देश में बढ़ती गर्मी से कम हो सकती हैं नौकरियाँ, महिला खेतिहर मज़दूरों पर होगा ज़्यादा असर

भारत में गर्मी का प्रकोप बढ़ रहा है और बाहर जाकर काम करने वाली खेतिहर महिला मज़दूर सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ आने वाले समय में जहाँ इससे मज़दूरों के काम के घंटों में कमी आएगी नौकरियाँ भी कम होंगी।

Aishwarya TripathiAishwarya Tripathi   21 July 2023 6:08 AM GMT

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देश में बढ़ती गर्मी से कम हो सकती हैं नौकरियाँ, महिला खेतिहर मज़दूरों पर होगा ज़्यादा असर

झुलसती गर्मी में भी काम करना 72 साल की राम जानकी जैसी महिलाओं की मजबूरी है, क्योंकि खेती के बुवाई, निराई-गुड़ाई, सिंचाई से लेकर कटाई तक के ज़रूरी काम महिलाएँ ही करती हैं। सभी फोटो: ऐश्वर्या त्रिपाठी। 

उन्नाव और महोबा, उत्तर प्रदेश। अपनी कमर झुकाए 72 साल की राम जानकी ख़ेत में मूँग की फलियाँ तोड़ने में व्यस्त थीं। वह इस काम में सुबह से लगी हुई थीं। जब गाँव कनेक्शन ने उनसे मुलाक़ात की तो दोपहर का समय हो चुका था।

उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के गाँव कुर्मापुर में चिलचिलाली दोपहर के बावज़ूद इस महिला किसान ने काम करना बंद नहीं किया। हालाँकि उन्होंने हमसे अपने सिरदर्द और कमज़ोरी के बारे में शिकायत की थी।

अभी कुछ दिन पहले, तेज़ गर्मी और जून के बीच में उत्तर भारत के कई हिस्सों में चल रही लू के दौरान राज्य के बलिया और देवरिया जिलों में कई लोगों की मौत की ख़बरें आई है। इन गर्म हवाओं के थपेड़ों को राम जानकी जैसी उन ग्रामीण महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा चुपचाप झेल रहा है, जो ख़ेत मज़दूरों के रूप में काम करती हैं। लेकिन कुछ ऐसी भी हैं जिनकी गर्मी से बिगड़ती सेहत के कारण उनके काम के घंटों में कमी हो रही हैं, जिसका सीधा मतलब हैं आमदनी में कमी।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि भारत 2030 तक गर्मी और उमस के कारण अपने कुल श्रम घंटों का लगभग 5.8 प्रतिशत खो देगा। बढ़ती गर्मी के कारण कृषि क्षेत्र में श्रम घंटों की हानि का भारत पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।

फलियाँ तोड़ने के बाद, राम जानकी ने उन्हें अपनी सिंथेटिक साड़ी के पल्लू में इकट्ठा किया और फिर आगे बढ़ गईं। उन्होंने पानी पीने के लिए भी रुकना मुनासिब नहीं समझा और सूखी मूँग से दाल निकालने के अपने अगले काम में लग गई।


“इतनी (10 किलो) मूँग पीटने में दिन भर लग जाएगा।” राम जानकी ने साड़ी से अपना पसीना भरा चेहरा पोंछते हुए कहा। वह आगे कहती हैं, “अगर हम इसे बाद के लिए छोड़ देंगे, तो नमी से इसमें फंगस लग जाएगी और पूरी फ़सल खराब हो जाएगी।”

यह समय से आगे जाने की एक दौड़ है क्योंकि मानसून के आने से पहले उन्हें 110 किलो मूँग को तोड़ना है। हालांकि मानसून पहले ही देश के दक्षिणी तट पर पहुँच चुका है। अभी तक दाल निकालने का काम सिर्फ 10 प्रतिशत ही पूरा हो पाया है। राम जानकी को गर्मी या सिरदर्द की कोई परवाह नहीं थी।

यह याद दिलाए जाने पर कि उम्र और अन्य बीमारियों को देखते हुए राम जानकी जैसे बुजुर्गों को हीट स्ट्रोक होने का सबसे ज़्यादा ख़तरा होता है, किसान ने कंधे उचकाए और कहा, “तो फिर मूँग कौन पीटेगा? मैं बटाई ज़मींदार के साथ क्या साझा करूँगी?”

