला किया है, भले ही इसका मतलब खाने के लिए कम ही क्यों न हो। वे कहते हैं वापस जाने से तो बेहतर है कि वे यहीं रहें।

वही कुछ अन्य लोगों के लिए, गांव में वापस से जीवन बिताना उनकी सोच से काफी परे रहा है। उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली और उन्हें अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए फिर से शहरों में वापस लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके परिवार का कमाने वाला एकमात्र सदस्य कभी लौटकर घर नहीं आ पाया। वो आज भी उसकी मौत के गम में घोर निराशा और अवसाद में जी रहे हैं।


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"अगर गाड़ी चलनी बंद नहीं होती, तो मेरा बेटा आज यहां होता ..."

मिर्जापुर (यूपी) की राजकुमारी, जिन्होंने अपने इकलौते 23 वर्षीय बेटे राजा बाबू को खो दिया।

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के बघेला गांव में एक परिवार के लिए, जीवन फिर कभी वैसा नहीं होगा जैसा 18 अप्रैल, 2020 से पहले था। राजकुमारी और स्वामीनाथ अपने, 23 साल के इकलौते बेटे राजा बाबू की वापसी का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। राजा बाबू इस आदिवासी परिवार की खुशियों और समृद्धि का खजाना था।

राजा बाबू की मां राजकुमारी, गांव कनेक्शन को बताती हैं, "मेरा बेटा एक लंबा-चौड़े कद वाला युवक था। उसने मिर्जापुर से बीए किया और एक बेसिक ट्रेनिंग कोर्स कर नौकरी की तलाश में था।" उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाने के लिए खेतों में दिन-रात मजदूरी की थी। राजकुमारी ने कहा, "मैंने उसकी पढ़ाई पर लगभग साढ़े तीन लाख रुपये खर्च किए थे। वह अलीगढ़ में एक परीक्षा देने जा रहा था। उसने मुझसे फोन पर पैसे भेजने के लिए कहा था, और मैंने पैसे भेज भी दिए थे।"

राजा बाबू ने अपनी मां से वादा किया कि वह अलीगढ़ से सीधे घर आएगा, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। उसी शाम, 24 मार्च 2020 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी। उस समय राजा बाबू अलीगढ़ में फंसे हुए थे।

राजकुमारी सुबकते हुए गांव कनेक्शन को आगे की कहानी बताती है, "उसने कुछ समय बाद घर पर फोन करके बताया कि शहर में खाना मिलना मुश्किल हो रहा है और वह घर वापस आने की योजना बना रहा है। वह और उसका दोस्त अलीगढ़ से कानपुर तक करीब 380 किलोमीटर पैदल चलकर आए थे।"

फतेहपुर आने के बाद, उन्होंने घर पहुंचने के लिए रेलवे ट्रैक के किनारे चलने का फैसला किया। वो कुछ ही दूर चल पाए थे कि अचानक राजा बाबू की तबीयत खराब होने लगी। उसके दोस्त ने मदद की गुहार लगाई और पुलिस ने राजा को फतेहपुर के सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया। लेकिन राजा बाबू बच नहीं पाए। अगली सुबह 18 अप्रैल 2020 को उन्होंने अस्पताल में दम तोड़ दिया।

परिवार के लिए उनका ये बुरा सपना यहीं खत्म नहीं हुआ। पोस्टमार्टम हुआ और राजा बाबू के शव को उनके गांव में एक एम्बुलेंस से भेजा दिया गया। एंबुलेंस का किराया 16,000 रुपये था और परिवार को इसकी सूचना दे दी गई थी। इतना सब होने के बावजूद उनके पिता स्वामीनाथ, अपने बेटे को चेहरा भी नहीं देख पाए क्योंकि वे उस समय सूरत में थे। वह गुजरात में एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते थे और लॉकडाउन के चलते घर नहीं आ सके।

