पंचायतों में महिलाओं की मौज़ूदगी से ऐसे बदल रही है गाँवों की तस्वीर

जब महिलाएँ दकियानूसी सोच को छोड़, घर की दहलीज़ पार करती हैं और स्थानीय निकायों में काम सँभालती हैं तो क्या कोई बदलाव आता है? कई लोगों का मानना है कि जब पूरे पँचायत की ज़िम्मेदारी किसी महिला के हाथ आती है तो वो पानी और लड़कियों की शिक्षा जैसे मुद्दों पर बेहतर काम करतीं है। बुंदेलखंड के गाँवों से स्पेशल रिपोर्ट।

Aishwarya TripathiAishwarya Tripathi   30 May 2023 8:52 AM GMT

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मामना गाँव (महोबा), उत्तर प्रदेश। महोबा के मामना गाँव की पँच रह चुकी पनकुंवर अपने गाँव की महिलाओं के लिए मिसाल हैं।

दरअसल पँचायत सदस्य के रूप में चुने जाने के बाद भी उनको रबर स्टैंप से ज़्यादा अहमियत नहीं दी जाती थी। अक्सर प्रधान रजिस्टर पर दस्तख़त लेने के लिए किसी न किसी को उनके पास भेज देते थे। लेकिन एक दिन उनके इसपर एतराज़ और सवाल पूछने से ये परम्परा ही ख़त्म हो गई।

अब उनके गाँव में कोई महिला पँच घर बैठे किसी कागज़ पर साइन नहीं करतीं बल्कि गाँव के विकास की योजनाओं को पूरा करने की तारीख़ तय करवाती हैं।

पनकुंवर 2011 से 2021 तक लगातार दो बार उत्तर प्रदेश के महोबा ज़िले के कबरई ब्लॉक में ममना ग्राम पँचायत की पँच रही हैं।

पनकुंवर कहती हैं, "जब मैंने पूछा क्या साइन कराया जा रहा है तो मुझे बताया गया कि यह इस बात को साबित करने के लिए है कि मैं पँचायत की बैठकों में मौज़ूद थी और अपने ग्राम पँचायत की तरफ से किए गए काम से सहमत हूँ।" पनकुंवर ने हँसते कहा कि उसके बाद से मैं उनसे सवाल करती रही हूँ।

तीस साल पहले, 1992 में जब भारत ने अपने सँविधान में 73वां और 74वां संशोधन करते हुए ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कीं थीं, तो उसका मक़सद महिलाओं और विशेष रूप से दूसरे पिछड़ें या उपेक्षित रहने वाले समूहों, जैसे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व तय करना था। कई राज्यों में तो 50 फीसदी तक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

लेकिन क्या महिलाओं का दकियानूसी विचारों को पीछे छोड़, दहलीज़ पार करने और स्थानीय निकायों में काम संभालने से कोई बदलाव आया है?

पंचायतों के संस्थागत विकास के लिए चलाए जा रहे एक सार्वजनिक अभियान ‘तीसरी सरकार’ के सँस्थापक चन्द्र शेखर प्राण कहते हैं, “पँचायत का नेतृत्व करने वाली महिलाएँ वास्तव में एक गाँव की स्थिति को बदल सकती हैं।”

वे कहते हैं, "पँचायत में महिलाएँ शासी निकाय में मानवीयता जोड़ती हैं और भौतिक बदलावों की बजाये सामाजिक और मानव विकास के मुद्दों पर अधिक ध्यान देती हैं।"

पनकुंवर इसका जीता जागता उदाहरण है। वह 2011 से 2021 तक लगातार दो बार उत्तर प्रदेश के महोबा ज़िले के कबरई ब्लॉक में ममना ग्राम पँचायत की पँच रही हैं।

मामना गाँव उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित है, जो बार-बार पड़ने वाले सूखे के लिए जाना जाता है। केंद्र सरकार के जल जीवन मिशन के तहत गाँव में पानी की पाइप लाइन तो बिछवा दी गई है लेकिन अभी तक नल नहीं लगा है।