राम जानकी के साथ उनकी बहू 35 साल की मोहिनी भी थी, जो बटाई (पट्टे) पर ली गई पाँच बीघे ज़मीन पर काम करने में जानकी की मदद कर रही थी। पट्टे पर ली गई ज़मीन में व्यवस्था के मुताबिक़ , जानकी को अपनी फ़सल का आधा हिस्सा ज़मींदार के साथ साझा करना पड़ता है।

जनगणना 2011 के अनुसार, भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है और कुल कार्यबल का लगभग 54.6 फीसदी हिस्सा कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों में लगा हुआ है।और ग्रामीण महिलाएं देश के कृषि क्षेत्र की रीढ़ हैं।

श्रम और रोज़गार मंत्रालय की 2023 में जारी वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि कृषि क्षेत्र में लगे कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी 41 प्रतिशत है।

इन गर्म हवाओं के थपेड़ों को राम जानकी जैसी उन ग्रामीण महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा चुपचाप झेल रहा है, जो ख़ेत मज़दूरों के रूप में काम करती हैं।

वहीं, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के आँकड़े बताते है कि प्रमुख फ़सलें पैदा करने वालों में 75 प्रतिशत महिलाएँ हैं, बागवानी में लगे लोगों में 79 प्रतिशत और फ़सल कटाई के बाद का काम करने वालों में महिलाओं की भागीदारी 51 प्रतिशत है।

यही वजह है कि बदलती जलवायु में, बढ़ते वायुमंडलीय तापमान और बढ़ती हीटवेव के साथ, बाहरी ख़ेती गतिविधियों में लगी महिलाओं को सबसे अधिक ख़ामियाजा भुगतना पड़ रहा है।

लिंग और सामुदायिक संस्थानों की विशेषज्ञ शिल्पा वसावदा ने कहा, "कृषि में ज़्यादातर मेहनत और शारीरिक श्रम का काम महिलाओं को सौंपा जाता है। इसकी वजह, से उन्हें जलवायु परिवर्तन और भीषण गर्मी को सबसे ज़्यादा झेलना पड़ता है।"

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "हीटवेव का समय और तीव्रता दोनों बढ़ रहे है, जो न सिर्फ उनके स्वास्थ्य को बल्कि उनकी कमाई को भी प्रभावित कर रहे है। क्योंकि ज़्यादातर महिलाएँ दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करती हैं।"

जब सीता बीमार पड़ीं थी, तो उस दौरान भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को लू की चेतावनी दी थी और लोगों को घर के अंदर रहने के लिए कहा था।

राम जानकी के गाँव से 200 किलोमीटर से अधिक दूरी पर महोबा ज़िले का मिरतला गाँव है, जहाँ चार बच्चों की माँ सीता 23 दिनों से काम पर नहीं जा पाई हैं। इस साल अप्रैल में भीषण गर्मी के कारण, जब वह गेहूँ और मटर की कटाई में लगी हुई थीं, तब वह बीमार पड़ गईं। 14 अप्रैल को, सीता जिस खेत में काम कर रही थी, वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ी थी।

30 वर्षीय खेत मज़दूर ने बताया, “दो बोतल पानी चढ़ा था (मुझे दो बोतल ग्लूकोज चढ़ा था)। इसके तुरंत बाद, मुझे तेज़ बुखार हो गया और मेरे पैरों में कंपकंपी होने लगी।''

जब सीता बीमार पड़ीं थी, तो उस दौरान भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने पूर्वी उत्तर प्रदेश (जहाँ महोबा स्थित है) को लू की चेतावनी दी थी और लोगों को घर के अंदर रहने के लिए कहा था। लेकिन सीता जैसे मज़दूरों के पास कोई विकल्प नहीं है। आखिरकार, उनकी आय उनके छह लोगों के परिवार को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