अपने 23 साल के बेटे को खोने के बाद, राजकुमारी अभी भी एक खेत मजदूर के रूप में काम करती हैं ताकि वह अपना पेट भर सके। उनकी दो बेटियां हैं, दोनों की शादी हो चुकी है। उनके मुताबिक उन्हें सरकार से कोई मदद नहीं मिली है। "अगर गाड़ियां बंद नहीं होती, तो मेरा बेटा आज यहां होता ..." कहते हुए राजकुमारी रो पड़ी।

राजा बाबू के पिता स्वामीनाथ से जब गांव कनेक्शन ने बात की तो वे व्याकुल हो उठे। 55 साल के स्वामीनाथन अपने इकलौते बेटे की मौत के समय सूरत में फंसे हुए थे। उन दिनों को याद करते हुए जब वह कुछ कहते हैं तो उनकी आवाज में खौफ साफ नजर आता है। उन्हें आज भी वो फोन कॉल याद हैं जब बेटे के दोस्त ने बताया था कि राजा बाबू अस्पताल में है और फिर दूसरा फोन कॉल जिसने उन्हें उसकी मौत की खबर दी थी। "वह फतेहपुर में था, मैं सूरत में और उसकी मां गांव में थी..." स्वामीनाथ के शब्द ठहर से गए और गला रूधंने लगा। मानों शब्द गले में फंस गए हों और वह चुप हो गए।

स्वामीनाथ और राजकुमारी को अभी तक इस बात का पता नहीं चल पाया है कि उनके इकलौते बेटे की मौत का क्या कारण था। उन्होंने बड़ी मुश्किलों से अपने बेटे को इस उम्मीद से पढ़ाया था कि वह उनके बुढ़ापे का एक सहारा बनेगा और वे बेहतर तरीके से अपना जीवन गुजर-बसर करेंगे।

स्वामीनाथ के अनुसार, "सरकार से हमें कुछ नहीं मिला है। हमने कागजात तैयार करने के लिए पैसे उधार लिए ताकि उसके जीवन बीमा की राशि पाने के लिए दावा कर सकें। हम अभी भी इसका इंतजार हैं। "

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"मैं गर्भवती थी, और मध्य प्रदेश की सीमा के बीच मैंने अपने बच्चे को जन्म दिया ..."

सतना (एमपी) की शकुंतला कोल (32) ने घर वापस जाते समय अपने बच्चे को जन्म दिया था।

शकुतला कोल पहले लॉकडाउन की याद में सिहर उठती हैं। जब दो साल पहले लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तो उस समय शकुंतला और उनके पति राकेश कोल महाराष्ट्र के नासिक में हाउस पेंटर के रूप में काम कर रहे थे। वे पिछले पांच सालों से यहां रह रहे थे। मध्य प्रदेश के सतना में उचेहरा ब्लॉक के मोहगनी गांव में उनका घर था जो यहां से लगभग 1,000 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पर था।

32 साल की शकुंतला ने गांव कनेक्शन को बताया, "हम अपने गांव की ओर जा रहे थे। मैं गर्भवती थी और मध्य प्रदेश की सीमा के बीच मुझे प्रसव पीड़ा होने लगी। साथ की अन्य महिलाओं की मदद से मैंने बच्चे को जन्म दिया। बच्चे के जन्म के बाद कुछ घंटे आराम करने के बाद वह वापस गांव की ओर चल पड़े।" शकुंतला को याद है कि वे केवल दो घंटे के लिए रुके थे। और उसके बाद नवजात शिशु को गोद में उठाए फिर से अपनी राह पर चलने लगीं थीं।

इतना सब सहने के बाद भी उनके लिए चीजें बेहतर नहीं हुईं, जैसा कि उन्होंने उम्मीद की थी।

राकेश कोल ने गांव कनेक्शन को बताया, " गांव पहुंचने पर मेरे पिता और भाई ने हमें घर पर रहने की इजाजत नहीं दी। हमें पास ही में एक झोपड़ी बनाने और वहां रहने के लिए मजबूर होना पड़ा।" उन्होंने सतना की एक स्कूल शिक्षिका अर्चना शुक्ला की मदद से धीरे-धीरे ईंटों का एक घर बनाया था।

