लता मंगेशकर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाने वाले संगीतकार की कहानी

Shivendra Kumar SinghShivendra Kumar Singh   7 July 2017 8:08 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
लता मंगेशकर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाने वाले संगीतकार की कहानीलता म‍ंगेशकर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाने वाले संगीतकार सलिल चौधरी 

यूं तो ये किस्सा फिल्मी दुनिया में मशहूर है। शायद आपने सुना भी होगा लेकिन आज के कलाकार की किस्सागोई इसी किस्से से निकलती है। दरअसल 1959 से पहले गायकों को फिल्मफेयर अवॉर्ड नहीं दिया जाता था। ये अवॉर्ड संगीतकारों के लिए तो था लेकिन गायकों के लिए नहीं। गायकों को फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाने की लड़ाई लता मंगेशकर ने लड़ी।

ये लड़ाई तब शुरू हुई जब उन्होंने 1957 में आई फिल्म ‘चोरी चोरी’ के लिए चुने गए संगीतकार शंकर जयकिशन की अवॉर्ड सेरेमनी में गाना गाने से मना कर दिया। लता जी का तर्क था कि शंकर जयकिशन को अवॉर्ड फिल्म के संगीत के लिए मिल रहा है ना कि उनकी गायकी के लिए, ऐसे में उनका गाना गाना ठीक नहीं है। बाद में फिल्मफेयर अवॉर्ड के आयोजकों को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने गायकों के लिए भी फिल्मफेयर अवॉर्ड की कैटेगरी शुरू कर दी।

दिलचस्प बात ये है कि अगले साल जो पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड गायक को मिला उसके लिए लता मंगेशकर को ही चुना गया। क्या आप जानते हैं कि उस गीत को तैयार करने वाले संगीतकार कौन थे, आज किस्सागोई में बात सलिल चौधरी यानि सलिल दा की। वो गाना था ‘आ जा रे मैं तो कब से खड़ी इस पार’ और फिल्म का नाम था-मधुमती। ऐसा कहा जाता है कि इस फिल्म में संगीत देने के लिए विमल रॉय, एसडी बर्मन के पास गए थे लेकिन बर्मन दा ने खुद सलिल चौधरी के नाम की पैरवी की थी।

पढ़ें: वो कलाकार जिसका सिर्फ इतना परिचय ही काफी है- बनारसी गुरु और बांसुरी

भारतीय संगीत में सलिल चौधरी या सलिल दा का नाम बहुत इज्जत से लिया जाता है। सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री को एक से बढ़कर एक बेहतरीन नगमें दिए हैं बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें एक ‘थिंकिंग कंपोजर’ माना जाता था। वो ना सिर्फ संगीतकार थे बल्कि एक बेहतरीन लेखक और नाटककार भी थे। नाटक का उनकी जिंदगी में बड़ा योगदान था। सलिल दा की जिंदगी के किस्से एक से बढ़कर एक हैं।

सलिल चौधरी का जन्म 19 नवंबर 1922 को को पश्चिम बंगाल के हरिनावी गांव में हुआ था। उनके जन्म के साल को लेकर थोड़ा भ्रम है। कुछ जगहों पर उनके जन्म का साल 1923 भी बताया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि उनके पिता डॉक्टर थे लेकिन वो भी थोड़ा बहुत नाटकों से जुड़े हुए थे इसलिए सलिल चौधरी को एक कलात्मक माहौल घर से ही मिला। उन्होंने अपने पिता के इकट्ठे किए हुए संगीत को सुनना शुरू किया। 22 साल की उम्र में वो पढ़ाई के सिलसिले में कोलकाता आ गए। इस वक्त तक उन्होंने संगीत बनाने का काम शुरू कर दिया था। उनके तैयार किए गए कुछ बंगाली गानों को पहचान भी मिल चुकी थी। इसी दौरान सलिल चौधरी इंडियन पीपुल थिएटर एसोसिएशन यानी ‘इप्टा’ से जुड़ गए।

पढ़ें: क़िस्सा मुख़्तसर : साहिर के दौ सौ रुपए, उनकी मौत के बाद कैसे चुकाए जावेद अख़्तर ने

सलिल चौधरी अपने एक इंटरव्यू में इप्टा के दिनों की याद ताजा करते हुए खुद ही बताते हैं कि उस दौर में उनके साथ गाने लिखने वाले, ढोल बजाने वाले लोग अक्सर किसान होते थे। ये सभी आम लोग थे। यहीं पर सलिल चौधरी की जान पहचान मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी और बलराज साहनी जैसे नामों से हुई।

