ग्राउंड रिपोर्टः "हर साल उजड़ना-बसना हमारी नियति"
Daya Sagar 1 May 2019 4:40 AM GMT

रिपोर्ट- दया सागर/ अरविंद शुक्ला
लखीमपुर ( उत्तर प्रदेश)। लखीमपुर जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित फूलबेहड़ ब्लॉक का गूम गांव। शारदा नदी के किनारे बसे इस गांव में जिले की एक मुख्य सड़क अचानक से खत्म हो जाती है। वह सड़क जो जिला मुख्यालय को जिले के मुख्य कस्बे निघासन से जोड़ती है। लेकिन नदी पर कोई पुल नहीं होने की वजह से गुम और निघासन के बीच की 20 किलोमीटर की दूरी लगभग 50 किलोमीटर लंबी हो जाती है।
फूलबेहड़-निघासन मार्ग पर पड़ता गूम गांव, यहां पर नदी तो है लेकिन पुल नहीं है
21 अप्रैल, 2019 दिन रविवार को गांव कनेक्शन की टीम जब गूम गांव पहुंची तो निघासन कस्बे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की चुनावी जनसभा होने वाली थी। पास हो रहे सीएम के इस जनसभा के लिए गांव के लोग कतई उत्साहित नहीं दिखे। हालांकि खत्म हो रही इस सड़क पर जिले के एक अधिकारी की गाड़ी जरूर दिखी जो मुख्यमंत्री की सभा में ड्यूटी देने के लिए निघासन जा रहे थे। घाट पर बैठे गांव के लोगों ने अधिकारी को वैकल्पिक रास्ता दिखाया, जो निघासन की तरफ निकलता है।
गूम गांव के अलावा इस इलाके के आस-पास के लगभग दर्जन भर गांव शारदा नदी की कटान और बाढ़ से प्रभावित हैं। भूसियाना, पसियाना, बेहड़ा सूतिया, बेहरन पुरवा, अहिराना, बुढ़ियाना, मानपुर, बेचनपुरवा, प्रहलादपुरवा आदि ऐसे गांव हैं जहां के हजारों लोग इससे प्रभावित होते हैं और हर साल बसते-उजड़ते हैं।
नदी के घाट पर लोगों को सही रास्ता बताने वाले गूम गांव के रामनारायण (72) कहते हैं, "हमारी तो उमर बीत गई लोगों को रास्ता दिखाते-दिखाते। उम्मीद थी कि उमर के इस पड़ाव पर आते-आते यह सब खत्म हो जाएगा लेकिन कुछ नहीं हुआ। पुल और बांध नहीं होने की वजह से यहां के लोगों की जिंदगी बहुत ही कठिन बनी हुई है। शारदा नदी पहले गांव से दूर बहती थी लेकिन काटते-काटते यहां तक आ गई है। आप ही लोग देखिए। हम लोग का अब खेत-खलिहान भी कट रहा है। कई खेत तो नदी के बीच में है जहां तक पहुंचना ही हमारे लिए टेढ़ी खीर है।" रामनारायण आगे बताते हैं, "पहले यहां पर पक्का पुल था, जो निघासन की तरफ जाता था लेकिन नदी की कटान की वजह से पक्का पुल भी बह गया। उसके बाद से कभी पुल नहीं बना।" गांव कनेक्शन की टीम ने जब गूगल मैप पर चेक किया तो पुल वहां पर दिखा रहा था जबकि हकीकत में वहां पर कोई पुल नहीं था।
दरअसल शारदा नदी के कटान की वजह से गांव का एक बड़ा हिस्सा नदी के बीच में आ गया है। शारदा नदी कटान करते करते कई धाराओं में बट जाती है। जिस धारा में ज्यादा पानी होता है उधर ही कटान करने लगती है। मुख्य नदी और कटी हुई नदी के बीच के हिस्से में गांव के सैकड़ों लोगों के खेत हैं। अभी गेहूं की कटाई का सीजन है और इलाके के लोग पैदल या नाव से नदी पार कर अपने खेतों में जाते हैं। हालांकि बारिश और बाढ़ के समय ऐसा करना भी संभव नहीं होता।
"दो साल पहले नदी कटते-कटते उनके घर के पास आ गई थी। घर का एक हिस्सा कट गया। बाकी का न जाने कब पानी में चला जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। खेत पहले ही नदी में जा चुका है।" बुजुर्ग कैलाशी देवी गांव कनेक्शन को बताती है। वो कुछ देर पहले ही शारदा नदी की सहायक धाराओं को पैदल पार कर बेहड़ा सूतिया गांव पहुंची थीं।
बेड़हा सूतिया गांव के प्रधान पति और पेशे से वकील तेज लाल निषाद बताते हैं, "पहला हमारा गांव बहुत चौड़ा था। 2500 से ऊपर की जनसंख्या थी लेकिन बाढ़ और कटान की वजह से कई लोगों को बेघर होना पड़ा। गांव का 60 प्रतिशत हिस्सा नदी में ही कट गया। कुछ लोगों को तो सहायता मिली लेकिन कई लोग अभी भी बंधे के किनारे जिंदगी गुजर-बसर करने पर मजबूर हैं।"
गूम गांव की एक महिला सावित्री बताती हैं, "बाढ़ के वक्त सबसे पहले हम लोग छत पर जाते हैं। जब पानी और बढ़ जाता है तो बंधे पर जाते हैं। अगर बंधे पर भी नहीं बसेरा बन पाता है तो रिश्तेदारों के वहां शरण लेनी पड़ती है। इस तरह हमारा आधा साल तो इधर-उधर उजड़ने और बसने में बीत जाता है। उजड़ना-बसना तो हमारी नियति बन गई है।"
पुल और बांध पर होने वाली राजनीति से हैं इलाके के लिए क्षुब्ध
