आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओड़िशा से हो रही है मोटे अनाज की वापसी

Alok Singh BhadouriaAlok Singh Bhadouria   16 Feb 2018 5:25 PM GMT

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आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओड़िशा से हो रही है मोटे अनाज की वापसीपिछले कुछ समय में दक्षिण भारत के प्रदेशों में मोटे अनाजों का चलन फिर से बढ़ा है

क्या आप भरोसा करेंगे कि जिस अनाज को आपके पूर्वज पिछले साढे छ: हजार वर्षों से खा रहे थे आज से 50 साल पहले आपने उससे ऐसा मुंह फेरा कि उसका नाम तक भूल गए। जी हां, हम बात कर रहे हैं मोटे अनाज की। मोटा अनाज मतलब ज्वार, बाजरा, रागी, सवां, कोदों और भी बहुत कुछ जिनमें से कुछ की किस्में तो हमेशा के लिए खत्म हो गईं।

जानकार बताते हैं कि चार वेदों में से एक यजुर्वेद में कई किस्म के मोटे अनाजों का जिक्र प्रियंगव, आणव, श्यामका नाम से हुआ है। लगभग 50 साल पहले तक मध्य और दक्षिण भारत व देश के पहाड़ी इलाकों में इसी मोटे अनाज की खेती होती थी। तब ग्रामीण अंचलों में उपज का अधिकांश भाग परिवार के पोषण में काम आता था जो सरप्लस होता था उसे बाजार में बेचकर दूसरी जरूरतें पूरी होती थीं। फिर विकास का आधुनिक युग आया और खाद्य सुरक्षा और हरित क्रांति जैसे आंदोलनों ने गेहूं, चावल को सबकी चहेती फसलों के तौर पर मशहूर कर दिया। एक आंकड़े के मुताबिक, हरित क्रांति से पहले देश में उगने वाले अनाजों का 40 फीसदी हिस्सा मोटे अनाज होते थे। हरित क्रांति के बाद चावल का उत्पादन दोगुना और गेहूं का तीन गुना हो गया, जबकि मोटे अनाज को गरीबों का भोजन मान कर हेय दृष्टि से देखने की परंपरा शुरू हो गई।

वेबसाइट डाउन टु अर्थ के मुताबिक, ओड़िशा के आदिवासी इलाकों में मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के काम में लगे दिनेश बालम कहते हैं, मोटे अनाज बहुत विविधतापूर्ण और पोषण से भरपूर होते हैं। इन पर मौसम में होने वाले बदलावों का भी बहुत ज्यादा असर नहीं होता। इस लिहाज से ये देश के सूखाग्रस्त इलाकों के लिए सबसे अच्छा विकल्प हैं। लेकिन पिछले 60 बरस में हमारी कृषि नीति पूरी तरह गेहूं और चावल पर केंद्रित रही, मोटे अनाजों की उपेक्षा हुई। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जनता को कम कीमत पर गेहूं-चावल मुहैया कराने और पोषकता कार्यक्रमों ने लोगों के खानपान की आदतों में इतना बदलाव किया कि वे मोटा अनाज भूलकर गेहूं या चावल पर निर्भर हो गए। व्यवस्था की इसी उपेक्षा का नतीजा है कि आज मोटा अनाज खेतों के साथ-साथ हमारी थाली से भी गायब हो गया है।

लेकिन पिछले कुछ समय में दक्षिण भारत के प्रदेशों में मोटे अनाजों का चलन फिर से बढ़ा है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओड़िशा में रोजमर्रा के खानपान में मोटे अनाजों को फिर से शामिल करने के लिए अभियान शुरू हुए हैं। यहां पर शुरू किए गए पायलट प्रोजेक्ट में आंगनवाड़ी में आने वाले बच्चों को चावल की जगह मोटे अनाजों पर आधारित भोजन दिया जा रहा है। इसी तरह आंध्र प्रदेश के कृषि विभाग ने अपने राज्य के सूखाग्रस्त इलाकों में जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग योजना के तहत फिर से मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा देने की पहल की है।

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आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले के गुंडुमाला गांव के एक किसान हैं चिक्कामालप्पा। वह पिछले दो वर्ष से .60 हेक्टयेर जमीन पर रागी उगा रहे हैं। इससे उन्हें दो फायदे होते हैं, एक तो परिवार के लिए पोषक भोजन मिल जाता है वहीं बची हुई फसल को बेच कर उन्हें 70 हजार रुपये भी मिल जाते हैं। चिक्कामालप्पा कहते हैं, पोषण की दृष्टि से रागी बहुत अच्छी फसल है। रागी के पाउडर को दूध में मिलाकर बच्चों को खिलाया जाता है। इसके लड्डू और रोटियां भी बनाई जाती हैं।

वेबसाइट इंडियास्पेंड के अनुसार, गेहूं और धान की तुलना में मोटे अनाजों को कम संसाधनों की जरूरत होती है। मसलन, बाजरा और रागी को धान की तुलना में एक तिहाई पानी की जरूरत होती है। मोटे अनाज खराब मिट्टी में भी अच्छी तरह उग सकते हें। मोटे अनाज जल्दी खराब नहीं होते। देश का 40 फीसदी खाद्यान्न बेहतर रखरखाव के अभाव में नष्ट हो जाता है, जबकि मोटे अनाज उगने के 10 से 12 वर्ष बाद भी खाने योग्य बने रहते हैं। इसके अलावा ये मैग्नीशियम, विटामिन बी3 और प्रोटीन से भरपूर होने के साथ ग्लूटन फ्री होते हैं। इस लिहाज से ये शुगर के रोगियों के लिए आदर्श भोजन साबित हो सकते हैं। इनके इसी गुण की वजह से इन्हें अब सुपर फूड के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

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ये अच्छी बात है कि मोटे अनाजों की तरफ नीति निर्माताओं का ध्यान फिर से गया है। केंद्र सरकार ने स्कूलों में मिड डे मील में ज्वार, बाजरा और रागी जैसे मोटे अनाजों को शामिल करने का प्रस्ताव भी रखा है। मोटे अनाज को भारत की पोषण सुरक्षा के साथ जोड़कर देखा जाने लगा है। भारत सरकार ने वर्ष 2018 को राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष घोषित करने के साथ ही संयुक्त राष्ट्र से आग्रह किया है कि वह जागरुकता फैलाने के लिए 2018 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाए।

लेकिन मोटे अनाजों के प्रोत्साहन और इस्तेमाल में भी सावधानी की जरूरत है। हर मोटे अनाज की अपनी खासियत होती है। उदाहरण के लिए ज्वार जैसे मोटे अनाज पोटेशियम और फॉस्फोरस का भंडार होते हैं, वहीं रागी में कैल्शियम ज्यादा होता है, कांगनी में रेशे ज्यादा होते हैं पर कोदों में आयरन अधिक होता है। इसलिए इनसे लाभ पाने के लिए इन्हें बदल-बदल कर खाना चाहिए। इसके अलावा एक से ज्यादा मोटे अनाज को मिलाकर नहीं खाना चाहिए वरना इनके पाचन में दिक्कत होती है।

कुल मिलाकर मोटे अनाज को प्रचारित करने के लिए संतुलित सरकारी नीति की जरूरत है। साथ ही जनता को भी इसके लाभ के बारे में बताना है तभी देश इनका सही मायनों में लाभ उठा पाएगा।

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