सीता के गिरते स्वास्थ्य के कारण वह 23 दिनों तक काम नहीं कर पाई थी। इसकी वज़ह से उन्हें रोज़ाना 250 रुपये का नुकसान हुआ, जो कुल मिलाकर 5,750 रुपये बैठता है। इसके अलावा, उन्हे अपने इलाज़ में 17,00 रुपये ख़र्च करने पड़े, जिससे उन पर वित्तीय बोझ बढ़ गया।

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “अभी भी मैं पूरी तरह से ठीक महसूस नहीं कर रही हूँ। मेरे पैरों में कमजोरी हैं और मेरे पास काम करने की ताकत नहीं बची है।''

भारत में बढ़ती गर्मी का प्रकोप

भारत में शुरुआती गर्मियों के दौरान गंभीर गर्मी की लहरों के प्रभाव के तहत, जलवायु पारदर्शिता रिपोर्ट 2022 में अनुमान लगाया गया है कि 1986-2006 के औसत से लगभग 14.2 करोड़ से ज़्यादा लोग सालाना गर्मी की लहर के खतरे के संपर्क में आए हैं और 17 लाख से ज़्यादा लोगों की फ़सल बर्बाद होने की आशंका है।

रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है, "छोटे और सीमांत किसान, जो भारत की किसान आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा हैं, खास तौर पर असुरक्षित हैं।" ज़्यादा पसीना , थकावट और पानी की कमी शारीरिक श्रम वाले व्यवसायों में जुड़े मज़दूरों को कुशलतापूर्वक काम करने से रोकती है और गर्म हवाओं के कारण उनके श्रम के घंटे का नुकसान होता है।

सोशल पॉलिसी रिसर्च फाउंडेशन द्वारा दर्ज किया गया है कि, 2001 और 2020 के बीच, भारत में नमी और गर्म हवाओं के चलते सालाना लगभग 259 बिलियन घंटे का श्रम का नुकसान हुआ। देखा जाए तो इससे भारत को कुल 46 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

आईएमडी की अप्रैल 2023 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि "हीटवेव की फ्रीक्वेंसी, उसका समय और उनकी अधिकतम अवधि बढ़ रही है, जिसका कारण ग्लोबल वार्मिंग है"।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) मॉडल अनुमानों से पता चलता है कि 2060 तक लगभग दो हीट वेव आया करेंगी और हीट वेव की अवधि 12-18 दिनों तक बढ़ जाएगी।

महोबा के लमोरा गाँव में मिथिलेश रेकुआर को भिंडी के पौधों से खरपतवार निकालने के लिए पूरा दिन काम करना पड़ता है।

अधिक चिंताजनक पहलू जलवायु रुझान रिपोर्ट 2022 है जिसमें विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का उल्लेख किया गया है, कि अगर उत्सर्जन में वृद्धि जारी रही तो वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच सकता है।

वेट-बल्ब तापमान आर्द्रता के साथ शुष्क हवा के तापमान (जैसा थर्मामीटर पर दर्ज़ किया गया है) का एक संयोजन है। यह उस बिंदु को बताता है जिस पर मानव शरीर खुद को ठंडा करने में असमर्थ होता है और जिससे हार्ट स्ट्रोक जैसे जोख़िम हो सकते हैं।

रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि "31°C का वेट-बल्ब तापमान मनुष्यों के लिए बेहद ख़तरनाक है, जबकि 35°C के मान के साथ लगभग 6 घंटे से अधिक समय तक जीवित रहना मुश्किल है, यहाँ तक कि छाया में आराम करने वाले फिट और स्वस्थ वयस्कों के लिए भी"।

हैदराबाद के भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) के अनुसंधान निदेशक और सहायक एसोसिएट प्रोफेसर अंजल प्रकाश ने कहा, “यह निर्माण कार्यों और कृषि क्षेत्रों में कार्यरत बाहरी श्रमिकों के लिए घातक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन भी प्रवासन का कारण बन रहा है, घरेलू ज़िम्मेदारी , कृषि से जुड़ी सेवाओं और अपनी आर्थिक स्थिति से निपटने के मामले में महिलाओं पर अधिक बोझ डाल रहा है।”

