नई शिक्षा नीति में क्या है नया और किन मुद्दों पर हो रहा इसका विरोध?

34 साल बाद आई नई शिक्षा नीति का कई विशेषज्ञों और शिक्षाविदों ने स्वागत किया है, लेकिन कई बिन्दुओं को लेकर इसका विरोध भी हो रहा है।

Daya SagarDaya Sagar   2 Aug 2020 5:09 AM GMT

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नई शिक्षा नीति में क्या है नया और किन मुद्दों पर हो रहा इसका विरोध?

केंद्र सरकार ने बुधवार शाम कैबिनेट बैठक कर नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस नई शिक्षा नीति की घोषणा करते हुए केंद्र सरकार के प्रवक्ता और वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसे 'ऐतिहासिक' बताया, जबकि मानव संसाधन विकास मंत्री (अब शिक्षा मंत्री) रमेश पोखरियाल निशंक ने इसे शिक्षा के क्षेत्र में नई युग की शुरूआत बताई।

भारत में 34 साल बाद नई शिक्षा नीति आई है। इससे पहले 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति आई थी। मोदी सरकार ने 2016 से ही नई शिक्षा नीति लाने की तैयारियां शुरू कर दी थी और इसके लिए टीएसआर सुब्रहमण्यम कमेटी का गठन भी हुआ था, जिन्होंने मई, 2019 में शिक्षा नीति का अपना मसौदा (ड्राफ्ट) केंद्र सरकार के सामने रखा। लेकिन सरकार को वह ड्राफ्ट पसंद नहीं आया।

इसके बाद सरकार ने वरिष्ठ शिक्षाविद् और जेएनयू के पूर्व चांसलर के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक नौ सदस्यीय कमेटी का गठन किया। के. कस्तूरीरंगन की कमेटी ने एक नए शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया, जिसे सार्वजनिक कर केंद्र सरकार ने आम लोगों से भी सुझाव मांगे।

रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि इस ड्राफ्ट पर आम से खास लाखों लोगों के सुझाव आए, जिसमें विद्यार्थी, अभिभावक, अध्यापक से लेकर बड़े-बड़े शिक्षाविद्, विशेषज्ञ, पूर्व शिक्षा मंत्रियों और राजनीतिक दलों के नेता शामिल थे। इसके अलावा संसद के सभी सांसदों और संसद की स्टैंडिंग कमेटी से भी इस बारे में सलाह-मशविरा किया गया, जिसमें सभी दलों के लोग शामिल थे। इसके बाद लगभग 66 पन्ने (हिंदी में 117 पन्ने) की नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी गई।

वैसे तो इस शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं। लेकिन कुछ अहम बदलाव इस तरह हैं।

अगर सबसे पहले स्कूली शिक्षा की बात की जाए तो स्कूली शिक्षा के मूलभूत ढांचे में ही एक बड़ा परिवर्तन आया है। 10+2 पर आधारित हमारी स्कूली शिक्षा प्रणाली को 5+3+3+4 के रूप में बदला गया है। इसमें पहले 5 वर्ष अर्ली स्कूलिंग के होंगे। इसे अर्ली चाइल्डहुड पॉलिसी का नाम दिया गया है, जिसके अनुसार 3 से 6 वर्ष के बच्चों को भी स्कूली शिक्षा के अंतर्गत शामिल किया जाएगा।

वर्तमान में 3 से 5 वर्ष की उम्र के बच्चे 10 + 2 वाले स्कूली शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं हैं और 5 या 6 वर्ष के बच्चों का प्रवेश ही प्राथमिक कक्षा यानी की कक्षा एक में प्रवेश दिया जाता है। हालांकि इन छोटे बच्चों के प्री स्कूलिंग के लिए सरकारों ने आंगनबाड़ी की पहले से व्यवस्था की थी, लेकिन इस ढांचे को और मजबूत किया जाएगा। नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (Early Childhood Care and Education -ECCE) की एक मजबूत बुनियाद को शामिल किया गया है जिससे आगे चलकर बच्चों का विकास बेहतर हो।

