किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे उनका क्या होगा?

Jamshed QamarJamshed Qamar   23 April 2019 5:42 AM GMT

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किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे उनका क्या होगा?गुलज़ार 

तेज़ रफ्तार ज़माने में इंसान की राब्ता किताबों से छूटता जा रहा है। किताबों के कई विकल्प वक्त के साथ-साथ इजाद कर लिये गए लेकिन जो बात किताबों में है वो किसी और चीज़ में नहीं। लाइक्स, शेयर और कॉमेंट की इस दौड़ में पढ़ने का मतलब दरअसल स्क्रीन देखना हो गया है, वो चाहे मोबाइल की स्क्रीन हो या कंप्यूटर की।

बीते कुछ सालों में एक आम इंसान का लाइब्रेरी से रिश्ता कमज़ोर हुआ है और इसकी सबसे बड़ी वजह मोबाइल क्रांति है। विश्व पुस्तक दिवस के मौके पर गुलज़ार की एक नज़्म बड़ी शिद्दत से याद आती है। आप भी देखिए,

नज़्म यहां पढ़ें

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं.
कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक'करने से अब
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

गुलज़ार


    

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