भारत में कृषि के ये हैं प्रचलित तरीके, देश भर के किसान करते हैं इस तरह खेती

Anusha MishraAnusha Mishra   6 Oct 2017 5:57 PM GMT

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भारत में कृषि के ये हैं प्रचलित तरीके, देश भर के किसान करते हैं इस तरह खेतीभारत में खेती के तरीके

लखनऊ। बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण भात में कई तरह की खेती का विकास हुआ है लेकिन खेती के तरीके निश्चित नहीं हैं। भौगोलिक पर्यावरण और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में बदलाव के अनुसार इन्हें बदला जा सकता है या पहले से बेहतर किया जा सकता है। यहां हम आपको बता रहे हैं खेती के कुछ ऐसे तरीकों के बारे में जिनके अनुसार भारत के ज़्यादातर क्षेत्रों में खेती की जाती है। हालांकि भारत में पशुपालन यानि डेयरी डेयरी फार्मिंग को खेती से अलग रखा जाता है लेकिन दुनिया के बाकी हिस्सों में यह खेती के तरीकों में ही शामिल किया जाता है।

स्थानांतरण कृषि (Shifting Agriculture) :

इस तरह की खेती वहां होती है जहां जंगल होते हैं और भारी वर्षा होती है। किसान पेड़ों और झाड़ियों को काटकर व उनको जलाकर मैदान को साफ करते हैं। इसके बाद साफ मैदान पर दो तीन साल तक पुराने उपकरणों की मदद से खेती की जाती है। यहां खाद का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया जाता। कुछ समय बाद मिट्टी में जोक हो जाते हैं और यह अनुत्पादक हो जाती है। ऐसी भूमि पर घास और अवांछित वनस्पतियां उग आती हैं। इसके बाद किसान जंगल के दूसरे हिस्से में इसी तरह की प्रक्रिया दोहराता है और वहां खेती करता है।

फसल स्थानांतरण का ये तरीका अभी भी उत्तर पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों जैसे उड़ीसा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ हिस्सो में छोटे पैमाने पर किया जाता है इसे असम में झूम खेती, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में पोडू, मध्य प्रदेश में बेवर और केरल में पोनम कहा जाता है।

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जीविका कृषि (Subsistence Agriculture) :

इस तरह की खेती ज़्यादातर एक परिवार के जीवन निर्वाह के लिए की जाती है। किसान कई तरह की फसलों का उत्पादन करता है और यह उत्पादन परिवार की ज़रूरतों के आधार पर ही होता है। खेत छोटे होते हैं और उपज कम होती है। किसान गरीब होते हैं। इस तरह के किसान पुराने और परंपरागत तरीके के उपकरणों का इस्तेमाल करके खेती करते हैं।

इस तरह की खेती में सभी प्रकार की खाद, जैसे कि घर के कचरे, पशु के गोबर, हरी खाद, रात की मिट्टी और कुछ रासायनिक उर्वरक का उपयोग किया जाता है। ये खेती सामान्य तौर पर असम और हिमालय क्षेत्र के आदिवासी इलाकों में की जाती है। यहां की ज़्यादातर आबादी को ठीक से खाने को नहीं मिलता और इनके शरीर में पोषक तत्वों की कमी रहती है। इन क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा चावल की खेती की जाती है।

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सघन कृषि (Intensive Agriculture) :

इस तरह की खेती ऐसे इलाकों में की जाती है जहां की जनसंख्या ज़्यादा होती है और खेती के लिए ज़मीन कम होती है। यहां के किसान ज़मीन के छोटे टुकड़ों पर ही खेती करके ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन की कोशिश करते हैं। ये किसान एक साल में एक से ज़्यादा फसलों की खेती करते हैं। सघन कृषि बड़े स्तर पर उत्तर भारत के समतल मैदानों व तटीय क्षेत्रों में होती है जहां सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो। इस तरह की कृषक की कुछ विशेषताएं होती हैं -

  1. छोटे खेतों की जोत।
  2. जल आपूर्ति सिंचाई से अधिक होती है।
  3. उच्च उपज देने वाली किस्मों का उपयोग किया जाता है।

  1. हरी खाद और रसायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है।
  2. फसल को सुरक्षित रखने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है।
  3. नई तकनीक और वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल खेती करने के लिए किया जाता है।

व्यापक कृषि (Extensive Agriculture) :

