पहाड़, नदी, जंगल की हत्या कभी चुनावी मुद्दा बनेंगे ?

देश के करोड़ों लोगों की ज़िंदगी पर सीधे असर डालने वाला यह अवैध खनन का काला कारोबार राजनेताओं और माफियाओं की संरक्षण में लगतार फल-फूल रहा है, लेकिन कभी चुनावी मुद्दा क्यूं नहीं बनता? अगर इसे ऐसे ही नजरअंदाज किया गया तो आने वाले समय में शर्तिया यह पर्यावरण के लिए काल साबित होगा।

मनीष मिश्रामनीष मिश्रा   8 April 2019 9:30 AM GMT

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पहाड़, नदी, जंगल की हत्या कभी चुनावी मुद्दा बनेंगे ?

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। ट्रकों की लंबी कतारें, सड़कों पर उड़ती धूल और पेड़ों पर जमी काली राख। कुछ ऐसी तस्वीर दिखती हैं जब उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के राबर्ट्सगंज से शक्तिनगर की ओर जाने लगें।

पहाड़ों के नीचे डाइनामाइट की आवाजें, नदियों में चल रही पोकलैंड मशीनें, जहां कभी पहाड़ थे वहां उतनी ही नीचे खाई नजर आती है। यह दूसरी तस्वीर है उत्तर प्रदेश के ही बुंदेलखंड की।

यूपी समेत देश के करीब 20 राज्यों में चल रहे अवैध खनन के कारोबार ने ऐसी ही भयावह तस्वीरें छोड़ी हैं। राजस्व का नुकसान, गरीबों-मजदूरों की ज़िंदगी दांव पर लगने के साथ ही पर्यावरण को भारी नुकसान के बीच इस अरबों के काले कारोबार पर नकेल के लिए राजनैतिक पार्टियां गंभीर नहीं दिखतीं।

लोकसभा चुनावों के शोर के बीच अवैध खनन के लिए जिम्मेदार पूरे अवैध तंत्र पर लगाम कसने के लिए किसी भी पार्टी ने मुद्दा बनाना तो दूर देखना तक गंवारा नहीं समझा।

"खनन एक स्थानीय मुद्दा माना जाता रहा है, और आम लोग अपनी ज़िंदगी पर सीधे तौर पर इसका ज्यादा असर नहीं देख रहे, इसलिए इसका ज्यादा प्रभाव अभी नहीं दिखता, लेकिन कल को यह राष्ट्रीय मुद्दा बनेगा," पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था सेंटर फार साइंस एंड एंड एन्वायरमेंट के सीनियर डायरेक्टर और डाउन टू अर्थ मैगजीन के मैनेजिंग एडिटर रिचर्ड महापात्रा ने फोन पर कहा।

रिचर्ड आगे समझाते हैं, "अवैध खनन का एक अपना अर्थशास्त्र है, और इसमें राजनेता सीधे तौर पर शामिल होते हैं, इसलिए भी इस मुद्दे को दबा दिया जाता है। लेकिन अब स्थानीय स्तर पर उठने लगा है। अवैध खनन कानून के रेग्युलेशन की विफलता है।"

नेताओं, अफसरों और माफियाओं की मिली भगत से अवैध खनन संगठित अपराध ले चुका है। खनन के पट्टे राज्य सरकारें भले जारी करती हैं, लेकिन खनन माफिया कानूनों का मखौल उड़ाकर मनमानी करते रहते हैं। आमतौर पर ठेके नेताओं और अधिकारियों के संबंधियों और सहयोगियों को ही दिए जाते हैं, जिससे अनुमति के दायरे से बाहर जाकर खुलेआम खनन का काम करते हैं।

देश भर में फैले खनन माफियाओं के सिंडिकेट को इस तरह भी समझा जा सकता है कि वर्ष 2010-11 में तत्कालीन केंद्रीय खनन मंत्री दिनसा पटेल ने लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि उस वित्तीय वर्ष अकेले में 78,189 मामले अवैध खनन के दर्ज किए गए।

कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े ने भी कहा था कि बिना राजनीतिक दलों सहयोग के खनन माफिया काम नहीं कर सकता।

"यह बहुत गंभीर मामला है, पॉलिटिकल फंडिंग के लिए बहुत बड़ा सोर्स है माइनिंग लॉबी। इसीलिए राजनैतिक दल इस पर सीधे प्रहार नहीं करते,," पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था सोशल एक्शन फार फारेस्ट एंड एन्वायरमेंट (सेफ) के फाउंडर मेंबर विक्रांत टोंगड कहते हैं।

शायद यही कारण है कि न तो राजनैतिक दल अपने घोषणा पत्रों में इसे रोकने की हिम्मत जुटा पाते हैं, न ही राज्य की सरकारें इस पर कड़ाई से कानून का अनुपालन करा पाती हैं।