नासिक में, राकेश और शकुंतला मिलकर एक दिन में लगभग 800 रुपये कमाते थे। वहां रहने के लिए ठेकेदार ने उन्हें एक कमरा दिला दिया था। लेकिन आज वे गांव में इससे आधे की मजदूरी पाते हैं और बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चला रहे हैं। शकुंतला काम नहीं करती हैं क्योंकि उसे अपनी तीन बेटियों और दो बेटों की देखभाल के लिए घर पर रहना पड़ता है। 35 साल के राकेश ने कहा, " हमारा सबसे बड़ा बच्चा नौ साल का है। लेकिन वह स्कूल नहीं जाता है।"

भले ही, उनके हालात कितने भी मुश्किल भरे क्यों न हों, राकेश और शकुंतला ने फैसला किया है कि वे नासिक वापस नहीं जाएंगे। उनकी जिंदगी का ये एक ऐसा अध्याय है जिसे वे बंद कर चुकें हैं। दंपति के अनुसार, उन दिनों जो हताशा और निराशा उन्होंने देखी थी, वे उसे फिर कभी नहीं देखना चाहते।

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"पुलिस ने हम पर लाठीचार्ज किया, पैर सूज गए और हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था।"

सुमन लता (32), जो अपने बच्चों के साथ दिल्ली से एटा (यूपी) तक 250 किलोमीटर पैदल चलकर आईं थीं।

जब पहली बार लॉकडाउन लगा और एक महीने बाद भी इसके खुलने के संकेत नहीं मिले तो सुमन लता और उनके परिवार के चार सदस्यों ने वापस अपने गांव भाऊपारा जाने का फैसला कर लिया। वे दिल्ली की सीमा पर स्थित बदरपुर इलाके में काम करते थे। उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पड़ने वाला उनका गांव यहां से 250 किलोमीटर दूर था।

सुमन ने गांव कनेक्शन को बताया, " दो और पांच साल के अपने दोनों बेटों के साथ गांव तक आने में हमें चार दिन का समय लगा था।"

पैदल चलकर गांव तक आने के अपने दर्दनाक सफर को याद करते हुए सुमन ने कहा, "पुलिस ने हम पर लाठीचार्ज किया, हमारे पैर सूज गए और हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था।" उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया कि उत्तर प्रदेश के अन्य प्रवासी मजदूरों की तरह उन्हें खुद ही अपने आपको संभालना पड़ा था।

उनके पास अपने गांव लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह सवाल करती हैं, "हम रोज खाने और कमाने वाले लोग हैं। बिना किसी काम के, कैसे अपना गुजारा चला सकते थे।"

लेकिन चार महीने बाद ही सुमन और उनके पति मेघराज दिल्ली लौट आए। उन्होंने कहा, उन्हें ये फैसला लेना पड़ा, क्योंकि गांव में उनके लिए कोई काम ही नहीं था। 32 साल की सुमन गांव कनेक्शन को बताती है, "हमारे परिवार के पास एक छोटा सा खेत है, जिस पर मेरा देवर खेती करते थे। खाने वाले ज्यादा थे और करने के लिए कोई काम नहीं था।" गांव में सुमन के परिवार में कुल दस लोग थे- देवर के परिवार के पांच, उसके परिवार के 4 लोग और सास। सभी लोग उस खेती पर निर्भर रहकर जीवन यापन कर सकें, ये संभव नहीं था।

दिल्ली में वापस आकर अब ये दंपति पुराने कपड़ों से बैगों की सिलाई का काम करता है। इससे उन्हें हर महीने 10,000 रुपये की आमदनी हो जाती है।

वह थोड़ी चिंतित होते हुए कहती हैं, " 4000 रुपया तो मकान के किराए में चले जाते है। क्योंकि स्कूल बंद हैं, इसलिए मैं अपने बच्चे को स्कूल भी नहीं भेज पा रही हूं। बड़ा बेटा आठ साल का हो गया है। अगर महामारी नहीं होती, तो वह तीसरी कक्षा में होता। अब पूरे दिन यहां बेकार बैठ रहता है। कुछ नहीं करता।"

