क्या आपने नीली मूंगफली और गुलाबी भिंडी के बारे में सुना है ?

Astha SinghAstha Singh   20 Jan 2018 9:19 AM GMT

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क्या आपने नीली मूंगफली और गुलाबी भिंडी के बारे में सुना है ?गुलाबी भिंडी और नीली मूंगफली। 

आपने पीली लाल आलू, शिमला मिर्च,लाल मक्का,लाल शिमला मिर्च जैसी सब्जी तो खाई होगी और बड़े-बड़े होटलों में और भी महंगी सब्जियां भी खाई होंगी।पर क्या आपने नीला मक्का ,बैंगनी, सफेद और गुलाबी भिंडी, नीली मूंगफली, गोल खीरे, बांग्लादेशी बैंगन खाएं हैं?

जी हां, बेंगलुरू में तकरीबन ढाई एकड़ में फैले डॉ. प्रभाकर राव का फार्म ऐसे ही अनगिनत वनस्पतियों के साथ ही विदेशी एवं दुर्लभ किस्म के अनेकों वनस्पतियों का खजाना समेटे हुए है। आप उनसे बात करेंगे तब आपको पता चलेगा कि इन वनस्पतियों में से आधिकांश अब भारत में उपलब्ध नहीं हैं।

डॉ प्रभाकर राव अपने फार्म पर लोगों के साथ।

डॉ राव ने गाँव कनेक्शन से बातचीत में बताया कि,"हर साल लगभग हज़ार तरह के सब्जी और औषधीय पौधों के बीज विलुप्त हो रहें हैं ।"

वनस्पति प्रजनन और आनुवांशिकी में पीएचडी साठ वर्षीय डॉ राव ने कई वर्षों तक दुनिया भर में घुम घुम कर सब्जियों की संकटग्रस्त एवं दुर्लभ किस्म के बीजों को एकत्रित किया। पेशे से वास्तुविद् और जुनून से किसान डॉ राव सन 2011 में अपनी सेवानिवृति के बाद दुबई से भारत लौट आए।

अलग तरह के बीज

आज इनके पास आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के सीमा पर उगाई जाने वाली सेब के आकार की और नींबू का स्वाद लिए गोल खीरा दोसाकई, जापान में पाया जाने वाला बैंगनी रंग का कामो, यूरोपीय देश मोलदीवा में पाए जाने वाली जड़ी बूटी ,जिस पर लैवेंडर और नींबू मिश्रित सुगंध लिए फूल खिलते हैं, अविश्वसनीय मीठी गोल मीर्च सहित लुप्तप्राय हो चुके तकरीबन 560 संकटग्रस्त सब्जियों एवं वनस्पतियों का जखीरा मौजुद है।

डॉ. राव बताते हैं, “पिछले बीस सालों में हम जो सब्जियां खाते हैं उनके प्रजातियों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यह इसलिए है क्योंकि मूल सब्जियां देशी या स्वदेशी किस्म की होती थीं, जिनका उपयोग करके किसान हर सीजन अपने स्वयं का बीज निकाल सकता था।"

नीचे देखें अलग अलग रंगों की सब्जियां

बीज कंपनियों का मॉडल

डॉ राव आगे कहते हैं कि ,"दरअसल बीजों की कंपनियों का आज का व्यापार मॉडल ऐसा है कि बीज खरीदने के लिए किसान को हर सीजन में उनके पास जाना ही जाना है।" बीज कंपनियों के बारे वो कहते हैं, “कंपनियां ऐसे बीजों का उत्पादन करती हैं जो उनके लिए लाभप्रद है। इसलिए आज हम जो सब्जियां खाते हैं उनमें से 90 फीसदी सब्जियों संकर प्रजाति की हैं। परिणाम स्वरूप प्रत्येक साल तकरीबन देशी सब्जियों की सैकड़ों प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाती हैं”।

कंपनियों के इस फर्जीवाड़े को समझने के बाद डॉ राव शांत नहीं बैठे। उन्होंने अंतरर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल सीड सेवर्स एक्सचेंज के साथ मिलकर इससे निपटने के मुहिम शुरू कर दी। इंटरनेशनल सीड सेवर्स एक्सचेंज दुनिया भर में व्यक्तियों का एक स्वैच्छिक निकाय है जो लुप्तप्राय सब्जियों के बीज इकठ्ठा करता है और आपस में साझा करता है।

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भारत लौटने के बाद बीज संरक्षण करना शुरू किया

डॉ राव बताते हैं, " मैंने भारत लौटने के बाद अपने पास जमा किए गए बीजों को भारतीय परिस्थितियों में खेती कर उन बीजों का परीक्षण करना शुरू किया कि इकठ्ठा किए गए बीजों में से कितने बीज भारतीय परिस्थितियों में खेती के अनुकूल हैं।"