37 साल की पँचायत सदस्य पनकुंवर पानी और लड़कियों की शिक्षा के मुद्दे को पँचायत की बैठकों में उठाने के लिए लगातार दूसरी महिला पँचायत सदस्यों को प्रोत्साहित करती रही हैं।

पनकुंवर ने गाँव कनेक्शन को बताया, "बरसात में पैर इतने-इतने खप जाते थे पानी भरने से, मैंने पँचायत की बैठकों में लगातार इस मुद्दे को उठाया, अब गाँव में एक पक्की सड़क है।

उन्होंने कहा, "मैं अन्य सदस्यों से कहती थी कि अगर वे पानी और शिक्षा के मुद्दों को नहीं उठाएँगे तो उन्हें कैसे हल करेंगे।"

पनकुंवर बरसात के पानी को जमा करने के लिए मामना गाँव में पानी की टंकी बनाने की भी वकालत करती रही हैं। अपने परिवार के लिए पानी की व्यवस्था करना अक्सर महिलाओं का काम माना जाता है, इसलिए जब महिलाओं को पँचायत में प्रतिनिधित्व मिलता है, तो वे पानी की पहुँच को लेकर सवाल उठाती हैं और समाधान खोजने के लिए दूसरों पर दबाव भी डालती हैं।

कई राज्यों में तो 50 फीसदी तक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

मामना गाँव उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित है, जो बार-बार पड़ने वाले सूखे के लिए जाना जाता है। केंद्र सरकार के जल जीवन मिशन के तहत गाँव में पानी की पाइप लाइन तो बिछवा दी गई है लेकिन अभी तक नल नहीं लगा है।

महिलाओं ने प्लास्टिक की बोतल और पॉलीथिन से पानी की पाइपलाइन को बंद कर दिया है। 35 साल की राम देवी ने कहा। “हम जानते हैं कि यह पानी कितना ज़रूरी है। हम इसे बर्बाद होते नहीं देख सकते है।”

तीसरी सरकार के प्राण ने अपनी बात दोहराते हुए कहा कि महिला नेतृत्व वाली पंचायतें ज़्यादा संवेदनशील और सभी को साथ लेकर चलने वाली होती हैं। वे गरीब या समाज के उपेक्षित वर्गों की महिलाओं की भागीदारी भी तय करती हैं।

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "वो पैसों को काफी सोच-समझ कर ख़र्च करती हैं। वे जानती हैं कि बज़ट की कमी की स्थिति में किन मुद्दों को प्राथमिकता देनी है।"

महिलाएँ और पानी

जो काम अभी तक पनकुंवर करती आईं थी, अब उसकी ज़िम्मेदारी पूजा ने उठा ली है। वे महिलाओं और बच्चों से जुड़े मुद्दों को उठाने की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं। मौज़ूदा ग्रामसभा में 12 सदस्य हैं, जिनमें से तीन चुनी गईं महिलाओं में से एक नाम पूजा का है।

ममना में पूजा लगातार स्कूल से जुड़े मसलों को लेकर चिंतित रहती हैं। उनके तीन बच्चे उसी स्कूल में पढ़ते हैं, जहाँ के सभी नल अभी कुछ समय पहले तक जाम पड़े थे।

उनकी कोशिशों की बदौलत, प्रधान को स्कूल में बंद नलों को बदलने के लिए मज़बूर होना पड़ा था।

मौज़ूदा ग्रामसभा में 12 सदस्य हैं, जिनमें से तीन चुनी गईं महिलाओं में से एक नाम पूजा का है।

पूजा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कोई भी व्यक्ति ग्राम सभा की बैठकों में पानी के मुद्दे पर बात नहीं करता है। वे नाली और खरंजा बनाने के बारे में बात करते हैं। वे भला इस मसले को क्यों उठाएंगे? आखिर पानी की कमी का सामना तो महिलाओं को ही करना पड़ता है और पानी न होने का दर्द सिर्फ एक महिला ही समझ सकती है।"