सुखदेव सिंह शाक्य, उन प्रवासी मजदूरों में से एक हैं, जो सुमन और मेघराज के साथ दिल्ली से उत्तर प्रदेश तक अपने घरों के लिए पैदल चले थे। अपने गांव फर्रुखाबाद से शाक्य भी चार महीने के भीतर ही दिल्ली वापस आ गए।

उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, "मैं काफी असहाय था। मैं यह सोचकर गांव गया था कि मुझे वहां कोई काम मिल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मुझे वापस लौटना पड़ा।" शाक्य बचाए गए थोड़े से पैसे के साथ, अपनी पत्नी और चार बच्चों को दिल्ली में छोड़कर, अकेले गांव के लिए निकल गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि गांव में उन्हें कोई न कोई काम जरूर मिल जाएगा और फिर वे अपने परिवार को दिल्ली से वापस गांव बुला लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 35 साल के सुखदेव अब दिल्ली में कपड़े के थैले बेचकर और अपने परिवार का पेट भर रहे हैं।

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"मैं दस दिनों तक चलता रहा और आखिर में मुझे लगा कि जैसे मेरे पैर खराब हो गए हों।"

- राजू (35), जो लुधियाना से अपने गांव सीतापुर (यूपी) तक करीब 725 किलोमीटर पैदल चलकर पहुंचे थे।

राजू उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के अपने गांव विश्वेश्वरदयालपुर में होली की छुट्टियों में घर आए हुए हैं। उनके गांव के अधिकांश लोग दैनिक मजदूरी कर अपना गुजारा चलाते हैं।

राजू ने गांव कनेक्शन को बताया, "दो साल पहले जब लॉकडाउन लगा था, तब मैं पंजाब के लुधियाना में था। वहां मुझे दिहाड़ी मजदूर के रूप में लगभग तीन से चार सौ रुपये रोजाना मिलते थे।" काफी समय तक जब लॉकडाउन हटने का कोई संकेत नहीं मिला तो अन्य लोगों की तरह 35 साल के राजू ने भी 725 किलोमीटर की दूरी तय करके अपने गांव वापस जाने का फैसला कर लिया।

वह याद करते हुए बताते हैं, " शायद, मैं दस दिनों तक पैदल चला था, और आखिर में ऐसा लगा मानो मेरे पैर खराब हो गए हो।"

उसके बाद दो महीने तक राजू गांव में ही रहा। फिर उसे लुधियाना लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि उसके गांव में कमाई का कोई जरिया नहीं था। उसे अपना और अपनी 65 साल की मां का पेट भरने के लिए वापस शहर लौटना पड़ा।

विश्वेश्वरदयालपुर के कई निवासियों के पास सुनाने के लिए कुछ ऐसी ही कहानियां थीं। मुनेंद्र दिल्ली में रहकर सीट कवर बनाने वाली कंपनी में काम कर रहे थे। 27 साल के मुनेंद्र ने दो महीने तक तो उम्मीद रखी कि सब ठीक हो जाएगा। लेकिन फिर हार मान ली और अपने घर वापस जाने के लिए 800 किलोमीटर की लंबी पैदल यात्रा शुरू कर दी।

मुनेंद्र गांव कनेक्शन को बताते हैं, "मुझे पैदल चलकर घर पहुंचने में 15 दिन लगे थे। यहां नौकरी के ज्यादा अवसर नहीं हैं। जब भी मुझे काम मिलता है तो मैं दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम कर लेता हूं। किस्मत ने साथ दिया तो एक दिन में लगभग 100-150 रुपये कमा लेता हूं।"

उनकी पत्नी पूनम गांव कनेक्शन से कहती हैं, " वो सब याद करके वह आज भी परेशान हो जाते हैं। लॉकडाउन खत्म होने के बाद, मैंने उन्हें वापस नहीं जाने दिया। " मुनेंद्र कहते हैं कि वह छिटपुट काम करके अपना जीवन गुजारने के लिए तैयार हैं। लेकिन वह फिर से दिल्ली नहीं जाएंगे।

