तीन तलाक़ पर फ़ैसला क्या वाक़ई महिलाओं की जीत है? 

Jamshed SiddiquiJamshed Siddiqui   29 Dec 2017 7:12 PM GMT

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तीन तलाक़ पर फ़ैसला क्या वाक़ई महिलाओं की जीत है? तीन तलाक़ पर फ़ैसला क्या वाक़ई महिलाओं की जीत है?

ये लेख जमशेद क़मर सिद्दीक़ी ने लिखा है, इसमें लिखे हुए विचार उनके निजी हैं, कोई सवाल या प्रतिक्रिया देने के लिए उनसे [email protected]पर संपर्क किया जा सकता है।

तीन तलाक पर लोकसभा में पास हुए बिल को लेकर जिस तरह की गहमा-गहमी पूरे मुल्क में है वो किसी बड़ी जीत के जश्न की तरह नज़र आ रही है। कोई इसे ऐतिहासिक जीत कह रहा है कोई कानून का सबसे ज़रूरी संशोधन। एक ही बार में तीन तलाक कहकर रिश्ता तोड़ लेने की रवायत पर जिस तरह रोक लगाने की कोशिश की जा रही है उसकी सराहना की जानी चाहिए लेकिन इस पूरी बहस-मुबाहिस में एक लोकतांत्रिक अधिकार को पूरी तरह से नकारात्मक बना दिया गया है जो कि सही नहीं है। तीन तलाक की बहस ने ‘तलाक’ को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है उसे इस तरह पेश किया गया है जैसे वो किसी समाज के लिए कोई बीमारी हो, जिसका अब इलाज कर दिया गया है। लेकिन हकीकत ये है कि तलाक एक प्रगतिशील समाज की प्रगतिशीलता की निशानी है, इसे जिस तरह कटघरे में खड़ा किया गया है वो बेहद पिछड़ेपन और समाज को कई सदी पीछे ले जाने की कोशिश है। तलाक के जिस पहलू पर काम किया जाना चाहिए था वो ये था कि मर्द के लिए तलाक देना जितना आसान था औरत के लिए भी मर्द को तलाक देना उतना ही आसान बनाया जाना चाहिए था लेकिन इस कानून के बनाने वालों ने ये खुद ही तय कर लिया कि औरत कभी मर्द से तलाक चाह ही नहीं सकती, क्योंकि वो तो निरीह है, कमज़ोर है, बेसहारा है। मर्द के लिए तलाक दे पाने को और मुश्किल कर दिया गया, लेकिन औरत अब भी वहीं खड़ी है जहां पहले थी। इसे कुछ भी कहा जाए लेकिन कम से कम ‘महिलाओं की जीत’ तो नहीं कहा जा सकता।

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तीन तलाक़ पर फ़ैसला क्या वाक़ई महिलाओं की जीत है?

