छत्तीसगढ़: किसान आंदोलन के समर्थन में आए आदिवासी, बस्तर से शुरू हुईं पंचायतें

दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन के 4 महीने पूरे हो गए हैं। इस बीच छत्तीसगढ़ में आदिवासी किसानों के समर्थन में आदिवासी पंचायतें कर रहे हैं। आदिवासी नेताओं का कहना है अगर कॉरपोरेट को खुली छूट मिली तो खेती का वही हाल होगा जो छत्तीसगढ़ में वन संसाधनों की हो रहा है, इसलिए विरोध जरुरी है।

Shirish KhareShirish Khare   26 March 2021 1:16 PM GMT

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छत्तीसगढ़: किसान आंदोलन के समर्थन में आए आदिवासी, बस्तर से शुरू हुईं पंचायतें

छत्तीसगढ़ के कई जिलों में छोटे स्तर पर आदिवासी पंचायतें कर किसान आंदोलन को समर्थन कर रहे हैं। फोटो-  अरेंजमेंट

केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन को अब छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसानों का समर्थन मिल रहा है। यहां पिछले कुछ दिनों से आदिवासी किसानों द्वारा छत्तीसगढ़ किसान सभा, छत्तीसगढ़ किसान आंदोलन और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन सहित लगभग दो दर्जन जन-संगठनों के नेतृत्व में कृषि कानूनों को रद्द करने और किसानों को उनकी उपज पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की कानूनी गारंटी देने की मांग को लेकर जगह-जगह पंचायतों का आयोजन किया जा रहा है।

आदिवासी किसान पंचायतों की शुरुआत 15 मार्च को बस्तर जिले के दरभा में आयोजित पंचायत से हुई। इसके बाद 18 और 19 मार्च को जशपुर जिले के पत्थलगांव और कोरबा जिले के मड़वाढोढ़ा गांव में आदिवासी किसान पंचायतों का आयोजन किया गया। किसान नेताओं के मुताबिक छत्तीसगढ़ में अलग-अलग स्थानों पर बीस से अधिक आदिवासी किसान महापंचायतों का आयोजन किया जाएगा।

छत्तीसगढ़ किसान सभा के राज्य संयोजक संजय पराते के मुताबिक छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या आदिवासी किसानों की है जो एक बड़े मैदानी और वनांचल में खेती कर रहे हैं और जिन्हें वनाधिकार कानून के तहत पिछले कई सालों में जमीन के पट्टे मिले हुए हैं।

संजय पराते कहते हैं, "केंद्र के कृषि कानूनों के लागू होने पर उनका दुष्प्रभाव देश भर के किसानों पर ही पड़ेगा और राज्य के किसान भी इससे अछूते नहीं रह पाएंगे। आज भले ही छत्तीसगढ़ में किसानों से उनकी उपज की खरीदी एमएसपी पर की जा रही हो, लेकिन खुली बाजार व्यवस्था में यदि सरकारी संरक्षण हट गया तब कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में भी किसानों को उनकी उपज पर एमएसपी मिले ही। इसलिए हम राज्य भर में किसान आंदोलन कर रहे हैं।"

छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसान राष्ट्रपति को सामूहिक-पत्र लिखकर केंद्र के कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग करेंगे। फोटो साभार: छत्तीसगढ़ किसान सभा

महापंचायतों की बजाय छोटी पंचायतें

कोरबा जिले के मड़वाढोढ़ा गांव के किसान जवाहर सिंह कंवर मानते हैं कि राज्य के परंपरागत किसानों की स्थिति अच्छी नहीं है और न ही यहां के किसानों को जानकारी है कि नए कानूनों से उन्हें क्या नुकसान होंगे। इसलिए यहां मौजूदा किसान आंदोलन के समर्थन में बड़ा विरोध-प्रदर्शन नहीं हो पाया है।

