किसान आंदोलन : खेत छोड़ सड़क पर क्यों उतर रहे किसान?

"जिस तरह कर्मचारियों को दिए जाने वाला महंगाई भत्ता प्राइस इंडेक्स से निर्धारित होता है वैसे ही किसानों को किसान इंडेक्स या खाद्यान इंडेक्स बनाकर बिना विवाद फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाए।"

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किसान आंदोलन : खेत छोड़ सड़क पर क्यों उतर रहे किसान?

रणविजय सिंह/अरविंद शुक्ला

नई दिल्ली/लखनऊ। खेती में घाटे का सामना कर रहे किसानों का धैर्य अब जवाब देता नजर आ रहा है। खेत में उपजाई फसल का मंडी में अच्छा रेट नहीं मिलता है और जब अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतरते हैं तो भी आश्वासन का पुलिंदा थमा दिया जाता है। लेकिन चुनावी सरगर्मियों के बीच किसान संगठन अपनी आवाज़ बुलंद किए हैं।

बीती दो अक्टूबर को किसान क्रांति यात्रा में आए यूपी, पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड के करीब 30 हजार किसानों ने दिल्ली में अपनी आवाज़ उठाई। जबकि 2 अक्टूबर को ग्वालियर से करीब 25 हजार भूमिहीन किसानों का जत्था दिल्ली के लिए कूच किया था, हालांकि पक्ष और विपक्ष दोनों से आश्वासन मिलने और बातचीत का सिलसिला शुरु होने के बाद एकता परिषद ने ६ अक्टूबर को पदयात्रा खत्म कर दी। वहीं 28, 29 और 30 नवंबर को 204 किसान संगठन मोर्चा निकाल कर कड़ाके की सर्दी में अपनी मांगों को लेकर दिल्ली का सियासी तापमान बढ़ाने की तैयारी में हैं।

भूमिहीनों की रैली

संपूर्ण कर्ज़माफी, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए फसल लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम लागत मूल्य समेत 13 मांगों को लेकर भारतीय किसान यूनियन की अगुवाई में 11 दिन में करीब 225 किलोमीटर का सफर कर हजारों किसान दिल्ली पहुंचे थे। दिल्ली में प्रवेश की अनुमति पर आंसू गैंस के गोले और वाटर कैनन के इस्तेमाल के बावजूद किसान अपनी मांगों को लेकर यूपी गेट पर अड़े रहे। अंत में सरकार से 7 मांगों पर आश्वासन मिलने के बाद किसान वापस जरूर लौट गए, लेकिन अपने इरादे बता गए।

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"चुनाव आ रहे हैं और उनको फिर से हमारे पास आना होगा। उस वक्त हम भी देख लेंगे।"पंजाब के गाँव चक अमृतसरिया के किसान दलजीत सिंह आश्वासन पूरा न होने की बात पर कहते हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कृषि राज्यमंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से मुलाकात के बाद भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत ने कहा, "यात्रा खत्म हुई, मगर किसानों के हित में आंदोलन जारी रहेगा।"


दो सौ से ज्यादा किसान संगठनों की समिति अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के संयोजक और किसान नेता वीएम सिंह कहते हैं, "किसानों को नेताओं के कहे (अश्वासान) पर भरोसा नहीं। इतिहास में पहली बार किसानों के दो बिल संसद में पहुंचे हैं और 21 पार्टियों का समर्थन हासिल है। सरकार और सभी पार्टियों को चाहिए कि इन्हें पास करवाए। अगर सरकार दोनों बिल पास करवाती है तो हम 2019 में इनके साथ जाएंगे वर्ना खिलाफ, अब किसान बेवकूफ नहीं बनेगा।"

वर्ष 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं, जबकि 2019 में आम चुनाव होंगे। चुनावी घमासान के बीच मध्य प्रदेश के ग्वालियर से एकता परिषद की अगुवाई में देश के कई राज्यों के भूमिहीन किसान दिल्ली की ओर पैदल चल पड़े हैं। एमपी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आंदोलनकारियों को समझा पाने में नाकाम रहे हैं और अब ये 350 किलोमीटर का सफर कर दिल्ली पहुंचेगे।

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"किसानों का धैर्य खत्म हो रहा है। अपना घर-द्वार छोड़कर किसान 10-20 दिन आंदोलनों में शामिल होते हैं, इसका मतलब कि उनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही। सरकार किसानों के अंसतोष को दूर करने के लिए प्रभावी कदम उठाने में नाकाम रही है।" ग्रामीण मामलों और कृषि के जानकार अरविंद कुमार सिंह कहते हैं।

तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली में प्रदर्शन, मध्य प्रदेश समेत कई राज्यों में लगातार दो साल जून के महीने में गाँव बंद, मंदसौर कांड, उसके बाद बनी अखिल भारतीय किसानसमन्वय समिति द्वारा वर्ष 2017 में दिल्ली में किसान मुक्ति संसद के अलावा मुंबई में ग्रामीणों और आदिवासियों के लॉन्ग मार्च के जरिए किसानों ने अपनी नाराजगी दिखाई। अब चुनावी माहौल में ये सिलसिला तेज हो गया है।

संसद में निजी विधेयक पेश करने वाले महाराष्ट्र में शेतकारी संगठन के अध्यक्ष और लोकसभा सांसद राजू शेट्टी कहते हैं, "हर जगह का किसान इसलिए सड़क पर उतर रहा है, क्योंकि ये सरकार संवेदनहीन हो गई है।"राजू शेट्टी पहले एनडीए में शामिल थे, लेकिन अब वो 204 किसान संगठनों वाली समिति अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति का अहम हिस्सा है।