हिंदुस्तान एक भावुक देश है, यहां अदालतें अक्सर लोगों की सामूहिक चेतनाओं के आधार पर फैसले देती है, सरकारें वोट बैंक के आधार पर कानून बनाती हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने तलाकशुदा औरतों की रोती-बिलखती और फटेहाल तस्वीरें दिखा कर लोगों को भावुक किया। तलाक के बारे में एक ऐसी सोच बनी जहां ये माना गया कि तलाक न दे पाने से सब ठीक हो जाएगा लेकिन क्या एक मर्द और औरत जो साथ नहीं रहना चाहते वो किसी कानूनी बंधन के चलते हसी-खुशी ज़िंदगी बिता सकेंगे? कोई अगर किसी के साथ नहीं रहना चाहता तो कोई ताकत उसे मजबूर नहीं कर सकती। ये बहस दरअसल पूरी तरह से उल्टी दिशा में चली गई और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तलाक को सीधे महिलाओं के हालात के साथ जोड़ कर देखा गया। जबकि सच तो ये है कि तलाक और महिला सशक्तिकरण दो ऐसे मुद्दे हैं जिनका आपस में दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। महिलाओं की सशक्तिकरण तलाक से नहीं इस बात से तय होगी कि वो आर्थिक तौर पर कितनी सक्षम हैं, क्या नौकरियों में उनके पास आरक्षण हैं? क्या तालीम उनके लिए आसान है? क्या वो इस समाज में आज़ादी के साथ खुली हवा में सांस ले सकती हैं? तलाकशुदा औरतों की जो तस्वीरें आप और हम भारतीय मीडिया में देखते हैं उनमें वो ठुकराई हुई लगती हैं, उनकी आंखों में आंसू दिखते हैं, उनके सर पर छत नहीं होती, आर्थिक मज़बूती नहीं होती, ऐसा लगता है जैसे उनके साथ जो कुछ हुआ वो सिर्फ तलाक की वजह से हुआ, जबकि इन तस्वीरों से समझा ये जाना चाहिए कि तलाक से पहले भी उनकी हालत अच्छी नहीं थी, वो तब भी किसी पर निर्भर थीं, आश्रित थीं। तो क्या वो तब अपने फैसले ले पाती होंगी? क्या वो तब अपने सपने और आकांक्षाएं पूरी कर पाती होगीं? नहीं। तलाक दरअसल सिर्फ उस बदसूरत हकीकत को सामने ले आती है जो पहले औरतों की शादीशुदा नकली मुस्कुराहट के पीछे छिपी रहती है। जब तक महिला अपने पति के हर सही-गलत फैसलों के माने, उसकी तनख्वाह से अपना गुज़ारा करे वो सशक्त कहलाती हैं, और जब ऐसा नहीं होता तब जाकर हमारा समाज कहता कि महिलाओं की हालत बड़ी खराब है। वो खराब तो पहले भी थी लेकिन क्या किसी सरकार ने महिलाओं को इस काबिल बनाने की कोशिश की, कि वो ठुकराए जाने से पहले खुद ठुकरा दें, वो आर्थिक तौर पर इतनी सबल हों कि पति की प्रताड़ना को झेलने के बजाए खुद उसे छोड़कर इज़्ज़त के साथ ज़िंदगी गुज़ारने का फैसला ले पाएं? इस फैसले ने सिर्फ यही माना है कि ‘अकेली औरत’ बेसहारा होती है, बस उसे अकेला मत होने दो, वो पुरुष की आश्रित रहे और यूं ही साथ जन्मों तक घुटती रहे, यही औरत की जीत है।

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तीन तलाक़ पर फ़ैसला क्या वाक़ई महिलाओं की जीत है?

यूरोपीय देशों में भारत से ज़्यादा तलाक़ होती हैं, लेकिन वहां की तलाकशुदा औरतें हिंदुस्तानी तलाकशुदा औरतों की तरह नहीं लगतीं। न वो बेसहारा होती हैं, न दर दर की ठोकरे खाती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वो आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होती हैं। पति के छोड़ दिये जाने से उनके सर से छत गायब नहीं हो जाती। वो अपने फैसले तब भी लेती हैं। तो क्या ये इस तरफ इशारा नहीं करता कि जिस तलाकशुदा औरत को हम टीवी पर आंसू बहाते और फटेहाल देख रहे हैं, उसका वो हाल तलाक की वजह से नहीं आत्मनिर्भर न होने की वजह से है। वही औरत अगर अपने पैरों पर खड़ी होती, उसके अपने सपने होते, उसके अपनी सोच होती तो क्या वो शौहर के बुरे बर्ताव के बावजूद ज़िंदगी में घुट-घुट कर जीते रहना चुनती?

तलाक कोई आपदा नहीं बल्कि एक खूबसूरत अधिकार है, जहां दो लोग जिनके ख्यालात अलग हों वो बिना किसी ज़ोर-ज़बर्दस्ती के, बिना रिश्ते को और बदसूरत बनाए, अपनी खुशी से अलग हो सकते हैं। ये एक लोकतंत्रिक देश में नागरिक के अपनी पसंद की ज़िंदगी जीने के अधिकार का एक चेहरा है। सात जन्म की सौगंध खाना और सातों जन्म तिल-तिल कर मरते रहना किसी सभ्य समाज की निशानी नहीं है। बशर्ते, तलाक का सबसे ज़रूरी पहलू नज़रअंदाज़ न किया जाए, जो ये है कि तलाक देने का हक औरत और मर्द को बराबर होना चाहिए। मर्द के लिए तलाक देना मुश्किल बनाए जाने से ज़्यादा ज़रूरी औरत के लिए मर्द को तलाक देना आसान बनाया जाए और महिला सशक्तिकरण को तलाक के मामले में न ढूंढा जाए उसके लिए अलग कोशिशें हों जो सिर्फ कागज़ों पर न हो बल्कि हकीकत में असर करें।

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