फिल्म मधुमती का एक सीन

सलिल का मुंबई का सफर अभी शुरू नहीं हुआ था। हालांकि मुंबई के सफर की एक दिलचस्प कहानी ये है कि एक बार कोलकाता से मुंबई आते वक्त वो रास्ते में गायब हो गए। काफी दिनों तक उनकी कोई खोज खबर नहीं मिली। हर कोई परेशान था। घर परिवार से लेकर जान-पहचान के सभी लोगों को फिक्र सता रही थी कि सलिल कहां चले गए। जाहिर है ये उस दौर की बात है जब मोबाइल फोन या टेलीफोन का दौर नहीं था इसलिए किसी को खोजना बड़ा मुश्किल काम होता था। बाद में एक रोज सलिल चौधरी स्वयं ही हाजिर हो गए। उन्होंने बड़ी ही मासूमियत से बताया कि दरअसल वो तो काफी समय से एक गांव में रह रहे थे क्योंकि उन्हें वहां के माहौल में घुले-मिले संगीत को समझना था। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपनी पहली फिल्म में संगीत दिया। वो एक बंगाली फिल्म थी- परिबोर्तन (परिवर्तन) जो 1949 में रिलीज हुई थी।

इसके ठीक चार साल बाद हिंदी फिल्मी में सलिल चौधरी का सफर शुरू हुआ। 1953 में उन्होंने पहली हिंदी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में संगीत दिया। इस फिल्म को जबर्दस्त कामयाबी मिली। फिल्मफेयर अवॉर्ड से लेकर नेशनल अवॉर्ड तक सबकुछ मिला। इसके बाद से ही सलिल चौधरी की धाक बनती चली गई।

पढ़ें: #WorldMusicDay झांसा मिला हीरो बनने का और बन गए संगीत निर्देशक

अपने लंबे करियर में सलिल चौधरी ने कई लोकप्रिय फिल्मों में संगीत दिया। जिसमें ‘जागते रहो’, ‘मुसाफिर’, ‘मधुमती’, ‘काबुलीवाला’, ‘सारा आकाश’, ‘आनंद’, ‘रजनीगंधा’, ‘मौसम’ जैसी फिल्मों का संगीत कोई कैसे भूल सकता है। ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ सिर्फ एक ही गाना ऐसा है जो सदियों-सदियों तक सलिल चौधरी को जिंदा रखेगा। इसके अलावा उन्होंने दर्जनों हिट नगमें तैयार किए। इसमें ‘जिंदगी ख्वाब है ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या’, ‘जागो मोहन प्यारे’, ‘चढ़ गयो पापी बिछुआ’, ‘दिल तड़प तड़प के कह रहा है’, ‘सुहाना सफर और ये मौसम हसीं’, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’, ‘कई बार यूं ही देखा है’, ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ और ‘मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने’ प्रमुख गाने हैं।

फिल्म आनंद का गीत ‘जिंदगी कैसी ये पहेली हाय’

पचास के दशक में सलिल चौधरी ने बॉम्बे क्वायर भी बनाया था। उन्होंने तमाम फिल्मों का बैकग्राउंड संगीत भी तैयार किया। सलिल चौधरी ने ज्योति चौधरी से शादी की थी। ज्योति चौधरी से सलिल दा को तीन बेटियां थीं। बाद में सलिल चौधरी ने गायिका सविता चौधरी से दूसरी शादी की। उनसे भी उन्हें संतान हुई। इसी दौरान 70 के दशक में हिंदी फिल्मों में संगीत देने से उनका मन उचट गया तो वो वापस कोलकाता चले गए। वहां उन्होंने कई बंगाली फिल्मों में संगीत दिया। सलिल चौधरी ने मलयालय फिल्मों में भी संगीत दिया। हिंदी फिल्मों से कटने के बाद भी सामाजिक न्याय के मुद्दों पर वो बेहद सक्रिय रहे।

हेमंत कुमार और सलिल चौधरी के बीच का झगड़ा बहुत मशहूर था। ऐसा कहा जाता है कि दोनों को लगता था कि उन्होंने एक-दूसरे को पहचान दिलाई। हेमंत कुमार को लगता था कि अगर उन्होंने सलिल चौधरी के कंपोज किए गए गाने ना गाए होते तो सलिल चौधरी को इंडस्ट्री में पहचान नहीं मिली होती जबकि सलिल चौधरी को लगता था कि हेमंत कुमार की पहचान ही उनके कंपोज किए गए गानों की वजह से हुई। बाद में ये गलतफहमी दूर तो हुई लेकिन तब तक दोनों फिल्म इंडस्ट्री में अपना ‘क्लामैक्स’ देख चुके थे। जमाना बदल चुका था। जाहिर है दोनों को वैसी कामयाबी नहीं मिली जैसी उन्हें उम्मीद थी। 5 सितंबर 1995 को सलिल चौधरी ने दुनिया को अलविदा कहा।

फिल्म और संगीत की दुनिया को अलग से समझने के पढ़िए महफिल

       

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.