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"अगर मेरी साइकिल न होती तो मैं मर जाता"

राकेश राम (30 ) ने चेन्नई से अपने गांव कैमूर, बिहार तक 2,200 किलोमीटर का सफर साइकिल से पूरा किया था।

राकेश राम कहते हैं कि यह साइकिल ही थी जिसने उनकी जान बचाई। लॉकडाउन की घोषणा के समय राम तमिलनाडु के चेन्नई में रेड हिल्स इलाके में रह रहे थे। वह कुछ सप्ताह तक तो वहां बिना काम के रहते रहे। लेकिन 30 अप्रैल, 2020 को उन्होंने फैसला किया कि वह बिहार के कैमूर जिले के दरवान गांव में वापस अपने घर चले जाएंगे।

बड़े भाई अमरीचन्द राम और अपने ही गांव के एक साथी छोटान राम के साथ राकेश ने 2,200 किलोमीटर की तकलीफों भरी यात्रा शुरू की। वे 81 किलोमीटर तक पैदल चलकर आंध्र प्रदेश के सुल्लुरपेटा तक पहुंचे थे। वहां पहुंचकर उन्होंने साइकिल खरीदी और पैडल मारते हुए अपने घर की तरफ चल दिए। वे 15 मई 2020 को अपने घर पहुंचे थे।

राकेश ने गांव कनेक्शन को बताया, "जिस कंपनी के लिए मैं काम करता था, उन्होंने हमारे खाने की व्यवस्था कर रखी थी। लेकिन जहां मैं रहता था वह एक छोटी सी बस्ती थी। वहां लगभग 700 लोग का बसेरा था।" 30 साल के राकेश समझाते हुए कहते हैं, "यहां ज्यादा दिन तक रहना, मौत को आमंत्रित करने जैसा था। इसलिए मैंने घर जाने का फैसला किया। गांव से इतनी दूर किसी शहर में मरने से बेहतर है कि घर पर मरा जाए।"

राकेश ने कहा, "हम सुबह दो बजे साइकिल चलाना शुरू करते और सुबह ग्यारह बजे रुकते थे। कुछ समय आराम करने के बाद, हम फिर से तीन बजे निकल पड़ते और रात ग्यारह बजे तक साइकिल चलाते रहते।"

राकेश जब शहर से चले थे, उनके पास 32,000 रुपये थे। वह कहते हैं कि उन्होंने और उनके साथियों ने 24,000 रुपये साइकिल खरीदने पर और 8,000 रुपये खाने पर खर्च किए थे। सड़कों, नदियों और रेलवे लाइनों को गाइड के रूप में इस्तेमाल करते हुए, वे अंततः दरवान गांव की संकरी गलियों में पहुंच ही गए।

आगे की कहानी बताते हुए उनकी आवाज़ में एक उदासी छा गई है। वह बताते हैं, " यहां पहुंचने पर गांव वालों ने हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे हम अपराधी हों और गांव में वायरस फैलाने के लिए आए हैं। हम जिस बुरे दौर से गुजरे थे, उसके बारे में किसी ने नहीं सोचा।" वह आह भरते हुए कहते हैं, "राज्य की सीमा पर अधिकारियों ने हमारे हाथों पर मुहर लगा दी। लगा जैसे हम कोई ब्रांडेड जानवर हैं, या फिर इससे भी बदतर कोई अपराधी। "

गांव में लगातार, लोगों के सड़कों पर मरने की खबर आ रहीं थी। उसे याद करते हुए राकेश की मां सुशीला देवी, आज भी सिहर उठती हैं। उन्होंने कहा, " मैं उसे फिर कभी अपनी नज़रों से दूर नहीं भेजना चाहती। इच्छा तो यही है कि वह यहीं मेरे साथ गांव में रहें। "सुशीला देवी आगे कहती हैं, "लेकिन लगभग 12 लोगों के हमारे परिवार की देखभाल का जिम्मा अकेले इसके कंधों पर ही है।..." वह असहाय होकर अपने फैसले से खुद ही पीछे हट गईं।

