तो फिर 200 रुपए किलो अरहर दाल खाएंगे हम ?

Ashwani NigamAshwani Nigam   3 July 2017 12:38 PM GMT

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तो फिर 200 रुपए किलो अरहर दाल खाएंगे हम ?अरहर दाल

लखनऊ। देश में दूसरे सबसे ज्यादा अरहर उगाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में खरीफ के सीजन में अरहर की बुआई की रफ्तार काफी धीमी है, जिसका सीधा असर पहले उत्पादन व कीमतों पर पड़ेगा। उत्पादन कम होने से 2015 के अक्टूबर माह में अरहर दाल की कीमत दो सौ रुपए प्रति किलो तक पहुंच गई थी।

सिर्फ यूपी ही नहीं, पूरे देश में अरहर की बुवाई की रफ्तार पिछले साल के मुकाबले कम है। अब तक सिर्फ 5.97 लाख हेक्टेयर बुवाई हुई है। देश में महाराष्ट्र के बाद सबसे ज्यादा अरहर की पैदावार यूपी में होती है। यहां कृषि विभाग ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके मुताबिक इस खरीफ के सीजन में 3.37 लाख हेक्टेयर लक्ष्य का रखा था, लेकिन अब तक सिर्फ 0.50 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हुई है, जो महज 15 फीसदी है। अच्छा बुवाई का मुख्य समय जून-जुलाई के प्रथम सप्ताह तक होता है। ऐसे में कम बुवाई से कृषि विभाग के माथे पर चिंता की लकीरें आ गई हैं। बुवाई तय लक्ष्य तक नहीं हो पाई तो दालों की कीमतों पर असर पड़ेगा।

लखनऊ में अरहर दाल की थोक में कीमत 60 रुपए प्रति किलो है, लेकिन अक्टूबर 2015 में फुटकर कीमत 200 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गई थी। इस बार फिर दाल की कीमतें बढ़ने की आशंका इसलिए भी है, क्योंकि देश में दालों की मांग 3.30 करोड़ टन तक पहुंच चुकी है। इसमें अरहर दाल की मांग 1.80 करोड़ टन है, मगर उत्पादन करीब 1.02 करोड़ टन ही होता है। बाकी आयात होता है।

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अरहर की खेती दुनिया के चुनिंदा देशों में ही होती है। भारत के अलावा अफगानिस्तान, कनाडा, साउथ अफ्रीका और म्यांमार में अरहर की खेती होती है, इसलिए उत्पादन कम होने पर इसकी कीमतें तेजी से बढ़ती हैं। 2015 से सबक लेते हुए सरकार ने पूरे देश में दाल का रबका बढ़ाने की कोशिशें की थी, 2016 में उसका असर भी दिखा। लेकिन इस बार फिर रकबा घटता नजर आ रहा है।

झांसी जिले के बदगांव ब्लाक के बेहटा गांव के किसान मनीराम (50 वर्ष) फोन पर बताते हैं, ‘’अरहर की खेती में समय बहुत ज्यादा लगता है, पैदा भी कम होती है और कई बार तो उपज की अच्छी कीमत भी नहीं मिलती। इसलिए अब कम बोते हैं।” मनीराम की तरह वाराणसी जिला मुख्यालय से 22 किलोमीटर दूरी कपसेठी गांव के किसान राजेन्द्र सिंह भी अरहर से दूरी बना रहे हैं। वो बताते हैं, “हमारे पास खेत कम हैं, जो पुराने बीज (किस्में) हैं, उनसे ज्यादा उत्पादन नहीं होता, इसलिए अब दालों की जगह दूसरी फसलें ज्यादा उगाते हैं।”

अरहर की खेती से किसान इसलिए भी दूर हो रहे हैं कि यह फसल बहुत लंबी अवधि में तैयार होती है। जून में इसकी बुवाई करने पर यह फसल नवंबर के अंतिम सप्ताह या दिसंबर के पहले सप्ताह में तैयारी होती है। ऐसे में किसान खरीफ और रबी दोनों का समय यह फसल ले लेती है, जबकि इस दौरान किसान दो फसलें ले लेते हैं।

भारत के बड़े हिस्से में दाल का मतलब अरहर ही है। लखनऊ दाल एसोसिएशन के अध्यक्ष भरत भूषण बताते हैं, ‘’चाहे देश के उत्तरी इलाके का हो या दक्षिणी की हर जगह अरहर दाल की मांग सबसे ज्यादा है। सभी दालों में अरहर की खपत करीब 55 से 58 प्रतिशत के करीब है। मगर मांग और आपूर्ति में अंतर है जब ये अंतर ज्यादा हो जाता है कीमतें बढ़ जाती हैं।”

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अरहर से क्यों हो रहा किसानों का मोहभंग

उत्तर प्रदेश में पिछले पांच सालों में अरहर की बुवाई और इसके उत्पादन में लगातार उतार-चढ़ाव रहा है। साल 2010-11 में जहां अरहर की बुवाई का क्षेत्रफल 3.35 लाख हेक्टेयर था, वहीं 2014-15 में यह घटकर 2.88 हेक्टेयर रह गया था। प्रदेश में अरहर के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए चलाई जा रही कृषि विभाग की योजनाओं के बाद किसानों ने अरहर की खेती की तरफ दोबारा रुख किया। जिसके नतीजे में पिछले साल 2015-16 में अरहर की बुवाई का क्षेत्रफल 3.38 हो गया था। इससे उत्साहित होकर कृषि विभाग ने इस बार बुवाई का लक्ष्य 3.35 लाख रखा।

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हर व्यक्ति की थाली में 50 ग्राम से भी कम दाल

विश्व खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 104 ग्राम दालों उपलब्ध होनी चाहिए लेकिन भारत में यह 50 ग्राम से भी कम है। दालों की उपलब्धता कम से कम 50 ग्राम करने के लिए भारत सरकार ने साल 2006 में दालों के निर्यात पर पाबंदी लगाने के साथ ही साल 2030 तक 32 मिलियन टन दालों के उत्पादन का लक्ष्य रखा है। उत्तर प्रदेश में देश की कुल दालों का 16 प्रतिशत उत्पादन होता है।

महाराष्ट्र नंबर एक तो यूपी उत्पादन में नंबर दो

अरहर की दाल के मुख्य उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश हैं। देश में अरहर की खेती और उत्पादन में उत्तर प्रदेश का दूसरा स्थान है, जबकि अभी दालों के उत्पादन में मध्य प्रदेश पहले पायदान पर काबिज है।

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