इस नदी के किनारे रहने वाले किसानों का दर्द ही कुछ और है ...
चंबल क्षेत्र में आने वाले राज्य यूपी, एमपी और राजस्थान में हजारो हेक्टेयर सब्जी की खेती चंबल के पानी से होती है। किसानों द्वारा जीतोड़ मेहनत से उगाई सब्जियों को कोरोनाकाल की वजह से बाजार भाव नहीं मिल सका।
Neetu Singh 7 Aug 2020 1:28 PM GMT
चकरनगर (इटावा)। चंबल नदी के किनारे रेतीली जमीन में छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर सब्जियां उगाने वाले सैकड़ों किसानो के लिए इस समय गुजारा करना भारी पड़ रहा है। चंबल क्षेत्र में आने वाले राज्य यूपी, एमपी और राजस्थान में हजारो हेक्टेयर सब्जी की खेती चंबल नदी के पानी से होती है।
चंबल नदी के किनारे सब्जी की खेती करना मतलब 24 घंटे खेत में डेरा डालना। किसानों द्वारा जीतोड़ मेहनत से उगाई सब्जियों को कोरोनाकाल की वजह से इस बार बाजार भाव नहीं मिल सका। देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान बाजार में सैकड़ों किसानों की लौकी और तोरई दो तीन रूपये किलो बिकी। कई बार ये सब्जियां इन्हें मजबूरन जानवरों को खिलानी पड़ीं या फेकनी पड़ीं। ऐसे में इनकी लागत तो दूर मेहनताना तक नहीं निकला। अब इन किसानों के सामने रोजमर्रा के खर्च चलाने का संकट है।
जून महीने के दूसरे सप्ताह की चिलचिलाती धूप में कोरोना फुट प्रिंट सीरीज में गाँव कनेक्शन की टीम चंबल से सटे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कई गांवों में गयी, जहाँ हर तबके से मिलकर कोरोनाकाल में उनकी मुश्किल समझीं, जिसमें चंबल के किनारे खेती करने वाले ये किसान महत्वपूर्ण थे।
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इटावा जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर चकरनगर ब्लॉक के सहसौ गाँव के रहने वाले दर्जनों किसान चंबल नदी के किनारे सब्जी की खेती करते हैं। जिस दिन ये क्यारियों में सब्जियों के बीज लगाते हैं उसी दिन खेत के एक कोने में इसकी रखवाली के लिए अपनी एक झोपड़ी बना लेते हैं। क्योंकि इनके सामने सबसे ज्यादा जंगली-जानवरों का संकट है जो इनकी जरा सी चूक पर पूरी फसल को नष्ट कर देते हैं। सब्जियों की देखरेख के लिए ये न केवल वहां झोपड़ी बनाते हैं बल्कि इन सब्जियों के चारो तरफ जंगल से कटीली झाड़ियां लाकर घेराव भी करते हैं।
उस दिन शाम के करीब पांच बजे दो बाल्टियों में चंबल नदी से पानी भरकर सत्य प्रकाश (46 वर्ष) सब्जियों की सिंचाई रोजमर्रा की तरह अपनी ही धुन में कर रहे थे। इतनी मेहनत कर रहे हैं, क्या इन सब्जियों की आमदनी से आपका खर्चा चल जाता है? अपना काम रोके बिना सत्यप्रकाश बोले, "इतने सालों से तो तीन चार महीने की इस सब्जी से हमलोग इतना कमा लेते थे कि पांच-छह महीने खर्चे के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ता था। लेकिन इस साल मत पूंछिये, लागत तो छोड़िए हमारी मेहनत की भी दिहाड़ी निकल जाती तो तसल्ली मिलती।"
यहाँ की खेती में बाकी जगहों की अपेक्षा क्या ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है? इस पर सत्यप्रकाश बोले, "जिस दिन खेत में बीज डाला, आप समझ लो उसी दिन से हमारा यहाँ ठिकाना हो जाता है। जंगली जानवरों की वजह से हम एक मिनट के लिए भी खेत नहीं छोड़ सकते। दिन के पांच छह घंटे इस चंबल से पानी भर-भरकर रोज इन सब्जियों को सींचना पड़ता है। जंगल से लकड़ी काटकर लाते हैं, एक हफ्ते तो चारो तरफ से सब्जी को आड़ (चारो तरफ से सब्जी के खेत का घिराव जिससे जानवर खेत में न आ सके) करने में लग जाते हैं।"