इस तरह शिक्षा के अधिकार (RTE) का दायरा बढ़ गया है। यह पहले 6 से 14 साल के बच्चों के लिए था, जो अब बढ़कर 3 से 18 साल के बच्चों के लिए हो गया है और उनके लिए प्राथमिक, माध्यमिक और उत्तर माध्यमिक शिक्षा अनिवार्य हो गई है। सरकार ने इसके साथ ही स्कूली शिक्षा में 2030 तक नामांकन अनुपात यानी ग्रास इनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) को 100 प्रतिशत और उच्च शिक्षा में इसे 50 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य रखा है। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक 2017-18 में भारत का उच्च शिक्षा में जीईआर 27.4 प्रतिशत था, जिसे अगले 15 सालों में दोगुना करने का लक्ष्य सरकार ने रखा है।

5+3+3+4 के प्रारूप में पहला पांच साल बच्चा प्री स्कूल और कक्षा 1 और 2 में पढ़ेगा, इन्हें मिलाकर पांच साल पूरे हो जाएंगे। इसके बाद 8 साल से 11 साल की उम्र में आगे की तीन कक्षाओं कक्षा-3, 4 और 5 की पढ़ाई होगी। इसके बाद 11 से 14 साल की उम्र में कक्षा 6, 7 और 8 की पढ़ाई होगी। इसके बाद 14 से 18 साल की उम्र में छात्र 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई कर सकेंगे।

यह 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई बोर्ड आधारित होगी, लेकिन इसे खासा सरल नई शिक्षा नीति में बनाया गया है। शिक्षा मंत्रालय में स्कूली शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव अनीता करवाल ने कहा कि इसके लिए बोर्ड परीक्षा को दो भागों में बांटने का प्रस्ताव है, जिसके तहत साल में दो हिस्सों में बोर्ड की परीक्षा ली जा सकती है। इससे बच्चों पर परीक्षा का बोझ कम होगा और वह रट्टा मारने की बजाय सीखने और आंकलन पर जोर देंगे।"


स्कूली शिक्षा में एक और अहम बदलाव के रूप में 'मातृभाषा' को शामिल किया गया है, जिस पर खासा विवाद हो रहा है। नई शिक्षा नीति के अनुसार अब बच्चे पहली से पांचवी तक की कक्षा या संभवतः आठवीं तक की कक्षा अपनी मातृभाषा के माध्यम में ही ग्रहण करेंगे। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि अगर आगे की कक्षाओं में भी इसे जारी रखा जाता है तो यह और बेहतर होगा। शिक्षा मंत्रालय का कहना है कि बच्चा अपनी भाषा में चीज़ों को बेहतर ढंग से समझता है, इसलिए शुरूआती शिक्षा मातृभाषा माध्यम में ही होना चाहिए।

इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा संकाय की पूर्व विभागाध्यक्ष और डीन रह चुकी अनीता रामपाल कहती हैं कि इसमें कुछ नया नहीं है। लगभग हर शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा के लिए मातृभाषा के माध्यम की बात को कहा गया है कि लेकिन कभी इसे पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया। यह एक शोधपरक सत्य है कि बच्चा अपनी भाषा में ही सबसे अधिक सीख-समझ सकता है और ऐसा होना भी चाहिए।

मातृभाषा के संबंध में कई लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या जब बच्चा प्राथमिक कक्षाओं को पास कर आगे बढ़ेगा और उन्हें आगे की कक्षाओं में हिंदी या अंग्रेजी माध्यम में विषयों को पढ़ाया जाने लगेगा, तब वे उसे सही ढंग से समझ पाएंगे या उच्च कक्षाओं में वे अंग्रेजी माध्यम के छात्रों से प्रतियोगिता कर पाएंगे? इसके अलावा एक सवाल यह भी उठता है कि क्या स्थानीय या मातृभाषा माध्यम में पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सामग्री उपलब्ध होंगे।

