सेना के इस पूर्व जवान का काम देख, आप भी करेंगे सलाम

दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं, जो अपनी पूरी जिंदगी पशुओं की सेवा में कुर्बान कर देते हैं। वो खुद भूखे रहते हैं अपने घर में रखे पशुओं के लिए खाने का इंतजाम करते हैं। सेना के इस पूर्व जवान और उनकी पत्नी का वीडियो देखकर लाखों लोग उन्हें सलाम कर रहे हैं...

Arvind ShuklaArvind Shukla   14 Aug 2019 1:59 PM GMT

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रांची (झारखंड)। झारखंड में रहने वाले सेना के एक पूर्व जवान सूरज भूषण लोहरा और उनकी पत्नी पशु प्रेम की मिसाल कहे जा सकते हैं। बचपन में बच्चों की मौत के बाद इन्होंने गाय, बछड़ों को अपना परिवार मान लिया, उनके छोटे से घर में 60-70 गाय बछड़े रहते हैं वो रोजाना 10-20 कुत्तों को खाना भी खिलाते हैं। कई बार ऐसा होता है कि वो खुद भूखे रह जाते हैं लेकिन इन पशुओं के लिए खाने का इंतजाम करते हैं।

सूरजभूषण लोहरा झारखंड की राजधानी रांची मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर चान्हों में रहते हैं। गांव कनेक्शन की टीम के उनके यहां पहुंचने से पहले वो जो काम करते थे किसी को इसकी जानकारी तक नहीं थी। खुद सूरज भूषण लोहरा नहीं चाहते थे, लोग ये जानें वो बस चुपचाप इन बेजुबान पशुओं की सेवा किए जा रहे थे। सूरज भूषण लोहरा के यहां ज्यादातर बछ़डे और सांड हैं। ये वैसे ही पशु हैं जैसे भारत के ज्यादातर राज्यों में छुट्टा पशु (गोवंश) के रुप में लोगों के लिए समस्या बने हुए हैं। सूरज इन पशुओं से न तो कोई काम लेते हैं न ही गायों से दूध दुहते हैं।

उन्हें हर महीने करीब 19 हजार रुपए की पेंशन मिलती है। डेढ़ एकड़ से ज्यादा खेत भी है। लेकिन पत्नी के पास एक साड़ी नहीं है। घर में सुविधा के नाम पर सिर्फ एक पुरानी साइकिल है। लेकिन पशु प्रेमी और सेना के पूर्व जवान सूरज भूषण लोहरा को कोई मलाल नहीं। वो अपनी पूरी पेंशन और कमाई पशुओं पर खर्च कर देते हैं।




"मैंने 20 साल तक फौज की सेवा की। अब इन पशुओं की देखभाल करता हूं। हम दोनों (पत्नी की तरफ देखते हुए) सुबह 3 बजे उठते हैं और रात 11 तक इन्हीं के पीछे भागते रहते हैं। कई बार हम खुद नहीं खाते, लेकिन इनके लिए खाने का इंतजाम करते हैं।" सूरज भूषण लोहरा बताते हैं।

लोगों से बात करते हुए अक्सर मुस्कुराने वाले सूरज भूषण की जिंदगी दुख से भरी हुई है। बेहद गरीब आदिवासी परिवार में जन्में सूरज भूषण की सात बहने थीं लेकिन उनमें से कोई नहीं बचीं। सूरज भूषण कहते हैं, जीवन में सुख क्या होता है मुझे नहीं मालूम। जब से होश संभाला सिर्फ दुख देख रहा हूं। मेरी सात बहने थीं तो गरीबी के चलते मर गईं। शादी के बाद दो बच्चे हुए वो भी बीमारी में चल बसे। अब ये गाय बछड़े ही मेरे बच्चे जैसे हैं। अब सब कुछ इन्हीं के लिए हैं।" इतना कहते-कहते उनकी आंखें डबडबा गईं।

"जब से होश संभाला सिर्फ दुख देख रहा हूं। मेरी सात बहने थीं तो गरीबी के चलते मर गईं। शादी के बाद दो बच्चे हुए वो भी बीमारी में चल बसे। अब ये गाय बछड़े ही मेरे बच्चे जैसे हैं। अब सब कुछ इन्हीं के लिए हैं।" इतना कहते-कहते उनकी आंखें डबडबा गईं।

फिर खुद को संभालते हुए कहते हैं, "लेकिन मुझे वो गाड़ी घोड़े वाला सुख नहीं चाहिए। अच्छा जिंदगी नहीं चाहिए। जब तक हैं तकलीफ उठाएंगे। हमको किसी का दुख बर्दास्त नहीं होता। खुद मर जाएंगे लेकिन दूसरो को दुखी नहीं देख सकते है। कई बार मेरे भी मन में आता है कि सब सुखी के लिए मरते हैं हम कों नहीं लेकिन मेरा दिल कहता है, जब तक हो दूसरों की सेवा करो।"