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छत्तीसगढ़ आदीवासी बहुल इलाके के साथ-साथ खनिज पदार्थ से भरपूर है। दंतेवाड़ा में आदिवासी आंदालनों से जुड़े और जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अनुभव सोरी ने फोन पर कहा, "खनन को लेकर आदिवासियों के कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। बस्तर के हर दो गाँव पर एक क्रेशर मिलेगा, भूजल स्तर कम हो गया है," आगे कहते हैं, "ग्रामीण सरकारी दफ्तरों में शिकायत करते हैं तो ध्यान नहीं दिया जाता, क्यूंकि ज्यादातर ठेके तो राजनीतिक पार्टी के लोगों को ही मिलते हैं।"

अभी हाल में अपने अधिकारों को लेकर आदिवासियों ने आंदोलन भी किया, बैलाडीला में किरंदुल में आंदोलन हुआ जिसमें बिना ग्राम सभा की अनुमति के खनन के लिए प्राइवेट कंपनी को अधिकार दिया जा रहा है।


अगर कर्नाटक का उदाहरण ही देखें तो तत्कालीन लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने 27 जुलाई-2011 को अवैध खनन को लेकर जारी की गई अपनी रिपोर्ट में कहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के परिवार द्वारा संचालित प्रेरणा ट्रस्ट को खनन कंपनियों से 30 करोड़ रुपए की रिश्वत ली गई। रिपोर्ट में लोकायुक्त हेगड़े ने 2006-2010 के बीच 16,085 करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप लगाया था। कर्नाटक खनन मामले से संबंधित रिपोर्ट में मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा, पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी रेड्डी बंधुओं उनके कुछ सहयोगियों, मंत्री एच श्रीरामूलू और कांग्रेस सांसद अनिल लाड की पत्नी के नाम भी थे।

वहीं, सुप्रीम कोर्ट की बनाई समिति ने भी जांच के दौरान पाया कि कर्नाटक में बेल्लारी के जंगली इलाके में अफसरों और नेताओं की साठगांठ से जमकर अवैध खनन हुआ है। समिति ने बेल्लारी क्षेत्र में 2003 से 2010 के बीच हुए बड़े पैमाने पर हुए अवैध खनन के बारे में कहा है कि कर्नाटक सरकार कार्रवाई करने में नाकाम रही है।

दक्षिण से लेकर पश्चिम के राजस्थान और उत्तर पूर्व के राज्यों में सरकार किसी भी पार्टी की हो लेकिन अवैध खनन सरकार बदस्तूर जारी रहा है।

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पश्चिम बंगाल में कोल इंडिया लिमिटेड की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोयला माफिया और अवैध खनन की वजह से हर महीने 12 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हो रहा है।

देश में खनन को लेकर वर्ष 2010 में जस्टिस एमबी शाह की अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक आयोग बनाया जिसने राज्यों में हो रहे अवैध खनन की जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं- जिसमें राज्य सरकार से खनन के पट्टे का नवीनीकरण कराने के लिए प्रार्थना पत्र देते समय अभ्यर्थी को वन और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से मंजूरी साथ लेना जरूरी हो, खनन पट्टे के डीम्ड विस्तार की अवधि को एक साल सीमित किया जाए, खानों की सीमा का ठीक से निर्धारण हो, खनन का आवेदन रद्द करने का अधिकार राज्य सरकार को हो, भारतीय खनन ब्यूरो अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन करें इसके लिए जरूरी है कि उसके अधिकारी महीने में कम से कम एक बार खानों का दौरा करें और तय करें कि खंभें सही जगह लगे हैं।

खनन से जुड़े कारोबारियों का भारत के किसी भी राज्य की राजनीति पर प्रभाव होता है, उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में खनन के पट्टों के निर्धारण को लेकर सीबीआई जांच हो रही है, तो खनन मंत्री गायत्री प्रजापति को जेल की हवा खानी पड़ी।

उत्तर पूर्व के राज्यों पर भी खनन माफिया का प्रभाव राजनीति पर कम नहीं दिखता। कोयला खदान मालिकों की मेघालय की राजनीति में इतनी पकड़ है कि वर्ष 2014 के विधानसभा चुनावों में कुल 374 उम्मीदवारों में से 30 प्रतिशत कोयला खदान के मालिक या उससे जुड़े लोग थे, जिनमें से जयादातर ने जीत दर्ज की।

अवैध खनन चुनावी मुद्दा क्यूं नहीं बनता इस बारे में काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरमेंट ऐंड वाटर के सीनियर प्रोग्राम लीड वैभग गुप्ता कहते हैं, "अवैध खनन पर रोक इसलिए भी नहीं लग पाती क्यूंकि उस क्षेत्र राज्य के नेता या सांसद को पता होता है, और जानबूझकर नहीं रोकते क्यूंकि वोट बैंक की रोजी-रोजी का ख्याल आ जाता है।"