इस पर अनीता रामपाल गांव कनेक्शन को फोन पर बताती हैं कि यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि वह जब इस संबंध में नीति ला रही है तो वह पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सामग्री भी स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध कराए। हालांकि संशय जताते हुए वह कहती हैं कि पहले की सरकारें भी मातृभाषा में पढ़ाई पर जोर देती रही हैं लेकिन उन्होंने इस दिशा में कोई खास काम नहीं किया।

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश इस संबंध में कहते हैं कि वह प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर शिक्षण के माध्यम को मातृभाषा में रखने के समर्थक हैं। लेकिन इसका पूर्णतया समर्थन तब दिया जाएगा जब सरकारें यह सुनिश्चित करेंगी कि इसे सरकारी प्राथमिक स्कूलों से लेकर दिल्ली और मुंबई के सबसे महंगे और एलीट स्कूलों में भी लागू किया जाए। वह कहते हैं कि अगर प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई का माध्यम अंग्रेजी ही बना रहेगा तो इसकाका हर कीमत पर विरोध होना चाहिए। यह देश के गरीबों, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और उत्पीडित तबके के साथ सरासर अन्याय होगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 टिप्पणी-1 प्राथमिक शिक्षा स्तर के शिक्षण का माध्यम मातृभाषा रखने का मैं समर्थक हूं। राष्ट्रीय...

Posted by Urmilesh on Thursday, July 30, 2020



नई शिक्षा नीति में इस बात पर भी जोर है कि जो भी बच्चा 12वीं तक की प्रथम चरण की शिक्षा पूरी कर लेता है, उसके पास कम से कम एक स्किल जरूर हो ताकि जरूरत पड़ने पर वह इससे रोजगार कर सके। सरकार ने कहा कि इसके लिए सभी स्कूलों में इंटर्नशिप की व्यवस्था की जाएगी और बच्चे स्थानीय प्रतिष्ठानों में जाकर अपने मन का कोई स्किल सीख सकेंगे।

इसके साथ ही सरकार ने इस शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा को भी लचीला बनाने की कोशिश की है, जिसकी सबसे प्रमुख विशेषता मल्टीपल एंट्री-एक्जिट सिस्टम है। मसलन अगर कोई छात्र ग्रेजुएशन में प्रवेश लेकर सिर्फ एक साल का ही कोर्स पूरा करता है, तो उसे इसके लिए सर्टिफिकेट दिया जाएगा। वहीं दो साल पूरा करने वालों को डिप्लोमा और तीन साल पूरा करने वालों को ग्रेजुएशन की डिग्री दी जाएगी।

उच्च शिक्षा सचिव अमित खरे ने कहा कि जो छात्र ग्रेजुएशन के बाद नौकरी करना चाहता है, वह सिर्फ तीन साल की डिग्री ले सकता है। वहीं उच्च शिक्षा और शोध की इच्छा रखने वाले छात्र चौथे साल का कोर्स करेंगे। इसके साथ ही अब तक तीन साल का होने वाला ग्रेजुएशन अब चार साल का हो जाएगा। वहीं एमए अब सिर्फ एक साल का होगा, जबकि रिसर्च करने वाले दो साल की एम.फिल. का कोर्स ना कर सीधे पीएचडी कर सकेंगे।


हालांकि अभी भी एम.फिल. का कोर्स केंद्रीय विश्वविद्यालयों में है, जबकि अधिकतर राज्य विश्वविद्यालयों में छात्र एम.ए. के बाद प्रतियोगी परीक्षा देकर सीधे पीएचडी में प्रवेश करते हैं। वहीं कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी छात्र नेट निकालने के बाद संबंधित योग्यता होने पर सीधे पीएचडी में प्रवेश कर जाते हैं। गांव कनेक्शन ने ऐसे कई छात्रों से बात की जो एमफिल की उपयोगिता पर सवाल उठाते रहे हैं।