किसानों का धैर्य खत्म हो रहा है। अपना घर-द्वार छोड़कर किसान 10-20 दिन आंदोलनों में शामिल होते हैं, इसका मतलब कि उनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही। सरकार किसानों के अंसतोष को दूर करने के लिए प्रभावी कदम उठाने में नाकाम रही है।

अरविंद कुमार सिंह, ग्रामीण मामलों और कृषि के जानकार

ये समिति दोनों निजी विधेयकों को लोकसभा में पारित करवाने के लिए नवंबर में दिल्ली में 3 दिवसीय आंदोलन करने की तैयारी में है। वीएम सिंह की मानें तो इस बार किसानों की संख्या कहीं ज्यादा होगी। उनकी नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि सरकार का संवाद किसानों से न के बराबर है, जो है वो सिर्फ कुछ संगठनों से। यही वजह है कि किसानों की नाराजगी बढ़ती जा रही है।


दूसरी तरफ सरकार 2022 तक किसानों की आमदनी बढ़ाने के वादे पर खुद को अटल बताते हुए नई-नई योजनाएं ला रही है। बीती तीन अक्टूबर को किसान क्रांति यात्रा के बाद रबी की फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बाद केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह ने ट्वीटर पर लिखा, "21 फसलों के एमएसपी में उत्पादन लागत से 1.5 गुना या उससे अधिक वृद्धि करने के परिणामस्वरूप वर्ष 2018-19 के दौरान कृषि आय में (रिटर्न के रूप में) 60,000 करोड़ रुपये की वृद्धि प्रदान करेगा।"

लेकिन एमएसपी ही किसानों की समस्या का समाधान नहीं, मध्य प्रदेश में सोयाबीन, मक्के से लेकर कर्नाटक में अरहर, और हरियाणा में सरसों न्यूनतम दरों से काफी नीचे बेची गईं। इसीलिए किसान संगठन एमएसपी पर कानून बनाने की मांग कर रहे हैं।

गाँव कनेक्शन संपादक डॉ. एसबी मिश्र कहते हैं, "जिस तरह कर्मचारियों को दिए जाने वाला महंगाई भत्ता प्राइस इंडेक्स से निर्धारित होता है वैसे ही किसानों को किसान इंडेक्स या खाद्यान इंडेक्स बनाकर बिना विवाद फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाए।"

खेती की बढ़ती लागत और फसलों के कम दाम किसानों की समस्याओं की जड़ हैं। रबी के मौजूदा सीजन में 50 किलो डीएपी की बोरी 1400 रुपए तो डीजल 75 रुपए लीटर बिक रहा है। वहीं सोयाबीन से लेकर लहसुन, चना और टमाटर तक के दाम मंडियों में पहुंच कर आधे हो रहे हैं। फसल बीमा के लिए जूझते किसानों की ख़बरें आए दिन सुर्खियां बनती हैं।

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आंकड़ों की बात करें तो सोने और गेहूं के दाम में तुलना कर लेते हैं। सोना किसी देश की अर्थव्यवस्था का आधार होता है, जिसके पास जितना होना वो उतना समृद्ध माना जाता है।साल 1971 में एक कुंतल गेहूं का दाम 76 रुपए था, जबकि 10 ग्राम (एक तोला) सोना 193 रुपए का था। साल 2017 में गेहूं का सरकारी मूल्य (एमएसपी) 1625 रुपए प्रति कुंतलऔर सोने का प्रति 10 ग्राम भाव 29,667 रुपए था। यानि गेहूं की कीमतों में करीब 2138 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि सोना लगभग 15371 फीसदी बढ़ा। महंगाई का यही अंतरकिसानों के लिए सिरदर्द है।

देश के प्रख्यात खाद्य और निर्यात नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा लिखते हैं, "जब फसल कटाई के बाद उपज माटी के मोल बिकने लगे तो किसान के पास आत्महत्या करने या फिर खेती छोड़कर शहरों में छोटा-मोटा रोजगार खोजने के अलावा कोई और चारा नहीं रह जाता।"

खेत में फसल बीमा और मंडी में अपनी उपज बेचने के लिए जद्दोजहद करते किसान का नाराजगी सरकार के लिए चिंता का विषय बन सकती है। लोकनीति-सीएसडीएस ने इसीसाल जनवरी में नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज पर सर्वे कराया था। इसमें सामने आया था कि किसानों के बीच पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 12% कम हुई है। वहीं, सरकार कीनीतियों को लेकर भी किसान खुश नहीं दिखे थे।

सीएसडीएस से जुड़े राजनीतिक विष्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, "देश का किसान अपने को काफी उपेक्षित महसूस कर रहा है। उसे सिर्फ वादे ही थमाए जा रहे हैं। आर्थिक रूप से किसान परेशान हैं। इसकी नाराजगी का असर चुनावों में भी दिख सकता है, लेकिन कितना, ये कहा नहीं जा सकता है। रही बात प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की तो 2014 में वो शिखर पर थी, अब हर क्षेत्र में गिरावट आई है।"

मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित देश के प्रख्यात कृषि पत्रकार पी. साईनाथ अपने एक लेख में लिखते हैं, "भारत का कृषि संकट कृषि से परे चला गया है। यह समाज का संकट है। "


      

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