बच्चों को बच्चा ही रहने देने में भलाई है

Deepak AcharyaDeepak Acharya   9 March 2018 1:38 PM GMT

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बच्चों को बच्चा ही रहने देने में भलाई हैऐसा क्यों होता है कि हम परिक्षाओं और उनके परिणामों को लेकर इतने गम्भीर, भयभीत और दबाव में रहते हैं? और ये कहाँ तक उचित है?

सीबीएसई और स्टेट बोर्ड की परिक्षाएं प्रारंभ हो चुकी है, बच्चों और अभिवावकों के चेहरों पर मानसिक दबाव आसानी से देखा जा सकता है। अभी तो परिक्षाओं को लेकर मानसिक दबाव है, बाद में परिक्षा परिणामों को लेकर दबाव बनेगा। ऐसा क्यों होता है कि हम परिक्षाओं और उनके परिणामों को लेकर इतने गम्भीर, भयभीत और दबाव में रहते हैं? और ये कहाँ तक उचित है?

अहमदाबाद शहर की एक व्यवस्था का जिक्र जरूर करना चाहूँगा। बोर्ड परिक्षाओं के परिणामों को लेकर बच्चों में इस कदर का मानसिक दबाव बना होता है कि हर साल स्थानीय साबरमती नदी और नजदीकी नर्मदा नहर में कूदकर बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। बोर्ड की परिक्षाओं के परिणामों से पहले शहरी प्रशासन तो बाकायदा इन जगहों पर बोर्ड भी चिन्हित कर देते हैं और तो और निगरानी के लिए पुलिस की तैनाती भी कर दी जाती है ताकि ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। क्या इस तरह के कदम काफी हैं?

समस्याओं को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए बच्चों और अभिवावकों की काउंसलिंग नहीं की जानी चाहिए? आखिर बच्चों मे इस तरह की मानसिक मनोदशा की उपज क्यूँ हो रही है? क्या इसकी मूल वज़ह माता-पिता और समाज के वो लोग तो नहीं हैं जो बच्चों को किसी ऐसे प्लेट्फ़ार्म पर देखना चाहते हैं जहाँ सिर्फ़ तगड़ी कमाई, जगमगाहट और चकाचौंध के साथ सितारों सी चमक दिखायी देती है?

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आज हर माता-पिता अपने बच्चों को बड़े नामचीन लोगों की तरह बनता हुआ देखना चाहते हैं। कोई अपनी बिटिया को सुपर मॉडल, सुपर सिंगर, डॉक्टर या टेक्नॉलॉजी एक्सपर्ट बनने का दबाव दिए हुए हैं तो कोई अपने बच्चे को आइंसटीन, गैलिलियो जैसे वैज्ञानिक/ दार्शनिक या विराट कोहली, सायना नेहवाल जैसा सितारा खिलाड़ी बनते देखना चाहते हैं। आखिर बच्चों पर इतना दबाव किस लिए? माता-पिता तमाम उम्र खुद जो न कर पाये, अपनी संतानों से उम्मीद करते हैं ताकि उनके बच्चे शायद उनके अधूरे सपनों को साकार कर पाएं। अपने माता-पिता के सपनों को साकार करने की चाह में बच्चों के खुद के सपने कहीं कुचल से जाते हैं।

पिता ने शायद गली-मोहल्ले से आगे बढकर क्रिकेट ना खेली हो, लेकिन वे चाहते हैं कि उनका बच्चा विराट कोहली की तरह क्रिकेटर बने। वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि क्या वाकई इनका बच्चा क्रिकेट में रुचि रखता है या नहीं? रुचि न होने कि दशा में बच्चे पर मानसिक दबाव बनना तय है और जिस दिन वो अपने माता-पिता के सपने को साकार कर पाने में अपने आप को असफल पाता है तो खुद को सबसे पिछ्ड़ा हुआ समझने लगता है और फ़िर खो जाता है एक ऐसी दुनिया में जहाँ वह अपने माता-पिता के ख्वाबों का बोझ लिये गुमनामी के साये में भटकता फिरता है।