ऐसे ही लखनऊ विश्वविद्यालय के एक शोध छात्र सौरभ मिश्रा कहते हैं कि एम.फिल. और पीएच़डी का कोर्स वर्क लगभग एक समान है, तो फिर दो साल एमफिल के लिए अतिरिक्त क्यों खर्च करना। वह कहते हैं कि एम.फिल. की डिग्री की अलग से कोई मान्यता भी नहीं रहती जब तक छात्र पीएच़डी नहीं कर लें। इसलिए यह सरकार का बेहतर कदम है, इससे समय, संसाधन और पैसे तीनों की बचत होगी।

हालांकि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएचडी कर रहे रोहित दत्ता रॉय इस राय से सहमति नहीं रखते। कैम्ब्रिज जाने से पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.फिल. कर चुके कोलकाता के निवासी रोहित गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं कि एम.फिल. कोर्स की अपनी उपयोगिता है और इसे नकारा नहीं जा सकता। वह कहते हैं, "सरकार इसे खत्म कर अमेरिकी शिक्षा पद्धति की तरफ बढ़ रही है, जहां पर शिक्षा एक कमोडिटी और व्यवसाय है।"

वह आगे कहते हैं, "अमेरिकी सिस्टम में पीएचडी कम से कम 7 साल का होता है क्योंकि वहां 4 साल के ग्रेजुएशन के बाद सीधे पीएचडी में प्रवेश ले सकते हैं। भारत भी उसी तरफ बढ़ रहा है, ग्रेजुएशन चार साल का कर दिया जा रहा है, वहीं एमए को एक साल का कर उसे वैकल्पिक बना दिया जा रहा है। जबकि एमफिल को एकदम खत्म कर सीधे पीएचडी की बात की जा रही है। इससे शोध की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा क्योंकि पहले मास्टर्स और फिर एमफिल से लोग शोध के लिए अपने आप को पूरी तरह से तैयार करते हैं।"

"एक तरफ जहां ग्रेजुएशन में सरकार मल्टी एंट्री-एग्जिट की बात कर रही, वहीं पीएचडी के लिए लंबा प्रोसेस बनाने जा रही है। भारतीय परिस्थितियों में किसी भी छात्र के लिए सात साल का पीएचडी करना संभव नहीं होगा। यह असल रूप में समय और संसाधन की बर्बादी होगी।" रोहित कहते हैं कि यही वजह है कि यूरोप के विश्वविद्यालयों ने भी अमेरिकी पद्धति को नहीं अपनाया है।

नई शिक्षा नीति मे मल्टीपल डिस्प्लिनरी एजुकेशन की बात कही गई है। इसका मतलब यह है कि कोई भी छात्र विज्ञान के साथ-साथ कला और सामाजिक विज्ञान के विषयों को भी दसवीं-बारहवीं बोर्ड और ग्रेजुएशन में चुन सकता है। इसमें कोई एक स्ट्रीम मेजर और दूसरा माइनर होगा। उच्च शिक्षा सचिव अमित खरे ने कहा कि कई छात्र ऐसे होते हैं जो विज्ञान के विषयों में रूचि के साथ-साथ संगीत या कला भी पढ़ना चाहते हैं। उनके लिए यह काफी फायदेमंद होगा। इसके अलावा विभिन्न शिक्षण संस्थान भी मल्टी डिस्पिलनरी होंगे इसका अर्थ यह है कि आईआईटी और आईआईएम में इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के अलावा अन्य विषयों को भी पढ़ाया जा सकेगा। हालांकि इसकी शुरूआत पहले से ही हो चुकी है।

नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के तहत ग्रेडेड अटॉनोमी की भी बात कही गई है, जिसमें विश्वविद्यालयों के ऊपर से बोझ को कम किया जाएगा और कॉलेज को भी अकादमिक, प्रशासनिक और आर्थिक स्वायत्तता दी जाएगी। हालांकि ग्रेडेड अटॉनोमी का भी कई शिक्षक और अकादमिक जगत के विशेषज्ञ विरोध कर रहे हैं। दरअसल इस ग्रेडेड अटॉनोमी के तहत नई शिक्षा नीति में प्रत्येक उच्च शिक्षण संस्थान में एक प्रशासनिक ईकाई 'बोर्ड ऑफ गवर्नर' की बात की गई है, जिसके अन्तर्गत सभी अकादमिक, प्रशासनिक और आर्थिक शक्तियां आएंगी।

दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के शिक्षक संघों ने इस बोर्ड ऑफ गवर्नर सिस्टम का विरोध किया है। उनका कहना है कि सरकार स्वायत्तता (अटॉनोमी) के नाम पर बोर्ड ऑफ गवर्नर के द्वारा उच्च शिक्षण संस्थानों पर अपना शिकंजा कसना चाहती है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में अस्सिटेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव गांव केक्शन से फोन पर बातचीत में कहते हैं, "सुनने में स्वायत्तता शब्द बहुत अच्छा लगता है लेकिन इसके पीछे सरकार की गलत मंशा है, जिसे अभी बहुत कम लोग समझ पा रहे हैं। सरकार बोर्ड ऑफ गवर्नर के जरिये उच्च शिक्षण संस्थानों में फीस के निर्धारण, अध्यापकों की वेतन और नियुक्तियों, पाठ्यक्रमों और अन्य अकादमिक कार्यक्रमों में अपना नियंत्रण चाहती है, जो कि स्वायत्तता के नाम पर छलावा और धोखा है।"

हालांकि नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि सरकार उच्च शिक्षा पर अधिक से अधिक खर्च करेगी, ताकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा दिया जा सके। इसके लिए सरकार ने जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की बात नई शिक्षा नीति में कही है। इसके अलावा फीस का निर्धारण और उस पर कैप (सीमा) लगाने की भी बात एनईपी में है।


उच्च शिक्षा को अधिक केंद्रीकृत करने के लिए नई शिक्षा नीति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC), ऑल इंडिया काउंसिल फॉर ट्रेड एजुकेशन (AICTE) और नेशनल कॉउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन (NCTE) जैसी संस्थाओं को किसी एक संस्था के अंतर्गत लाया जाएगा और उच्च शिक्षा के लिए सिर्फ एक रेगुलेटरी बॉडी होगी। हालांकि इसमें भी मेडिकल और लॉ शिक्षण संस्थानों को छूट दिया जाएगा। इसके अलावा शोध को बढ़ावा देने के लिए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के गठन की भी बात कही गई है। उच्च शिक्षा में एकरूपता को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय, राज्य और डीम्ड विश्वविद्यालयों को एक ही मानक के आधार पर देखा जाएगा और पूरे देश में एक प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की भी बात नई नीति में है।

इस नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि शिक्षा की गुणवत्ता में बढ़ावा देने के लिए शिक्षामित्र, एडहॉक, गेस्ट टीचर जैसे पद धीरे-धीरे समाप्त किए जाएंगे और बेहतर चयन प्रक्रिया का गठन कर स्कूली और उच्च शिक्षा दोनों में नियमित और स्थायी अध्यापकों की नियुक्ति की जाएगी। इस संबंध में डा. लक्ष्मण यादव कहते हैं कि शिक्षण संस्थानों में पहले से ही नियुक्ति प्रक्रिया रूकी हुई है, अब एडहॉक और गेस्ट टीचर की व्यवस्था खत्म कर सरकार कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति करना चाहती है, जिनको प्रति क्लास के आधार पर भुगतान मिलेगा और उन्हें बीमा, छुट्टी, पेंशन आदि जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं दी जाएगी। हालांकि वह कहते हैं कि अगर सरकार नियमित शिक्षकों की नियुक्ति करती है तो यह और अच्छी बात है लेकिन अभी तक के कार्यकाल में उन्होंने ऐसे कोई संकेत नहीं दिए हैं।

सरकार ने नई शिक्षा नीति में जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की बात कही है, इस पर भी काफी बातें हो रही हैं। दरअसल हर शिक्षा नीति में यह लक्ष्य रखा जाता है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि कभी भी इस लक्ष्य की तरफ नहीं बढ़ा जा सका। रोहित दत्ता कहते हैं कि मोदी सरकार के कार्यकाल में लगातार शिक्षा बजट को कम किया गया है और यह अभी 4 फीसदी से भी कम है। तो ऐसे में कैसे सरकार से कैसे उम्मीद की जा सकती है, वह सवाल करते हैं।