इस इलाके के लोग पुल और बांध के नाम पर होने वाली राजनीति से नाराज दिखाई दिए। ग्रामीणों ने बताया लखीमपुर खीरी लोकसभा सीट पर कांग्रेस, सपा और बीजेपी तीनों पार्टियों के नेता सांसद रह चुके हैं लेकिन कोई भी उनकी सुध लेने वाला नहीं है। चुनाव के समय सभी पार्टियों के नेता आते हैं और बांध व पुल बनाने की बात करते हैं। लेकिन चुनाव जीतने-हारने के बाद कोई भी नेता इन गांवों को देखने नहीं आता।
बाढ़ प्रभावित इलाके में नदी के दोनों तरफ कई किलोमीटर दूर बांध बने हैं। जिन्हें इस बार पक्का भी किया जा रहा है। बांध बनने से बाकी हिस्से तो बाढ़ से बच गए लेकिन इन बाधों के बीच आने वाले गांवों की मुसीबत बढ़ गई। गांव के लोग चाहते हैं प्रभावित गांव के करीब तटबंध बनाए जाएं, ताकि कटान रुक सके।
तेज लाल निषाद के मुताबिक वो लोग बाढ़ से नहीं कटान से परेशान हैं। इस समस्या का वो उपाय भी बताते हैं, "शारदा नदी की मुख्य समस्या बाढ़ नहीं बल्कि इसकी कटान है और कटान को नदियों में जमी सिल्ट और गाद को बाहर निकाल कर ही संभाला जा सकता है। सरकार को नदियों के आपस में जोड़ने की परियोजना पर भी काम करनी चाहिए ताकि किसी एक नदी में पानी की मात्रा अधिक ना हो और संतुलन बना रहे।"
क्या है मोदी सरकार की नदी जोड़ो परियोजना का हाल?
नदी जोड़ो परियोजना का अस्तित्व सबसे पहले 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में आया था। इस परियोजना के अनुसार, 'भारत का एक हिस्सा जहां बाढ़ से प्रभावित रहता है, वहीं दूसरा हिस्सा उसी समय सूखे के प्रकोप में भी रहता है। इसलिए नदियों को जोड़े जाने की जरूरत है ताकि नदियां एक दूसरे की पूरक बनी रहे और संतुलन बना रहे।'
हालांकि यह योजना कभी भी जमीन पर नहीं आ सकी। नरेंद्र मोदी 2014 में जब प्रधानमंत्री बने तो फिर से इस योजना की चर्चा हुई। लेकिन पिछले पांच सालों में इस पर कोई गंभीर कार्य नहीं हो सका है। राज्य सरकारों के बीच पानी के बंटवारे को लेकर मतभेद थे और सरकार को अलग-अलग विभागों से मंजूरी लेने में भी काफी वक्त लगा। हालत यह है कि इस परियोजना के तहत महत्वाकांक्षी 'केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट' अभी तक नहीं शुरू हो पाई है। कहा जा रहा था कि इस प्रोजेक्ट से बुंदेलखंड के सूखा प्रभावित क्षेत्रों को राहत मिलेगी। लेकिन मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारों के बीच इसको लेकर कोई समझौता नहीं हो पाया, जबकि दोनों जगह पर लंबे समय तक एक ही पार्टी की सरकार थी।
हालांकि कुछ पर्यावरणविदों ने भी नदी जोड़ने की इस परियोजना का विरोध किया है। इनका मानना है कि यह प्रकृति विरूद्ध है और यह बाढ़ और सूखे का कोई स्थायी समाधान नहीं है।
भारत में बाढ़ के भयानक आंकड़ें
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के जुलाई, 2018 के एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल औसतन लगभग 1650 लोगों की मृत्यु बाढ़ की वजह से होती है। इसके अलावा लाखों लोग बाढ़ और नदियों की कटान की वजह से प्रभावित, विस्थापित और बेघर होते हैं।
हर साल आने वाली यह बाढ़ सिर्फ मनुष्यों नहीं पशुओं को भी प्रभावित करती है। बाढ़ से हर साल लगभग एक लाख पालतू पशु अपनी जिंदगी खो देते हैं। वहीं औसतन 1.680 करोड़ की फसलें हर साल बाढ़ की वजह से नष्ट होती हैं। पूरे देश में उत्तर प्रदेश में बाढ़ का प्रकोप सबसे ज्यादा होता है। गंगा, कोसी, दामोदर, राप्ती, गंडक और घाघरा जैसी नदियां यहां तबाही मचाती हैं। इसके बाद बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र केरल और पूर्वोत्तर राज्यों का स्थान आता है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बाढ़ से होने वाली मौतों में से 20 फीसदी भारत में ही होती है। इस रिपोर्ट में चेतावनी भी है कि भारत आने वाली सदी में भी बाढ़ से सबसे प्रभावित देश रहेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार कोलकाता और मुंबई जैसे महानगर भी आने वाले सालों में बाढ़ से प्रभावित रहेंगे। इस रिपोर्ट के अनुसार, "पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में तापमान बढ़ रहा है और यह अगले कुछ दशकों तक लगातार बढ़ता रहेगा। जलवायु परिवर्तन की वजह से देश में बाढ़ की स्थिति और विकराल होगी। इसकी वजह से बार-बार बाढ़ आएगी और पीने के पानी का अभाव रहेगा और कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा होंगी।"
इंडिया स्पेंड ने एक साइंस जर्नल में छपे अध्ययन के आधार पर कहा था कि वर्ष 2040 तक देश के ढाई करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित होंगे।
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