'प्रिय मीडिया, किसान को ऐसे चुटकुला मत बनाइए'

Arvind ShukklaArvind Shukkla   9 July 2017 11:24 PM GMT

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प्रिय मीडिया, किसान को ऐसे चुटकुला मत बनाइएयही वो फोटो है, जिसपर खूब चर्चा हो रही है।

आज सुबह की शुरुआत एक तस्वीर के साथ हुई। तस्वीर ऐसी नहीं थी कि पहली बार देखी हो, लेकिन तमाम वेबसाइट पर जो हेडिंग थीं वो ध्यान खींच रही थीं, आर्थिक तंगी से जूझ रहे किसान ने अपनी बेटियों को बैलों की जगह जोता, गरीब किसान ने बेटियों से हल चलवाया। हिंदी के साथ अंग्रेजी वेबसाइट और आगे बढ़ गई थीं। "ड्यू टू फाइनेशियल क्राइसिस फार्मर टू यूज डाटर्स टू पुल"… देश की लगभग हर बड़ी समाचार साइट पर ये ख़बर प्रमुखता से बेची जा रही थी।

मध्य प्रदेश के सिहोर के बसंतपुर के पांगरी के रहने वाला किसान सरदार बरेला की बेटियों के साथ हल चलाती तस्वीर सोशल मीडिया में तेजी से वायरल हो रही है। इसलिए नहीं कि सरदार बरेला भारत के पहले गरीब किसान हैं, या ये पहली तस्वीर है जब महिलाएं, बेटियां खेत में किसानों का हाथ बटा रही हैं। बल्कि ये एक पूरा पैकेज है, गरीब किसान है, उसकी दो बेटिया हैं, शिवराज का मध्यप्रदेश है।

जो इन दिनों चर्चा में हैं, अपने आप में बिकाऊ कीवर्ड है। हल्ला मच गया है। सरकार की फजीहत का दौर जारी है, ये तस्वीर ही भारत के किसानों की असली तस्वीर बताई जा रही है। विपक्ष को मुद्दा मिल गया है। सबसे ज्यादा वो लोग लाइक कमेंट, लाइक कर रहे हैं, जो जिनके पैरों में कभी खेत की मिट्टी नहीं लगी होगी।

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लेकिन मुझे इस ख़बर से आपत्ति है, आपत्ति है किसानों की इस तस्वीर से भी। आपत्ति है इस फोटो पर लगाई गई हेडिंग से भी। फोटो पर थोड़ा गाैर करिए, ये मक्के का खेत है। फसल तैयार हो रही है, किसान खतपतवार हटाने के लिए जुताई कर रहा है। पौधे इतने पास हैं कि ट्रैक्टर से ये काम संभव नहीं, और अगर इस किसान के पास बैल भी होते तो वो इस काम के लिए बेकार थे। ये हल परंपरागत नहीं है, इसे स्थानीय भाषा में कुल्फा कहते हैं जो ऊपर-ऊपर निराई करता है। इतने बड़े पौधों के बीच जुताई किसी तरह से संभव नहीं। नाजुक पौधों के टूटने का डर है। संभव है किसान गरीब होगा और मजदूरों का इंतजाम नहीं कर पाया होगा।

मध्य प्रदेश के जागरूक किसान राकेश दुबे जी समेत मैंने कई स्थानीय किसानों से बात की। उन्होंने इसे परंपरागत काम माना। राकेश जी कुछ यूं बताते हैं, "ये निराई का काम है, वर्षों से होता आ रहा है, किसानों ने कुल्हा हल का जुगाड़ बनाया है, जो अक्सर एक आदमी लेकर चलते हैं, दूसरी उसकी मूठ पकड़कर रखता है, इन तस्वीर को जैसे प्रजेंट किया जा रहा है वैसा कुछ भी नहीं। अगर यही लड़कियां खुरपी पकड़कर निराई कर रही होती तो कोई सवाल उठाता क्या ?"

और फिर ये पहली बार तो नही था जब घर की महिलाएं या बेटियां खेती में हाथ बंटा रही हैं। यूपी से लेकर हरियाणा, पंजाब और मध्यप्रदेश तक में मैने महिलाओं को खेत में काम करते देखा है। वो चारा काटती हैं, गोबर उठाती हैं, बोझ उठाती हैं, कुदाल और फावड़ा चलाती हैं। इस हल को चला रही एक बेटी मुस्कुरा रही है। उसकी पढ़ाई छूट जाने की वजह गरीबी हो सकती है, लेकिन ऐसी लड़कियों की संख्या भारत में लाखों में होगी, जो चिंता का विषय है, न कि ये तस्वीर।