अंतिम छोर पर महिला ख़ेत मज़दूर

गर्म लू के थपेड़े राम जानकी और सीता जैसी महिला खेत मज़दूरों के स्वास्थ्य पर भारी पड़ रहे हैं। राम जानकी के 80 वर्षीय पति मनीराम याद करते हुए बताते हैं कि वह एक बार बुखार और दस्त से बुरी तरह पीड़ित थीं, बावज़ूद इसके वह डॉक्टर को दिखाने के लिए तैयार नहीं थीं।

उन्होंने कहा, “बहुत समझाने के बाद वह कुछ दवाएँ लेने के लिए गाँव के एक झोलाछाप (नीम-हकीम) के पास गई। जब भी वह बीमार पड़ती है तो वह मुश्किल से ही डॉक्टर के पास जाती है।''

राम जानकी भारत के उन 90 प्रतिशत श्रमिकों से जुड़ी हैं, जो अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं और उन्हें कोई सामाजिक या स्वास्थ्य बीमा नहीं मिलता है। उसकी सीमित आय उसे अपने स्वास्थ्य पर खर्च करने में अनिच्छुक बनाती है।

राम जानकी ने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैं बीमार नहीं पड़ती, मुझे गर्मी की आदत है।"

राम जानकी के गाँव से लगभग 200 किलोमीटर दूर, महोबा के लमोरा गाँव में मिथिलेश रेकुआर को भिंडी के पौधों से खरपतवार निकालने के लिए पूरा दिन काम करना पड़ता है।


महोबा बुन्देलखण्ड क्षेत्र में स्थित है जहाँ गर्मियों के दौरान काफी ज़्यादा गर्मी पड़ती है। मिथिलेश रेकुअर ने मई के चरम में, बेरहम गर्म हवाओं और चकाचौंध भरी धूप में दिन भर काम किया था। उसे अपना सिर और चेहरा साड़ी के घूँघट से ढक कर रखना पड़ता है।

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “चाहे कितनी भी गर्मी क्यों न हो, मैं अपना सिर और चेहरा नहीं उघाड़ सकती हूँ क्योंकि मेरे जेठ भी पास में ही काम करते हैं। मैं घूंघट नहीं हटा सकती।''

पौधों की रोपाई, निराई-गुड़ाई, कटाई, फसल को लाना ले-जाना, मड़ाई, घास सुखाने जैसी मुश्किल शारीरिक काम पूरी तरह या मुख्य रूप से महिलाएँ ही करती हैं। मशीनी काम के अलावा, पुरुषों के काम में खेत की बाड़ लगाना भी शामिल है।

वसावदा ने महिलाओं में निर्णय लेने की कमी की ओर इशारा करते हुए कहा, "ये कार्य पारंपरिक रूप से महिलाओं को सौंपे गए हैं, जिन्हें वह खुद से अस्वीकार नहीं कर सकती हैं।"

मनीराम ने कहा, “फसल काटने के बाद हाथ से सब्जियां चुनना, खरपतवार साफ करना, निराई, गुड़ाई (जुताई) जैसे छोटे-छोटे काम ये महिलाएँ करती हैं। हम लोग भारी काम करते हैं। ”

भारी काम के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, “बीज़ बोने के लिए ट्रैक्टर किराए पर लेना पड़ता है और काम पर नज़र रखने के लिए मेरा बड़ा बेटा उस तरह के काम के लिए खेत आता है।”

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की अनुमोदन समिति के निर्देशों के बाद भी , दिल्ली स्थित सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट, सोशल पॉलिसी रिसर्च फाउंडेशन की मार्च, 2021 की रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया कि कृषि क्षेत्र के लिए अधिकांश राज्यों में प्रस्तावित अनुकूलन रणनीतियों में क्षेत्र के भीतर लिंग-आधारित मुद्दों को संबोधित करने के लिए व्यापक दृष्टिकोण का अभाव है।

(यह लेख लाडली मीडिया फ़ेलोशिप, 2023 के तहत लिखा गया है। सभी राय, व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं। लाडली और यूएनएफपीए आवश्यक रूप से विचारों का समर्थन नहीं करते हैं।)

#heatwave #Women Farmer 

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