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अभिभावक अक्सर ये समझते हैं कि बच्चों पर मनोवैज्ञानिक दवाब देने से उनमें जुझारूपन और विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष कर पाने की क्षमता का विकास होता है। अक्सर माता-पिता दूसरों के बच्चों से अपने बच्चों की तुलना करते हैं और दूसरे बच्चों की प्रतिभाओं को देख वे अपने बच्चे को भी उसी तरह प्रतिभावान बनता देखना चाहते हैं। अभिभावक अपने बच्चे को अपनी स्वयं की पहचान वाला बच्चा बनने का मौका कब देंगे? कुछ साल पहले रिलीज फ़िल्म "तारे जमीं पर" की कहानी डिस्लेक्सिया से ग्रसित एक बच्चे के इर्दगिर्द घुमती है और फ़िल्म भी यही बताने का प्रयास करती है कि अभिभावक बच्चों से अपेक्षायें तो रखते हैं किंतु यह जानने कि कतई कोशिश नहीं करते कि बच्चे में क्या कमी है या उसकी क्या चाहत है?

वास्तव में यह फ़िल्म भारतीय मध्यम परिवार मे घटित होने वाली आम बात को बड़े ही उम्दा तरीके से प्रस्तुत करती है। यह फ़िल्म भी उस समय आयी जब आईआईएम, आईआईटी, मेडिकल और इस तरह की अनेक परिक्षाओं और संस्थानों में बच्चों को भेजने की होड़ सी लगी थी। देश के नामी शिक्षण संस्थाओं में बच्चों के दाखिला पाने के लिये उन पर जिस तरह का दबाव बनाया जाता है, चिंतनीय है। दिन रात अथक परिश्रम के बाद जब बच्चा दाखिला नही पाता है, तो उसे हमारा समाज रेस कोर्स में हारे हुये घोड़े की तरह देखता है। अपने माता-पिता के ख्याली महल को टूटता देख बच्चे को खुद से शर्मिन्दगी सी महसूस होती है। ऐसी बड़ी परिक्षाओं के परिणामों के बाद आत्महत्याओं की खबरों का आना भी इसी कठोर दबाव का परिणाम है। समय, संघर्ष और मानसिक दबाव ने बचपन जैसे छीन सा लिया है।

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मनोवैज्ञानिक डॉ रमेश टूटेजा का मानना है कि लगभग एक से डेढ दशक पहले तक अर्ध-शहरी क्षेत्रों में लोग आईआईएम, आईआईटी जैसे संस्थानों के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। इस तरह की जानकारियों का न होना पिछड़ापन जरूर दर्शाता था लेकिन तब तक बचपन ज़िन्दा था, जो शायद अब मर चुका है या मुर्झा सा गया है। आज बच्चे अपने संघर्ष की लड़ाई नहीं अपितु अपने अभिभावकों के स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहें है। डॉ टूटेजा कहते हैं, "अभिभावकों का यह दबाव कथित रूप से अनुशासन कहलाता है और इसी तथाकथित अनुशासन की आड़ में माँ-बाप अपने सपनों के महल को तैयार होता देखना चाहते है, और वे भूल जाते है कि बच्चों को भी अपने विचारों और खवाबों में आज़ादी चाहिये।"

मुझे याद है.. नेशनल जिओग्राफिक चैनल ने एक समय "माय ब्रिलियेंट ब्रेन" कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इस कार्यक्रम में कुछ ज्यादा ही होनहार बच्चों को सम्मिलित कर उनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाया जाता था। एक कार्यक्रम में 8 वर्ष के एक बच्चे के बारे में बताया गया जो बेथोवेन और मोज़ार्ट जैसे वाद्य यंत्रों को बड़ी ही कुशलता से बजा लेता है। बच्चा इन वाद्ययन्त्रों को 2 वर्ष की उम्र से ही बजा रहा है और उसके इस हुनर के पीछे मूलत: माता पिता का हाथ रहा है। सवाल यह है कि इससे पहले कि बच्चा अपने माता-पिता और रिश्तेदारों को पहचान पाए, उसकी पहचान इन वाद्य यन्त्रों से कराना कितना उचित है?