चंबल क्षेत्र में आने वाले तीन राज्य उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश और राजस्थान मिलाकर हजारो हेक्टेयर सब्जी की खेती चंबल नदी के पानी से होती है। तीन चार महीने की इस सब्जी की खेती में इन किसानों की इतनी आमदनी हो जाती है कि इनके जरूरी खर्चे पांच-छह महीने तक के पूरे हो जाते हैं। यहाँ के किसानों के लिए सब्जियां उगाना बाकी क्षेत्रों की अपेक्षा ज्यादा कठिन है।
इस वर्ष जब इन किसानों की सब्जी बिकने का सही समय आया उस समय देशव्यापी लॉकडाउन था जिस वजह से इन्हें सब्जी बाजार पहुँचाने का मौका नहीं मिला। स्थानीय स्तर पर दो तीन रूपये किलो में ये सब्जी बेचने को मजबूर हुए। कई बार इन्हें ये सब्जियां या तो फेकनी पड़ीं या फिर जानवरों को खिलानी पड़ीं क्योंकि जितना गाड़ी-भाड़ा लगाकर ये सब्जी बाजार लेकर पहुंचते वहां उस भाव में बिकी नहीं। किसानों का कई बार भाड़ा भी जेब से जाता इसलिए वो सब्जी जानवरों को खिलाना बाजार जाने से ज्यादा बेहतर समझते।
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सब्जियों का भाव न मिलने से परेशान किसान राजबहादुर (45 वर्ष) ने अपनी लौकी जानवरों को खिला दी। राजबहादुर बताते हैं, "अगर सब्जी हम बाजार लेकर जाते हैं तो गाड़ी का 700 रूपये भाड़ा पड़ता है और लौकी बाजार में 400 रूपये की दस कुंतल के भाव में बिकती। इससे अच्छा है कि हम सब्जी जानवरों को खिला दें। इस बार लॉकडाउन का सब्जियों पर ऐसा असर पड़ा है जिसका दर्द सिर्फ एक किसान ही समझ सकता है।"
चंबल नदी के किनारे ये किसान हर साल नवंबर दिसंबर से सब्जी बुवाई का काम शुरू कर देते हैं। मार्च के दूसरे सप्ताह तक ये सब्जियां बाजार में पहुंचने लगती हैं। मार्च से लेकर मई तक इनकी सब्जियां रोजाना बाजार में बिकने जाती हैं। जून आख़िरी होते-होते ये सब्जियां खत्म होने लगती हैं। इस वर्ष इनकी सब्जी बिकने के समय ही लॉकडाउन हो गया, अब इनके सामने रोजमर्रा के खर्चे चलाने की जद्दोजहद है।
सब्जी की रखवाली कर रहे अमित सिंह (28 वर्ष) ने बताया, "हम रांची में एक प्राईवेट फैक्ट्री में काम करते थे, लॉकडाउन में घर आये तो इन सब्जियों की देखरेख करने लगे। नौकरी भी नहीं और सब्जी से कोई आमदनी नहीं हुई, पूरा साल कैसे कटेगा इसका जवाब चंबल के किसी किसान के पास नहीं मिलेगा।"
चंबल के किसान कोरोनाकाल को अपने ऊपर दोहरी मार बता रहे हैं पहला इनकी सब्जियों का बाजार में भाव न्हेने मिला जिससे इनकी रोजी-रोटी चलती है, दूसरा जो लोग कमाने गये थे और हर महीने बाहर से घर खर्च के लिए पैसे भेजते थे वो भी वापस आ गये हैं। आमदनी का इस क्षेत्र में कोई श्रोत नहीं है जिस वजह से ये किसान चिंतित हैं।
बीन्स तोड़ रहीं ज्ञानवती (65 वर्ष) बताने लगी, "साल में एक बार ही इन सब्जियों से आमदनी होती है जिससे परिवार का खर्चा चलता है। बाढ़ की वजह से बरसात में खेती नहीं हो पाती और पानी की किल्लत की वजह से रवी की फसल नहीं हो पाती। चंबल में इंजन लगाकर सिंचाई नहीं कर सकते, तभी बाल्टी भरकर रोज सब्जियों की सिंचाई करनी पड़ती है। इस साल तो मुश्किल ही मुश्किल है, हम लोग कोरोना से कभी नहीं मरेंगे, अगर मरेंगे तो भूख से।"
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