एक पुरुष पँचायत सदस्य गंगा राम तिवारी ने ममना में पानी की पहुँच की समस्या को "कभी-कभी होने वाली समस्या" कहकर ख़ारिज कर दिया।

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "मैं एक निर्वाचित पँच हूँ और अगर मैं प्रधान बन गया तो मैं छुट्टा पशु की समस्या का समाधान करूँगा और गौशालाओं के लिए जमीन की व्यवस्था कराऊंगा।"

लड़कियों के लिए शिक्षा

राम देवी गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “पहला काम मैं (अगर पँचायत सदस्य के रूप में चुनी जाती हूँ) अपने गाँव में बारहवीं कक्षा तक का एक स्कूल बनवाने का करूँगीं। यह ममना की लड़कियों के लिए काफी ज़रूरी है।" ममना के सरकारी स्कूल से आठवीं कक्षा पास करने के बाद उनकी बेटी गीता को एक साल के लिए घर बैठना पड़ा था। क्योंकि उसके पिता उसे आगे पढ़ने के लिए गाँव से बाहर भेजने में हिचक रहे थे।

राम देवी ने याद करते हुए कहा,"गीता कई दिनों तक रोती रही, अंत में, पनकुंवर की बेटी रूबी वर्मा ने गीता के परिवार को ममना से 10 किलोमीटर दूर महोबा शहर पढ़ने भेजने के लिए मना लिया।

पिछले साल जनवरी में रूबी को पँचायत सहायिका नियुक्त किया गया।

रूबी एक दुबली पतली,लेकिन फुर्तीली लड़की हैं और उन्हें बहुत सी बातों की अच्छी जानकारी है। पिछले साल जनवरी में उसे पँचायत सहायिका नियुक्त किया गया था। पँचायत विकास योजना को लागू करने में पँचायत सहायिका ग्राम प्रधान की सहायता करती है।

दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली गीता जैसी किसी भी लड़की के लिए शिक्षा का कितना महत्व है, रूबी इस बात को अच्छे से जानती हैं। उनके प्रयासों के चलते गीता को छतरपुर के वीरांगना अवंती बाई कॉलेज में दाखिला भी मिल गया था।

24 साल की रूबी ने गाँव कनेक्शन को समझाया,“सबसे पहला काम मैंने पँचायत के कार्यालय की दीवार पर महत्वपूर्ण टेलीफोन नंबरों को पेंट करने का किया। इससे सभी के लिए चीजें आसान हो जाती हैं।" वह ममना और पँचायत की महिलाओं के बीच की कड़ी हैं, क्योंकि महिलाएँ आमतौर पर गाँव के प्रधान किशोरी अहिरवार से बात करने में झिझकती हैं।

पनकुंवर को गर्व है कि उनकी बेटी गाँव के विकास के लिए महत्वपूर्ण सरकार के ‘थर्ड टायर’ का हिस्सा है। उनकी जैसी महिलाओं के लिए दरवाज़े के बाहर क़दम रखना आसान नहीं होता है।

आज स्थिति अलग है

पनकुंवर कहती हैं, “मैं गाँव की दूसरी महिलाओं तक जानकारी पहुंचाने का काम करती हूँ ,पुरुष महिलाओं को किसी भी चीज के बारे में नहीं बताते हैं।”

चालीस साल की आशा रानी को ठीक से याद नहीं कि उनकी शादी कब हुई थी। उन्होंने ग्राम सभा की बैठकों के दौरान पानी की माँग के लिए पँचायत दफ़्तर में क़दम रखने के लिए काफी साहस जुटाया था।

आशा रानी ने गाँव कनेक्शन को बताया,“हमारी शादी के शुरुआती दिनों में, अगर मैं घर से बाहर निकलती तो मेरे पति मुझे पीटते थे, लेकिन, अब चीजें अलग हैं। अगर उसने मुझ पर ऊँगली भी उठाई तो मैं थाने में रिपोर्ट दर्ज़ करा दूँगी।"

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