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हम भारतीयों के लिये ये कौतुहल का विषय जरूर हो सकता है और हो भी क्यों न? आखिर ये बच्चा अन्य बच्चों से अलग जो दिखायी देता है, लेकिन वो नटखटपन, उद्दंडता और चपलता तो नहीं दिखाई देगी, जो एक बचपन में दिखाई देती है। बच्चे ने अपने इंटरव्यू में ये तक कहा था कि इसे अपने साथी बच्चों के साथ रहना ठीक नहीं लगता, क्योंकि साथी बच्चे उसकी कला की वाह-वाही नही करते। आखिर करें भी तो क्यूँ? वे सभी तो अपने बचपन को जी रहे हैं, मस्त हैं। वाह-वाही तो माँ- बाप करेंगे और अपने पड़ौसियों से वाह-वाही बटोरेंगे, अखिर सपना तो इनका पूरा हुआ है, बचपन के बलिदान के एवज में।

दुर्भाग्य की बात ये भी है कि ऐसे ही कार्यक्रमों को देख दूसरे अभिभावक अपने बच्चों में प्रतिभाओं को थोपने का श्रीगणेश कर देते है। अलबर्ट आइंसटीन, एडिसन, न्यूटन, हॉकिन्स जैसे वैज्ञानिकों ने साधारण स्कूली शिक्षा ग्रहण कर एक उम्र आने पर ही दुनिया को अपने चमत्कार दिखाये। इन वैज्ञानिकों ने अपने बचपन का भरपूर मज़ा लेते हुए साधारण बच्चों जैसी शिक्षा ग्रहण की और तय उम्र आने पर ही साबित किया कि प्रतिभाओं को निखरने के लिए एक समय चाहिए होता है, जो वर्तमान दौर में अभिभावकों द्वारा नकारा जा रहा है। मेरा मानना है कि अभिभावकों को धैर्यपूर्वक अपने बच्चों को मार्गदशित करना होगा, बच्चों को नये विषय, वार्ता या शिक्षा से कुछ इस प्रकार जोड़ना चाहिये कि ये उन्हे बोझ की तरह ना लगे अपितु उसमें वे घुलें और रम जायें।

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8 अगस्त 2006 को डेव्हलपमेंट साईंस नामक पत्रिका मे प्रकाशित एक शोध के अनुसार बच्चों में कुछ खास न कर पाने की स्थिती में एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है, बच्चे चिड़चिड़े और एकांतप्रिय हो जाते हैं और यह दशा कभी-कभी बच्चों में आत्महत्या जैसे वि़चारों को जन्म देती है। मैक्मास्टर विश्वविद्यालय के सायकोलॉजी, न्युरोसाईंस और बिहेवियर विभाग के प्रोफ़ेसर डेविड शोर का मानना है कि माता-पिता ने जितना अनुभव और ज्ञान अपनी उम्र के 20 वर्षो में प्राप्त किया, अपने बच्चों से आशा रखते हैं कि वो अपने 3 साल में सब कर गुजरे और ऐसी स्थिती में बच्चा जवान होने तक बुजुर्गों जैसी सोच वाला हो जाता है, शायद उसे युवावस्था में आने का मौका ही नही मिलता। ऐसी प्रतिभा किस काम कि जो बच्चे को बच्चा और युवा को युवा न रहने दे। प्रो. डेविड शोर कहते हैं, "कम से कम 12 वर्ष की उम्र तक बच्चों को बच्चा ही रहने देने में भलाई है, प्रतिभा सम्पन्न होने के लिए उम्र कोई मायने नही रखती।

घर की चौखट और आँगन के आस-पास दौड़-धूप करते बच्चे, हाथों में टिफ़िन और बैग लिये स्कूल जाते बच्चे, खुले मैदान में धूल से सने खेलते कूदते बच्चे, माता-पिता के साथ मस्ती में चूर बच्चे, अपनी हर सफ़लता और विफ़लता को माँ- बाप से अपनी बातों के जरिये बतियाते बच्चे, एक बार फिर दिखाई देने चाहिए। अभिभावक, शिक्षक और परिवार के बुजुर्ग बच्चों के साथ बच्चों जैसा व्यवहार करें वर्ना वो दिन दूर नहीं जब हिन्दी शब्दकोश से "बचपन" जैसे शब्द हटा दिये जायेंगे..और बचपन मरता चला जायेगा......बचपन को बचाए रखने की कवायद जरूरी है।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

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