वहीं प्रोफेसर अनीता रामपाल कहती हैं कि अच्छा होता कि सरकार इस नई शिक्षा नीति में पुरानी शिक्षा नीतियों की समीक्षा करती और देखती कि क्या-क्या लागू हो पाया, क्या-क्या लागू होने के क्रम में है और क्या-क्या अभी भी अछूता रहा है। लेकिन पुरानी शिक्षा नीतियों की समीक्षा को महज एक पैराग्राफ में ही निपटा दिया गया है और कुछ पुराने और कुछ एकदम से नई घोषणाएं की गई हैं। "देखने वाली बात यह होगी कि सरकारें इसको जमीन पर कितना उतार पाएंगी, 'सरकारें' इसलिए क्योंकि स्कूली शिक्षा राज्य का विषय है और केंद्र को इस शिक्षा नीति को सफल बनाने के लिए राज्य सरकारों से भी पर्याप्त समन्वय बनाना होगा," वह कहती हैं।

यूजीसी के पूर्व सदस्य योगेंद्र यादव नई शिक्षा नीति से काफी हद तक संतुष्ट दिखते हैं। वह कहते हैं कि इस सरकार से यह डर था कि कहीं वह नई शिक्षा नीति में भगवाकरण और निजीकरण को बढ़ावा तो नहीं देगी, लेकिन ऐसा इन सत्तर पन्नों के दस्तावेज में नहीं देखने को मिला। उन्होंने अपने फेसबुक लाइव में कहा, "शिक्षा का अधिकार जो पहले 6 से 14 साल था, अब 3 से 18 साल हो गया, यह स्वागतयोग्य कदम है। इसके अलावा इस नीति में अर्ली चाइल्डहुड पॉलिसी अच्छी है और अब 3 से 5 साल तक के बच्चों को भी सरकारी केयर मिल सकेगा, जहां से सीखने की असल उम्र शुरू होती है।"

वह कहते हैं कि इस शिक्षा नीति पर संदेह करने के कुछ कारण भी मौजूद हैं। इसमें पहला यह कि क्या सरकार शिक्षा को इतना महत्व दे पाएगी कि जीडीपी का 6 प्रतिशत इस पर खर्च कर दे। इसके अलावा जो अंधाधुन तरीके से स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक हर जगह प्राइवेट कॉलेजों का दबदबा हो गया है, उस सवाल को भी यह शिक्षा नीति संबोधित नहीं करती है। सवाल यह है कि सरकारी शिक्षा को बचाने के लिए सरकार क्या कर रही है और सभी वर्गों को एक समान शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा कैसे मिल सकेगी, जो सरकारी शिक्षण संस्थाओं में भी लगातार महंगी होती जा रही है। अंत में वह सवाल करते हैं कि क्या इस शिक्षा नीति में सभी कुछ लिखा हुआ लागू हो पाएगा?

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Posted by Yogendra Yadav on Thursday, July 30, 2020


शिक्षा का अधिकार फोरम (आरटीई फोरम) के संयोजक अंबरीश राय कहते हैं कि इस नई शिक्षा नीति में कई सारी बातें स्वागत योग्य हैं लेकिन आरटीई का विस्तार कैसे और किस दिशा में किया जाएगा, इसका अभाव दिखता है। वह कहते हैं, "आरटीई का विस्तार 3 से 18 साल तक तो कर दिया गया है लेकिन अभी भी इसे कानूनी नहीं बनाया गया है। यही वजह है कि आरटीई आने के बाद शिक्षा में नामांकन दर तो बढ़ा है लेकिन ड्रॉप आउट रेट में कोई खास कमी नहीं है। नीति अगर इन मुद्दों को भी एड्रेस करती, तो अधिक बेहतर होता।"

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इस नई शिक्षा नीति को आप हिंदी या अंग्रेजी में क्लिक कर यहां पढ़ सकते हैं-




   

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