वह आगे कहते हैं, "नियमों में लापरवाही की जाती है, जैसे पांच हेक्टेयर से नीचे के खनन पट्टों के लिए पर्यावरण क्लियरेंस की अनुमति राज्य से लेनी होती है, इससे ऊपर के केन्द्र सरकार से होता है। अगर बहुत छोटा क्षेत्र है तो पर्यावरण के लिए अनुमति की जरूरत भी नहीं होती।"

भारत में कुल 89 खनिजों का उत्पादन होता है, जिनमें 4 ईंधन, 11 धात्विक, 52 अधात्विक और 22 लघु खनिज हैं। इंडियन माइंस ब्यूरो (आईबीएम) खनिजों और खानों के संरक्षण का कार्य करती है। देशी और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए 1994 में इन कानूनों को संशोधित कर ईंधन और परमाणु खनिजों को छोड़कर बाकी खनिजों के खनन को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया। साथ ही खनन के लिए राज्य सरकारों को पट्टे देने का अधिकार दे दिया गया।

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यहीं ये अवैध खनन की नींव मजबूत होती गई। पहले खनन माफिया एक छोटे से इलाके में खनन की अनुमति लेता है और उसके बाद वह बड़े इलाके तक अतिक्रमण कर लेता है इसके लिए वह न तो कोई टैक्स देता है और न ही उसकी कोई जिम्मेदारी ही होती है।

उत्तर प्रदेश के चंबल क्षेत्र में रेत के अवैध खनन से जलीय प्रजातियों के लिए संकट खड़ा हो गया है। मुरैना में राष्ट्रीय घड़ियाल अभयारण्य है, जहां रेत के अवैध खनन की वजह से घड़ियालों के लिए संकट पैदा हो रहा है। जबकि यह इलाका केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने खनन के लिए प्रतिबंधित कर रखा है।


इसी तरह, उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, सिंगरौली पट्टी में पत्थरों का गोरखधंधा बदस्तूर जारी है। प्रदेश सरकार के संरक्षण में कराए जा रहे गिट्टी, बालू के अवैध खनन देश में काली कमाई का सबसे बड़ा जरिया है। सोनभद्र के बिल्ली, मारकुंडी खनन क्षेत्र में लगभग दो सौ क्रसर्स और डोलोमाइट्स की खदाने हैं।

पिछले 15 सालों से राजस्थान के अरावली और आसपास के इलाकों में हरियाली बचाने और खनन को रोकने के लिये लड़ाई लड़ रहे साधु और सामाजिक कार्यकर्ता हरिबोल बाबा ने गाँव कनेक्शन से कहा था, "अवैध खनन यहां पैसा बनाने की फैक्ट्री है। राजनेता अधिकारियों पर दबाव डालते हैं और उनके (अधिकारियों) लिये भी यह मुनाफे का सौदा बन जाता है। अदालत ने इस पर कई बार आदेश जारी किये हैं लेकिन अरावली में खनन नहीं रुकता।"

अरावली के अस्तित्व के बारे में जब सुप्रीम कोर्ट को सेंट्रल इम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) ने बताया कि अरावली की 128 में से 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं तो जस्टिस एमबीलोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता ने राजस्थान सरकार से पूछा,"राज्य में क्या हो रहा है? लगता है इंसान हनुमान बनकर पहाड़ियों को उड़ा ले जा रहे हैं!"

पहाड़ियों के साथ-साथ नदियों का अस्तित्व भी संकट में

पहले नदियों किनारे नवंबर से लेकर मई तक ही मजदूरों से खनन होता था, अब पोकलैंड मशीनों के जरिए पूरे साल चलता है। मशीन से नदी की तलहटी से कई फीट नीचे से मौरंग निकाले जाने से पानी को रोकने की क्षमता कम हो जाती है और पानी पोखरों में भरने से आगे नहीं बढ़ पाता। इस तरह बुंदेलखंड की कई नदियों में रेत के खनन नदियों के साथ-साथ पर्यावरण के अस्तित्व पर संकट डाल रहा है। इसी तरह पहाड़ियां खोदकर वहां खाई बना दी गई, लेकिन किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि रोक लगाई जा सके।

अगर रोका न गया तो ये लोग हाईकोर्ट को भी खोद डालेंगे

राजस्थान उच्च न्यायालय ने जयपुर-जोधपुर रेलवे लाइन के करीब पैंतालीस मीटर के दायरे के भीतर हो रहे खनन पर कहा कि यह 'पूरा जंगलराज' है। नियमों का खुला उल्लंघन है और जनता के जीवन को खतरे में डालने वाला है। सीधे खनन विभाग और राज्य सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया कि 'वे लोक कल्याणकारी राज्य बनने के बजाय राष्ट्रीय संपत्ति और मानव जीवन को खतरे में डाल रहे हैं।' न्यायालय ने कहा कि 'अगर रोका न गया तो ये लोग हाईकोर्ट को भी खोद डालेंगे।'


  

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