रंगाई छपाई की रेशमी कहानी; गोंड आदिवासियों की छीपा कला

"छीपा" शब्द उतना ही पुराना है, जितना रंगाई और छपाई का इतिहास। रंगाई और छपाई की कला का जन्म भारत से होकर दुनिया के तमाम देशों तक प्रचलित हुआ। पुरातन समय में सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा के साथ छीपा शिल्पी न केवल अपनी कला में निखार ला रहे थे बल्कि अच्छा व्यवसाय भी कर रहे थे।

Anulata Raj NairAnulata Raj Nair   26 Aug 2022 11:47 AM GMT

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रंगाई छपाई की रेशमी कहानी; गोंड आदिवासियों की छीपा कला

तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ती दुनिया में कितना कुछ पीछे छूट रहा है इसका हमें एहसास ही नहीं है। सब कुछ पाने की दौड़ में फ़ुरसत के पल गुम हो गए। मशीनें आई तो हाथ का काम करने वाले पीछे छूटने लगे। ऐसे ही मध्यप्रदेश के सतपुड़ा के जंगलों में रहने वाले 'छीपा' आदिवासियों की नायाब कला को सबने बिसरा दिया।

रंगरेज़ी और छपाई ने सदियों से हमारे देश में और विदेशों में भी जगह बनाई हुई है। तरह तरह के कपड़े और क़िस्म क़िस्म की छपाई की अपनी दुनिया है जो कला और व्यवसाय को बड़े जतन से जोड़े हुए है।

छपाई का सम्बंध सिन्धु घाटी की सभ्यता से ही पाया जाता है। "छीपा" शब्द उतना ही पुराना है, जितना रंगाई और छपाई का इतिहास। रंगाई और छपाई की कला का जन्म भारत से होकर दुनिया के तमाम देशों तक प्रचलित हुआ। पुरातन समय में सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा के साथ छीपा शिल्पी न केवल अपनी कला में निखार ला रहे थे बल्कि अच्छा व्यवसाय भी कर रहे थे।

अपने शानदार अतीत, आर्थिक वैभव और सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ छीपा समुदाय अपनी पारंपरिक हैण्ड ब्लॉक प्रिंटिंग की कला को विस्तार देते रहे पर आजादी के बाद औद्योगिक क्रांति के दौर के साथ आती हुई मशीनों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाने के कारण इस कला को बचाने में असफल रहे। समय के साथ बढ़ती लागत और बाज़ार के अभाव ने छीपा समुदाय की इस पारंपरिक कला को लगभग 35 वर्ष पूर्व गोंडवाना अंचल से विलुप्त कर दिया। परिवार के भरण पोषण के लिए समुदाय के अधिकतक शिल्पी, रोजी रोटी के अन्य कामों में लग गए और इस अंचल से जेहन से एक समृद्ध पारम्परिक कला की पहचान ही खो गई।


खोए को खोज लाना, भूले को याद करने वाले लोग अभी संसार में हैं शायद इसलिए ये दुनिया इतनी सुंदर और रंगीन है।

छिन्दवाडा अंचल से विलुत हो चुकी छीपा हैण्ड ब्लाक प्रिंटिंग को पुनर्जीवित व पुनर्स्थापित करने का प्रयास रोहित और आरती रूसिया, अपनी संस्था "आशा" (ASHA - Aid & Survival Of Handicraft Artisans) के माध्यम से पिछले दस वर्षों से कर रहे हैं। ये संस्था स्थानीय ग्रामीण आदिवासी महिलाओं को ब्लॉक प्रिंटिंग की कला में प्रशिक्षित करती है और उन्हें रोजगार प्रदान कर मुख्य धारा में शामिल होने में मदद करती है। छिंदवाड़ा अंचल में हथकरघे पर बुनाई की भी समृद्ध परंपरा रही है, किन्तु पावरलूम की वजह से इस पारंपरिक कला पर भी संकट छाता हुआ नज़र आता है।

रोहित और आरती अपनी संस्था आशा के माध्यम से स्थानीय बुनकरों के द्वारा बनाई टसर सिल्क की साड़ियों और अन्य उत्पादों पर छीपा ब्लॉक प्रिंट करवा रहे हैं और बेहद सुंदर चीज़ें कला प्रेमियों और शौकीन लोगों तक पहुंचा रहे हैं।

आज बीस से अधिक ग्रामीण आदिवासी महिलाओं (शिल्पियों) का जीविकोपार्जन ब्लॉक प्रिंटिंग कला की वजह से हो रहा है और लगभग इतने ही बुनकर भी जुड़े हुए हैं।

मॉडर्न टैटू यानी गोदना से अब ग्रामीण अंचल भी अछूते नहीं रहे है। पर गोंडवाना अंचल में ये पारंपरिक गोदना कला विलुप्त हो रही थी। पर अब आशा जैसी संस्थाएं अनुसन्धान कर उन चिन्हों को कपड़ों पर ब्लॉक प्रिंट के माध्यम से छापकर कलाप्रेमियों को उपलब्ध करवाने का काम भी कर रही हैं, जिससे इन गोदना प्रतीक चिन्हों को भी बचाया जा सके।

महीन कारीगरी करके लकड़ी के साँचे बने, उनमें रंग भरे, हथकरघे की तालबद्ध खट-पट के बाद बने नाजुक कपड़े पर जब ये छापे पड़े तब ही तो हुआ जादू, तभी तो लिखा गया ताने बाने पर इश्क ...

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