जब पिछले साल महामारी की दूसरी लहर उठनी शुरू हुई, तो राकेश चेन्नई से घर वापस लौट आए थे। उन्हें यहां आकर आधी मजदूरी में गुजारा करना पड़ता है। उन्होंने कहा, "वहां, मैं एक दिन में 800 रुपये तक कमा लेता था और पूरे महीने काम रहता था। अगर मेरी किस्मत अच्छी रही तो गांव में मुझे लगभग 15 दिनों का काम मिल जाता है। लेकिन एक दिन में 400 रुपये से ज्यादा की कमाई नहीं हो पाती है। मुझे चेन्नई वापस जाना है। वहां मैं 2011 से हाउस पेंटर के रूप में काम कर रहा था। "

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"जब किस्मत साथ देती थी तो हमें ट्रकों में लिफ्ट मिल जाती थी, वरना बाकि समय तो पैदल चलकर रास्ता तय करते थे।"

मुन्ना अंसारी (30), जिन्होंने मुंबई से झारखंड के बारा डुमढ़ीर तक 2,100 किलोमीटर का सफर तय किया।

मई 2020 के तपते महीने में मुन्ना अंसारी मुंबई में अपने कार्यस्थल से झारखंड के गोड्डा जिले के अपने गांव बड़ा डुमढ़ीर के लिए पैदल चल पड़े। यह दुख, तकलीफ और डर से भरी 21,00 किलोमीटर का लंबा सफर था।

30 साल के दर्जी अंसारी ने गांव कनेक्शन को बताया,"जब कभी भाग्य साथ देता तो हमें ट्रकों में लिफ्ट मिल जाती थी, वरना बाकी समय तो पैदल चलकर रास्ता तय करते थे। कई बार तो रात भर पैदल चलते रहते थे।"

अंसारी ने अपना ये सफर पांच दिन और चार रातों में पूरा किया था। लेकिन ढाई महीने अपने गांव में बिना काम के बिताने के बाद वह फिर से मुंबई लौट आए।

वह कहते हैं, "हमारे गांव में कोई काम नहीं है। मनरेगा में भी नहीं है। मेरे पास कोई जमीन भी नहीं है, जिस पर खेती कर मैं अपना गुजारा कर सकुं। गांव में काम मिल भी जाए तो पैसे इतने कम मिलते हैं कि उसमें एक व्यक्ति का गुजारा चलना भी मुश्किल है।"

अंसारी मुंबई में 500 रुपये दिहाड़ी पर काम करते हैं और रात होने पर सिलाई मशीनों के पास ही सो जाते है। वह कहते हैं, " काम तो शुरू हो गया है। लेकिन लगातार काम मिलना मुश्किल हो रहा है। पिछले पूरे सप्ताह मेरे पास कोई काम नहीं था। " घर में 10 लोगों का परिवार है जिसकी पूरी जिम्मेदारी अंसारी के ही ऊपर है।

अंसारी के लिए कम पैसे वाली अस्थायी नौकरी ही परेशानी का एकमात्र कारण नहीं है। अंसारी धीरे से कहते हैं, "हाल ही में जब स्कूल फिर से खुले, तो पता चला कि फीस न भर पाने की वजह से मेरे बच्चों के नाम काट दिए गए हैं। मेरा सबसे बड़ा नुकसान सिर्फ रोजी-रोटी का नहीं है, बल्कि यह भी है कि मेरे बच्चों के नाम स्कूल से हटा दिए गए हैं, क्योंकि मैं उन्हें स्मार्टफोन नहीं दिला सका।"

उन्होंने अफसोस जताते हए कहा, "शिक्षकों ने बच्चों से कहा था कि अगर वे आगे पढ़ना चाहते हैं तो स्मार्टफोन खरीद लें। लेकिन, इनकी कीमत कम से कम दस हजार रुपए है। हमारे पास खाने के लिए तो पर्याप्त भोजन होता नहीं है, भला हम कैसे फोन खरीद सकते हैं? "