कंवर कहते हैं, "सबसे पहले तो गांव-गांव पहुंचकर किसानों को जागरूक बनाने की जरूरत है। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि नए कानून आए तो उनकी हालत और ज्यादा खराब होगी। इसलिए हर जिले को ध्यान में रखकर छोटी-छोटी पंचायतें की जानी चाहिए, जिसमें पांच से दस गांव के लोग जुट सकें। इससे स्थानीय स्तर पर किसान नेता लोगों तक सीधे पहुंचेंगे और उनसे सीधी बात हो सकेगी। तभी आगे जाकर किसान आंदोलन के समर्थन में बड़ी रैली हो सकेगी।"

आदिवासी किसान पंचायतों के स्वरूप को लेकर छत्तीसगढ़ किसान आंदोलन के संयोजक सुदेश टीकम कहते हैं, "राज्य में बड़ी महापंचायत कराने को लेकर एक समस्या है कि यह पूरा क्षेत्र अभावग्रस्त है जहां किसानों के पास उतना पैसा नहीं है कि वे बड़े आयोजन करा सकें। फिर भी छोटी-छोटी लेकिन अधिक से अधिक पंचायतों को कराने की कोशिश की जा रही है।"

छत्तीसगढ़ किसान आँदोलन के संयोजक टीकम के मुताबिक "आने वाले दिनों में राजनांदगांव, रायपुर, धमतरी और बालौद से लेकर रायगढ़ आदि जिलों में बड़े स्तर पर किसान पंचायतों को कराने की तैयारी की जा रही है। इसके लिए किसानों के अलावा मजदूरों, छात्रों, छोटे व्यापारियों और कर्मचारियों से भी सहयोग मांगा जा रहा है। हम सार्वजनिक अपील करके आम लोगों को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। निश्चित तौर पर यह एक बड़ा आंदोलन बनेगा।"

संजय पराते भी सुदेश टीकम की बातों का समर्थन करते हैं। पराते के मुताबिक आदिवासी किसान पंचायतों को धीरे-धीरे जनता की तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी।

पराते बताते हैं, "दरभा की पंचायत में महज सौ लोग आए थे, लेकिन पत्थलगांव की पंचायत में यह संख्या पांच सौ के पार हो गई और उसके बाद मड़वाढोढ़ा की पंचायत में यह संख्या सात सौ के भी पार हो गई। जैसे-जैसे आयोजन होंगे वैसे-वैसे उनमें खासकर आदिवासी किसानों की भागीदारी बढ़ती जाएगी। हमारी नीति यह है कि जिस जन-संगठन का जहां ज्यादा वर्चस्व है वह अपनी जगह पर पंचायत करे और बाकी सभी जगहों से अन्य संगठनों के नेता किसानों के साथ उसमें शामिल हों और अपनी बातों को रखें।"

कॉर्पोरेट लूट का उदाहरण है बस्तर- बादल सरोज

अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव बादल सरोज भी के अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर राज और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के नेता आलोक शुक्ला की तरह कई स्थानीय नेता भी आदिवासी किसान पंचायतों को आयोजित कराने के लिए सहयोग कर रहे हैं।

बादल सरोज के मुताबिक बस्तर इस बात का उदाहरण है कि जब कॉरपोरेट को खुली छूट दी जाती है तो किस तरह वे जनता के संसाधनों को लूटते हुए कहर बरपाती है। इसलिए बस्तर के लोग नए कृषि कानूनों से जुड़े खतरों को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। बस्तर में मौजूद हर तरह की सत्ता चाहती नहीं है कि यहां लोकतांत्रिक संभावनाएं बनें और इसलिए ऐसे इलाकों में साधारण पंचायतों को कराना भी बहुत चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।

बादल सरोज कहते हैं, "दरभा की पंचायत में फिर भी चार गांवों के सरपंच और आठ-दस गांवों के लोग जमा हुए ही थे। दरअसल, छत्तीसगढ़ में वनोपज पर एमएसपी को कानूनी गारंटी देने के मामले में यहां के आदिवासी किसान गंभीर हैं और चाहते हैं कि इस मामले में उनके अधिकारों की अनदेखी न की जाए।"