इस प्रकार की कृषि कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में की जाती है जहां खेती के लिए ज़मीन अच्छी खासी होती है। यहां के किसान एक या दो तरीके की व्यावसायिक खेती में निपुण होते हैं। भारत में हिमायल के तराई क्षेत्र और उत्तर पश्चिमी राज्यों में व्यापक कृषि बड़े स्तर पर होती है। इस तरह की कृषि की ये मुख्य विशेषताएं होती हैं।

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  1. बड़ी उपज की जोत और खेती के लिए मशीनों का इस्तेमाल।
  2. मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाने के लिए अलग से किसी खास रख रखाव की ज़रूरत नहीं होती।

  1. कुल उत्पादन ज़्यादा होता है लेकिन उपज कम होती है।
  2. किसान बिक्री के लिए फसलों का बंपर उत्पादन करते हैं।
  3. अधिक उत्पादन के कारण स्टोरेज फैसिलिटी की ज़रूरत पड़ती है।

बागान कृषि ( Plantation Agriculture) :

इस तरह की खेती यूरोप के लोगों द्वारा ट्रॉपिकल और सबट्रॉपिकल क्षेत्रों में की जाती है। बागान खेती बड़े कृषि क्षेत्रों में की जाती है, जिनका स्वामित्व कंपनियों के पास होता है। भारत में मुख्यत: चाय, कॉफी, नारियल और रबर की बागान खेती की जाती है। इस तरह की खेती की भी कुछ विशेषताएं होती हैं -

  1. बड़ी उपज की जोत
  2. खेती के वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल
  3. सस्ता और कुशल श्रमिक
  4. उच्च प्रबंधकीय क्षमता की आवश्यकता
  5. वार्षिक फसलें बारहमासी फसलों से कम अनुकूल होती हैं
  6. खेती विशेष तरह की मशीनों की मदद से होती है
  7. खेती का उद्देश्य ज़्यादा उपज और अच्छी क्वालिटी का उत्पादन होता है
  8. पौधों को औद्योगिक इकाइयों की तरह प्रबंधित किया जाता है

व्यावसायिक खेती ( Commercial Agriculture) :

व्यावसायिक खेती का मुख्य उद्देश्य होता है इस तरह की फसलों का उत्पादन जिनको बाज़ार में बेंचा जा सके। ये सघन खेती भी हो सकती है और व्यापक खेती भी। उत्पादन की लागत कम रखने के लिए खेती की कई तरह की आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। यह आम तौर पर विरल आबादी वाले क्षेत्रों में की जाती है।

भारत में व्यावसायिक खेती ज़्यादा प्रचलित नहीं है क्योंकि यहां की भूमि पर अधिक जनसंख्या का भार है। हाल ही में कई तरह के भूमि सुधारों के कारण, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और कुछ अन्य हिस्सों में व्यावसायिक खेती का विकास हुआ है। इस तरह की खेती में गेहूं, गन्ना, कपास, जूट और तिलहनी फसलों का उत्पादन होता है।

मिश्रित खेती ( Mixed Agriculture) :

इस तरह की खेती में फसलों की खेती के साथ साथ पशुओं को भी पाला जाता है। पशुपालन और फसलों को बदल कर लगाना इसमें महत्वपूर्ण होता है। यह घनी आबादी वाले क्षेत्रों में प्रचलित है। इस खेती में आम तौर पर पैदावार उच्च होती है। खेती के कुशल तरीके, परिवहन के त्वरित साधन और आसपास के क्षेत्रों में तैयार बाजारों से किसानों को अच्छा फायदा मिलता है।

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डेयरी उद्योग ( Dairy Farming) :

औद्योगिक शहरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस तरह की खेती का विकास किया गया है। शहरी इलाकों में रहने वाले और काम करने वाले लोगों के लिए डेयरी उत्पादों को उपलब्ध कराने के लिए बड़े शहरों के पास दूध देने वाले पशुओं को पाला जाता है। इस तरह की खेती की भी कुछ विशेषताएं होती हैं।

  1. मवेशियों की देखभाल के लिए इसमें अधिक श्रम की आवश्यकता होती है।
  2. इसमें भारी पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है।
  3. बड़े डेयरी उद्योगों में मशीनें इस्तेमाल की जाती हैं।
  4. उत्पाद जल्दी ख़राब होने का ख़तरा रहता है इसलिए रेफ्रिजरेशन सुविधा की भी ज़रूरत होती है।

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