तस्वीर से आगे बढ़ते हैं। किसानों की ख़बरें कब सुर्खियां बनती हैं ? जब वो मौत को गले लगाते हैं, या फिर कुछ ऐसा कर जाएं तो फोटो लायक हो, टीवी की स्क्रीन पर सही से प्रजेंटेबल हो। तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली में प्रदर्शन याद ही होगा। उस प्रकरण में ब्रांडेड पानी की बोतलों पर हंगामा मचा था, लेकिन मुझे लगता है कोई था जो हमारी और मीडिया की मानसिकता को अच्छी तरह से समझता है। उसने अपने ज्ञान का पूर्ण उपयोग किया और प्रदर्शऩ का पूरा पैकेज दिया। चूहे खाने से लेकर मूत्र पीने तक।

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तमिलनाडु के किसानों का दर्द कितना गंभीर होगा मैं उस पर सवाल नहीं उठाता, सरकार को उनकी बात सुननी चाहिए। लेकिन इस पैकेज के चक्कर में सही वाले किसानों और किसान आंदोलनों को झटका जरूर लगा होगा, वो संदेह की दृष्टि से देखे जाएंगे। इसके लिए भी काफी हद तक हम पत्रकार भी जिम्मेदार हैं, जो 'पैकेज' चाहते हैं, स्क्रीन और पहले पन्ने पर बिकाऊ तस्वीर चाहते हैं। मैं एक बार उन फोटो जर्नलिस्ट से व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहता हूं, जो जब खेत पहुंचते हैं, तो किसान आंसू भरे आंखों में आसमान की तरफ ताक रहा होता है। एक दशक से ज्यादा के पत्रकारीय कॅरियर और किसान का बेटा और खुद किसान होने के नाते मुझे कभी ऐसी तस्वीरें खींचने का मौका नहीं मिला।

कुछ और उदाहरण हैं, बुंदेलखंड की त्रासदी और गरीबी को कौन नहीं जानता। वहां कई घर ऐसे हैं जहां दरवाजे इसलिए नहीं हैं क्योंकि घर में कुछ खाने को नहीं है। लेकिन लेकिन घास की रोटियां सुर्खियां बनी जबकि वो परंपरागत मोटे अनाज थे। गांव कनेक्शन ने खुद उस महिला से मिलकर ख़बर का सच दिखाया था। ऐसे तो पूरा पंजाब सरसों के साग के रुप में घास खाता है, और हम पालक, चौलाई, सब खास ही तो खाते हैं।

लेकिन हमें निगेटिव देखने की आदत पड़ चुकी है। हर बात के लिए सरकार को कोसने की भी। और टीआरपी मिलती दिख जाए तो रिपोर्टर किसी हद तक जाने को तैयार हैं। आजमगढ़ में जिस गांव में 10 लोगों की मौत हुई वहां कि महिलाएं खुद अपने घरों के पुरुषों को कोस रही हैं, लेकिन इऩ्हीं में से कुछ महिलाएं छापेमारी के दौरान पुलिस टीम पर हमला भी कर चुकी हैं।

मैं किसान नेताओं से भी कहूंगा.. किसान के मुद्दों को आगे बढ़ाएं न कि ऐसी बिकाऊ फोटो को आधार बनाकर सियासत करें.. मुझे इस तस्वीर में दिख रही बेटियों पर गर्व है, वो परिवार का हाथ बंटा रही हैं, बेहतर होता हल की मूंठ बेटियों के हाथ और ये पुरुष खुद आगे हल खींच रहा होता... और ख़बर कुछ अलग तरीके से छपती। व्यक्तिगत रुप से मैं पत्रकार हूं, घर ठीक-ठाक जमीन है। बाजवूद इसकी मेरी सैलरी का अच्छा खासा हिस्सा खेती में जाता है, पिताजी पर खेती का ठीकठाक कर्ज भी है, बाकी आम किसानों की तरह वो कर्जमाफी की उम्मीद करते हैं, लेकिन उसके लिए रुकते नहीं, जुगाड़ कर के उसे जमाकर निकालने की प्रक्रिया जारी रखते हैं। इसका आशय है किसान के दर्द का थोड़ा बहुत अहसास है। मैं खुद अक्सर खेती से कमाई के तरीके तलाशता रहता हूं। किसानों के मुद्दों गंभीरता से रखने की कोशिश भी करता हूं, लेकिन ऐसे किसान और ऐसी ख़बरें से आपत्ति है।

नोट- मेरी वेबसाइट पर भी ख़बर गई थी, जिसे हटवा दिया गया है। आगे भी भरोसा दिलाता हूं, इस तरह की ख़बरें बिना पड़ताल के नहीं जाएंगी।

(लेखक- गांव कनेक्शऩ में डिप्टी न्यूज एडिटर हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)

           

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