वन अधिकार कानून पर गठित राष्ट्रीय समिति रिपोर्ट, 2010 के अनुसार देश में दस करोड़ लोग लघु वन उपज पर निर्भर हैं और ये अपनी आमदनी का 20 से 40 प्रतिशत हिस्सा वनोपज संग्रहण से कमाते हैं। मुख्य रुप से छत्तीसगढ़, झारखंड और ओड़िशा में वनोपज की खरीदी की जाती है।

छत्तीसगढ़ में अश्वगंधा, आंवला, गोंद, इमली, महुआ, बेलगुदा, शहद, हर्रा, चिरोंजी गुठली और कुसमी लाख प्रमुख वनोपज हैं। इसके अलावा राज्य में कुसुमी बीज (सूखा), रीठा फल (सूखा), शिकाकाई फल (सूखा), सतावर जड़ (सूखी) और पलाश फूल भी उगाया जाते हैं।

बस्तर से शुरू हुईं आदिवासी पंचायतों को लेकर सोनी सोरी किसान आंदोलन के राष्ट्रीय नेताओं को संदेश देती हुईं कहती हैं कि बस्तर का संघर्ष कॉर्पोरेट के खिलाफ जनता का संघर्ष है और अब खेतीबाड़ी के क्षेत्र में पूरे देश के संसाधनों को कॉर्पोरेट की लूट के लिए खुला छोड़ा जा रहा है।

सोनी सोरी कहती हैं, "किसान आंदोलन आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई है। बस्तर के किसान इस आंदोलन के साथ हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि जिन कॉर्पोरेट ने बस्तर में लूट मचाई है यदि उन्हें ही मौका मिला तो वे एमपी, यूपी, हरियाणा और पंजाब में भी किसानों के बीच लूट मचाएंगे।"

दिल्ली दूर है तो क्या हुआ

संजय पराते बताते हैं कि छत्तीसगढ़ से दिल्ली से दूरी की वजह से लगता है कि यहां के किसान दिल्ली सीमा पर चल रहे संयुक्त किसान मोर्चा के विरोध में शामिल नहीं हैं। दिल्ली से उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल-प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य-प्रदेश नजदीक होने से वहां के किसान छत्तीसगढ़ के मुकाबले कहीं अधिक संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के धरना-स्थलों तक पहुंच सके।

वे बताते हैं, "हमारे लिए यह थोड़ा मुश्किल है कि हम बड़ी संख्या में आदिवासी और मजदूरों के साथ दिल्ली की सीमाओं पर महीनों तक ढेरा डाले बैठे रहें। फिर भी हम कुछ संख्या में दिल्ली जाने की भी योजना बना रहे हैं। लेकिन, हमारी पहली कोशिश यही है कि अपने-अपने क्षेत्रों में रहते हुए किसान आंदोलन का समर्थन करें।"

दिल्ली में किसान आंदोलन के चार महीने पूरे हो रहे हैं। 25 मार्च को संयुक्त किसान मोर्चा के अह्वान पर छत्तीसगढ़ में भी भारत बंद किया गया। सुरेश टीकम कहते हैं,

"पिछले चार महीने से संयुक्त किसान मोर्चा के हर आह्वान का पालन कर रहे हैं। इसमें चाहे रेल रोकने की बात हो या भारत बंद कराने की बात हो। हमारा आंदोलन भी छत्तीसगढ़ में तब तक चलेगा जब तक कि केंद्र सरकार किसान आंदोलन की सभी प्रमुख मांगों को मान नहीं लेती है।"

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26 मार्च को भारत बंद के दौरान यूपी-दिल्ली के बॉर्डर गाजीपुर किसान धरना स्थल का नजारा। फोटो- अमित पांडे

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