अंसारी ने कहा कि चूंकि वह कभी स्कूल नहीं गए थे, इसलिए अपने बच्चों को शिक्षित करना और उनके लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित करना उनका सपना था।

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"हमारे पास अपने दो साल के बच्चे के लिए दूध खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे, हमने बिना पैसे के रेलवे स्टेशन पर पांच दिन बिताए थे ।"

रेणु सिंह (30) अपने पति, छोटे बच्चे और स-ससुर के साथ चंडीगढ़ में रह रही थीं। जब स्टेशन पर भूखे मरने की नौबत आने लगी, तो उन्होंने अपने गहने बेचे और यूपी के हरदोई में अपने गांव वापस जाने के लिए एक वाहन किराये पर लिया।

उत्तर प्रदेश के हरदोई के बक्स खेड़ा गांव से रेणु, उनके 34 वर्षीय पति शुभम सिंह, उनके माता-पिता और उनके दो साल के बेटे को चंडीगढ़ आए हुए अभी चार महीने ही हुए थे, कि देश में लॉकडाउन की घोषणा हो गई।

रेणु और शुभम चंडीगढ़ में एक फैक्ट्री में बतौर वर्कर काम करते हुए, लगभग 25 से 30 हजार रुपये महीने कमा रहे थे। इन्हीं पैसों में से वे घर का किराया देते और अपना खर्च चलाते। पांच लोगों का उनका परिवार दोनों की नौकरी पर निर्भर था।

30 साल की रेणु ने गांव कनेक्शन को बताया, "हम वहां इस उम्मीद से रुके हुए थे कि चीजें सामान्य हो जाएंगी। लेकिन हमारी बचत खत्म होने लगी थी। और फिर हमने अपने गांव लौटने का फैसला किया।" प्रवासी मजदूर अपने गांव जाने के लिए सड़कों और स्टेशनों पर भीड़ लगाए गाड़ी के इंतजार में खड़े रहते थे। रेणु भी अपने परिवार के साथ स्टेशन पर इस उम्मीद में गई कि उन्हें भी उत्तर प्रदेश ले जाने वाली विशेष ट्रेन में जगह मिल जाएगी।

वह बताती हैं, "असली भयावहता तब शुरू हुई जब हमने पूरे पांच दिन स्टेशन पर ट्रेन के इंतजार में बिताए। हमारे पास पैसे नहीं थे, यहां तक ​​कि अपने बेटे के लिए दूध खरीदने के लिए भी नहीं।" रेणु याद करते हुए कहती है कि अगर कुछ सामाजिक कार्यकर्ता खाना बांटने के लिए वहां आ जाते तो हमें खाने के लिए मिल जाता था वरना भूखे ही रहना पड़ता था।

उन्होंने कहा कि हर दिन ट्रेन में चढ़ने के लिए भीड़ लगती थी। लेकिन वे ट्रेन में नहीं चढ़ सके।

वह बताती हैं, " हमारे पास जो भी थोड़े-बहुत गहने थे, हमनें उन्हें बेच दिया था। रिश्तेदारों से कुछ पैसे भेजने के लिए कहा और 30,000 रुपये में एक गाड़ी किराए पर ली।" वे 630 किलोमीटर की यात्रा करके अपने गांव पहुंचे। वहां लगभग सात महीने रहे, लेकिन अपनी आजीविका के लिए एक बार फिर से चंडीगढ़ लौटने के लिए मजबूर हो गए।

रेणु शांत भाव से कहती है, "गांव में हमारे लिए कोई काम नहीं था। न चाहते हुए भी हमें लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। "

पंकजा श्रीनिवासन द्वारा लिखित। मिर्जापुर (यूपी) से बृजेंद्र दुबे, सतना (मध्य प्रदेश) से सचिन तुलसा त्रिपाठी, सीतापुर (यूपी) से रामजी मिश्रा, कैमूर (बिहार) से अंकित सिंह, दिल्ली से सारा खान, हरदोई (यूपी) से वीरेंद्र सिंह और शिवानी गुप्ता की रिपोर्ट।

अंग्रेजी में पढ़ें

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