सूरज भूषण के गांव के लोग मजाक में उनके घर को चिड़ियाघर भी कहते हैं। उनके घर में मिट्टी और खपरैल के तीन कमरे हैं। लेकिन उन लोगों के पास रहने के पास सोने के लिए सिर्फ एक तख्त है। जिसके एक कोने में चूल्हा और कुछ जले बर्तन रखे थे। सूरज भूषण लोहरा के पास न तो रसोई गैस और ना ही खाना पकाने के लिए कहीं लकड़ियों का इंतजाम। जबकि रोजाना गायों और बछड़ों के लिए वो रोजाना 40-50 रोटी और 2 से 3 किलो चावल बनाती हैं।



खाना कैसे बनाती हैं? के सवाल पर सूरज भूषण की पत्नी ललिता देवी कहती हैं, "लकड़ियां नहीं हैं, फूस (धान के पुवाल) से खाना बनाते हैं। जो बनाते हैं उसी में थोड़ा हम लोग भी खा लेते हैं। कई बार वो भी नहीं बचता है।"

गोबर और मिट्टी में सने पैर, शरीर पर एक मैला-कुचैला सा कपड़ा पहनने वाली ललिता देवी के पास एक साड़ी तक नहीं। शादी के बाद शायद एक दो बार ही मायके गई होंगी, रिश्तेदारी में कब गई थी ये भी उन्हें याद नहीं।

गोबर और मिट्टी में सने पैर, शरीर पर एक मैला-कुचैला सा कपड़ा पहनने वाली ललिता देवी के पास एक साड़ी तक नहीं। शादी के बाद शायद एक दो बार ही मायके गई होंगी, रिश्तेदारी में कब गई थी ये भी उन्हें याद नहीं। कपड़ों और घर में सुविधाओं के सवाल पर कहती हैं, " उनके पास (पति) कभी इनती पैसे नहीं होते, सब पैसा पशुओं के चारा पानी में उड़ा देते हैं। अब तो दिन रात इन्हीं के नाम पर है।" इतना कहकर वो एक गाय की रस्सी पकड़कर उसे चारा खिलाने ले चल पड़ती हैं।

सूरज भूषण लोहरा की जेब पैंट की जेब में हमेशा कुछ रोटियां रहती हैं जिन्हें वो गाय और कुत्तों को खिलाते रहते हैं। हर गाय, बछड़े और कुत्ते को वो किसी न किसी नाम से बुलाते हैं। कुत्तों के लिए बाकायदा थालियां हैं। भले ही घर में खुद के लिए पर्याप्त बर्तन नहीं।

सूरज भूषण और ललिता देवी मिलकर पशुओं के लिए चारे का इंतजाम करते हैं और उन्हें चराने ले जाते हैं। इतने पशुओं को संभालने के लिए उन्होंने हर चरवाहा भी रख रखा है, जिससे वो हर हफ्ते 1070 रुपए देते हैं। इतने पैसे में वो महीने में डेढ़ बार कम से कम अपनी गैस भरा सकते हैं। लेकिन उन्हें ये सब नहीं चाहिए।

ऐसी 15-20 कुत्तों को वो रोज खाना खिलाते हैं, जिसके लिए सूरज भूषण की पत्नी ललिता देवी रोज 2 किलो चावल बनाती हैं। फोटो- अरविंद शुक्ला


उनके पड़ोसी सुखलाल उरांव कहते हैं, "सूरज जैसा आदमी पूरे झारखंड में नहीं मिलेगा। उसने अपनी पूरी जिंदगी ऐसे पशुओं के नाम कर दी, जिनसे कोई वस्ता नहीं। सरकार को चाहिए इस बुजुर्ग दंपति की कुछ मदद करे। बेचारे कुएं से पानी भरते हैं। गर्मियों में तो कई सौ मीटर दूर से इन पशुओं के लिए पानी लाते हैं।"

गांव के कुछ लोग उन्हें सनकी भी समझते हैं। उनकी नजर में वो अपना पैसा इन फालतू के पशुओं पर बर्बाद कर रहे। लेकिन गांव के तमाम लोग उन्हें परोपकारी और प्रेरणास्त्रोत मानते हैं।

उनके घर के बगल में रहने वाली चांद मुनु राई कहते हैं, ये बूढ़ा-बूढ़ी इन पशुओं के पीछे जान देते हैं। हमारे यहां गेहूं नहीं होता लेकिन इनके लिए वो आटा खरीद कर लाते हैं। मुर्गा मुर्गियों को खुद नहीं खाते, भले ही वो मर जाएं। इनके तीनों कमरों में ये गाय बछरू ही भरे रहते हैं। जो गाय-बछड़े मर जाते हैं उनके अपने दरवाजे के बाहर ही दफना देते हैं। इन्हें जानवरों से बहुत प्यार है।'

सूरज भूषण के घर के बाहर 10 नई कब्रें बनी हैं। ये उन गाय-बछ़ड़ों की हैं जो इस साल सर्दियों में मर गईं।

"मेरे जन्म के पहले ये ही ये लोग पशुओं को पालते आ रहे हैं। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मेरे दादू फौज में थे मुझे गर्व है कि मैं इनके परिवार का हूं।" 12वीं पढ़ने वाले लोहरा परिवार के अनिल लोहरा करते हैं।

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