उन महिलाओं को सलाम जिनके कंधों पर है भारत के स्वास्थ्य व्यवस्था की जिम्मेदारी

Shubham KoulShubham Koul   29 May 2019 7:39 AM GMT

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हरचंदपुर (रायबरेली)। मई-जून की चिलचिलाती धूप हो या फिर दिसंबर-जनवरी की कड़कड़ाती ठंड ये सेना हर समय तैयार रहती है, इन्हें खुद से ज्यादा किसी महिला के माँ बनने से पहले से लेकर बच्चे पैदा होने के बाद तक फ़िक्र रहती है, ये कोई सेना या पुलिस के जवान नहीं हमारे आस-पास की आशा कार्यकर्ता हैं।

रायबरेली ज़िले के हरचंदपुर ब्लॉक की आशा बहु सुमन शुक्ला सुबह से लेकर शाम तक काम करती रहती हैं, कई बार तो उन्हें घर पहुंचने में देर रात तक हो जाती है।

हरचंदपुर ब्लॉक के गुनावर गांव में छह महीने की गर्भवती सीमा को देखने गईं सुमन की तारीफ पूरा गांव करता है। सुमन कहती हैं, "अगर आशा नहीं होगी तो स्वास्थ्य विभाग का कोई भी कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि आशा जो होती है वो स्वास्थ्य विभाग के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह काम करती हैं।"

वर्ष 2005 जननी सुरक्षा योजना को बढ़ावा देने के लिए आशा बहुओं की शुरुआत की गई थी। वर्ष 2013 के आंकड़ों के अनुसार देश भर आशा कार्यकत्रियों की संख्या 870,089 है।

किसी महिला की डिलीवरी करानी हो या फिर किसी बच्चे का टीकाकरण, या फिर घर-घर जाकर बच्चे के जन्म से लेकर 42 दिन तक उसकी देखरेख करनी हो आशा बहुएं आगे रहती हैं।

सुमन आगे कहती हैं, "एक आशा वर्कर गाँव में जाकरफ़ै मिली प्लानिंग की जागरूकता फैलाती है। फ़ैमिली प्लानिंग के बाद दूसरा टारगेट आता है कि जब महिला गर्भवती होती है, तो उसके दो टीके हमको लगवाने पड़ते हैं। डिलेवरी करवाने के बाद हमें बच्चे की भी देख़भाल हमें करनी होती है। 42 दिन तक हमें बच्चों के 7 विज़िट करनी होती है।"

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सुमन जैसी आशा कार्यकत्रियां आज भी पांच से छह घण्टे ही सो पाती हैं, घर का काम निपटाकर गांव की गलियों में घूमने लगती हैं। कुपोषण, टीकाकरण, स्वच्छता प्रबंधन की किशोरियों के संग मीटिंग, कई-कई दिन अस्पताल में गुजारना और दिन भर भूखे-प्यासे कई किमी. पैदल चलना पड़ता है।


सुमन कहती हैं, "हमें लगता है कि हम लोग आर्मी से भी आगे जा रहे हैं, क्योंकि हमेशा तैयार रहना होता है, कोई टाइमिंग नहीं कोई समय नहीं। सुबह भी हो सकती है, रात में 12 बजे भी, मतलब किसी भी समय फ़ोन आ सकता है। किसी भी समय हमें मरीज़ कोई अस्पताल लेकर जाना ही जाना है, हम यह नहीं कह सकते कि हम रात को 12 बजे नहीं जाएँगे हमको जाना है और हम जाते हैं।"

इतना कुछ करने के बाद भी आशा कार्यकत्रियों का मानदेय न के बराबर है। हरचंदपुर ब्लॉक की ब्लॉक प्रोग्राम मैनेजर आरती सिंह कहती हैं, "हम लोग ड्यूटी सुबह से शाम तक करते हैं। कोई टाइमिंग ही नहीं है। हर विभाग में हर अधिकारी का टाइमिंग सेट रहता है। किसी को 40 हज़ार किसी को 50 हज़ार किसी को 60 हज़ार मिलता है। हमको उम्मीद है की सरकार कुछ ना कुछ तो। 10-15 हज़ार हमारे लिए करे ही करे। जैसे 1-2 हज़ार देती है हमें, बताइए 1-2 हज़ार क्या होता है। इतना रिस्क लेने के बाद भी हमें सरकार 1-2 हज़ार में काम करवा रही है हम लोगों से।"




वो आगे बताती हैं, "अभी कुछ दिन पहले आशाओं ने हड़ताल भी किया था कि हम लोग काम नहीं करेंगे। हमको राज कर्मचारी का दर्जा घोषित किया जाए, कि सरकार हमें कर्मचारी माने। अभी तो हम आशा को एक पार्ट टाइम कार्यकर्ता मान रहे है। वहीं अगर आशा को 10 हज़ार सैलरी मिल जाएगी। 5 हज़ार ही अगर मिल जाए तो कम से कम यह होगा कि आशा को उम्मीद रहेगी की हमें 3-4 तारीख को पैसा मिल जाएगा।"

नौ महीने तक टीकाकरण करने के आशा को सिर्फ 150 रुपए मिलते हैं। ये महिलाएं दिन रात एक करती हैं। सुमन कहती हैं, "यही तो सरकार से कहना है ना कि लेडीज़ होकर हम लोग इतना रिस्क उठा रहे हैं। मान सम्मान को दांव पर लगा रहे हैं, तो कुछ ना कुछ तो सरकार को कुछ करना चाहिए ना हमारे लिए।"

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