आगे बताते हैं, " इस परीक्षण में मैंने जमा किए गए बीजों में से 142 प्रजातियों के बीजों को भारतीय जलवायु के अनुकूल करने में सफलता पाई। इन्हीं 142 बीजों की मदद से उन्होंने हरियाली सीड्स की शुरूआत की।"

इस फर्म के जरिए उनका पूरा परिवार दुनिया भर से विलुप्त प्राय प्रजातियों के बीजों को इकठ्ठा करके उन्हें किसानों को उपलब्ध कराता है।

हरियाली सीड्स की शुरुआत

डॉ राव बताते हैं, "हरियाली में उपलब्ध बीजों में से अधिकांश विदेशी नस्ल के हैं और आम तौर पर आज एक उत्पाद के तौर पर ये बाजार में उपलब्ध नहीं हैं। शुरूआत के कुछ साल मैंने इन बीजों से स्वयं उत्पादन लेकर उनका स्टॉक इस हद तक अपने पास बढ़ाया ताकि मैं इन बीजों को किसानों और माली को बेच सकूं।" उन्होंने कुछ किसानों को ये बीज मुफ्त भी उपलब्ध कराए। इस पूरे आयोजन के पीछे उनका तर्क ये था कि अगर इन बीजों को किचन गार्डन में ही सही लगाया जा सके तो पूरी तरह से विलुप्त होने के खतरे के विपरीत कम से कम दुनिया के किसी कोने में ही सही इनकी खेती होती रहेगी।

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किसानों तक सीधे बीज पहुंचाना ही लक्ष्य

हरियाली से किसी किसान को बीज एक बार ही खरीदना होता है क्योंकि अगली बार के लिए बीज का उत्पादन किसान स्वयं कर सकता है। डॉ. राव बताते हैं, “देशी प्रजातियों की वनस्पतियां हमारे जीवन में अहम भूमिका निभा सकती हैं। ये प्रजातियां जलवायु परिवर्तन का मुकाबला कर सकती हैं,सूखे के हालात एवं रोग और कीटों से स्वयं लड़ने में सक्षम हैं। सबसे बढ़कर बीजों की ये प्रजाति जैविक खेती पद्धति के अनुकूल हैं। इनको लेकर इनसे संकरित बीज या आनुवांशिक रूप प्रसंस्कृत बीज तैयार करने की बजाए ये बुद्धिमतापूर्ण होगा कि हम इनकी ही खेती फिर से शुरू करें।"

बीज खरीदने की प्रक्रिया

बीज खरीदने की प्रक्रिया के बारे में डॉ राव बताते हैं कि ,"दुनिया में कुछ जगहें ऐसी हैं जहां से आप इस तरह के पुराने बीज प्राप्त कर सकते हैं। ये स्थान मध्य एशिया, दक्षिण अमेरिका, मलेशिया, दक्षिणपूर्वी एशियाई देश और चीन के कुछ दूरस्थ इलाकों में है। इन जगहों पर आपको पुरानी पीढ़ी के उन किसानों को खोजना पड़ता है जिनके पास विशिष्ट प्रकार के बीज हों।”

उदाहरण के लिए बंग्लादेश में कभी बैंगन की एक प्रजाति उगाई जाती थी जो पिछले पंद्रह सालों से बाजार में नजर नहीं आता है। ये बैंगन रंग और आकार में विशिष्ट था और बिरयानी में इसका इस्तेमाल होता था। डॉ राव कहते हैं, “मैं पश्चिम बंगाल की यात्रा पर था जब मैंने कुछ बुजुर्ग किसानों से इसके बारे में बात की, उनमें से एक ने मेरे हाथ में इस बैंगन के कुछ सूखे बीज रख दिए। आज मेरे पास इस प्रजाति के बैंगन की कम से कम एक हजार बीज हैं।"

आज वो अपने फार्म पर लोगों को निमंत्रित कर उन्हें बीजों के बारे में बताते हैं और इन बीजों की खेती की तकनीक से उन्हें वाकिफ कराते हैं। अमेरिका से लौट कर उनका बेटा भी उनके फार्म में हाथ बंटाने लगा। इसके साथ ही तीन अन्य लोग भी उनके फार्म पर काम करते हैं। डॉ राव कहते हैं, " जब मैं भारत लौटा तो मेरा विचार था कि मैं अपने पेशे से मुक्त होकर वो काम करूंगा जो मैं पसंद करता हूं। देशी बीजों की खेती कर उसे सीधे किसानों तक पहुँचाना ही अब लक्ष्य है ताकि आने वाली पीढ़ियों को हर तरह के पौधे देखने को मिले।"

(डॉ प्रभाकर से सीधे बीज खरीदने के लिए उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।)

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