कश्मीर के लिए लड़ना पड़े तो युद्ध हो निर्णायक

कश्मीर में सैनिक मर रहे हैं, आतंकवादी ताल ठोंक कर जिम्मेदारी ले रहे हैं लेकिन इमरान खां सबूत मांग रहे हैं । मुम्बई और पठानकोट में सबूत दिए भी गए परन्तु अंजाम क्या हुआ। समाधान केवल युद्ध से नहीं होगा अब निर्णायक युद्ध होना चाहिए।

Dr SB MisraDr SB Misra   10 April 2019 2:04 PM GMT

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कश्मीर के लिए लड़ना पड़े तो युद्ध हो निर्णायक

श्मीर में सैनिक मर रहे हैं, आतंकवादी ताल ठोंक कर जिम्मेदारी ले रहे हैं लेकिन इमरान खां सबूत मांग रहे हैं । मुम्बई और पठानकोट में सबूत दिए भी गए परन्तु अंजाम क्या हुआ। समाधान केवल युद्ध से नहीं होगा अब निर्णायक युद्ध होना चाहिए।

आजादी के बाद चार युद्ध हो चुके हैं, लेकिन वे निर्णायक नहीं हुए। युद्ध निर्णायक तब कहा जाएगा जब पाकिस्तान भारत को आतंकवादी सौंपे या भविष्य में युद्ध के लायक न बचे और देश का वातावरण देशहितकारी हो।

हम सोचते हैं लड़ाई सरहद पार के आतंकियों से ही लड़नी है। वास्तव में आतंकियों को पनाह देने वालों, पत्थरबाजों, आजादी के झंडाबरदारों, धारा 370 के कारण कश्मीरियत का राग अलापने वालों, अलगाववादियों के लिए मानवाधिकारों की वकालत करने वालों, सिद्धू और मणिशंकर जैसे पाकिस्तान के हमदर्द भारतवासियों, गोली का जवाब बोली के पक्षधर और आतंकियों के मुखबिरों के खिलाफ भी युद्ध का आरम्भ होना है।


यदि इनके लिए सहनशील रहे तो कहते रहिए 'शहादत बेकार नहीं जाएगी' जैसे गाँव का गरीब कहता है 'अबकी मारौ तो जानी।'

पुलवामा की आतंकी घटना जिसमें 42 बहादुर जवान छल से मारे गए, दुखद और भयावह है, लेकिन नई नहीं है। पाकिस्तान द्वारा अक्टूबर 1947 में जब कबाइली हमला कराया गया और हमारी सेना उन्हें मारते हुए वापस खदेड़ रही थी तो युद्ध निर्णायक हो सकता था लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्र संघ जाकर जनमत संग्रह का वादा कर दिया, युद्ध विराम हो गया और सेना के हाथ बंध गए। बाद के वर्षों में सरकार ने कश्मीर में चुनाव को ही जनमत संग्रह मान लिया।

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कश्मीर हमारे लिए जमीन का टुकड़ा नहीं है, यहां यादें बसी हैं आदि शंकराचार्य, ईसा मसीह, गुरु तेगबहादुर, स्वामी विवेकानन्द और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की। भले ही आजादी के दिन जम्मू-कश्मीर की रियासत भारत का अंग नहीं थी, लेकिल वल्लभ भाई पटेल का हम पर एहसान है जिन्होंने बाद में कश्मीर का बिना शर्त भारत में विलय कराया।

दुर्भाग्यवश फारूक अब्दुल्ला के पिता और नेहरू के मित्र शेख अब्दुल्ला ने धारा 370 का प्रावधान जुड़़वाया, जिससे कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी नहीं रहा। शेख साहब आजाद कश्मीर चाहते थे और उन्हीं विचारों की उपज है हुरियत जैसे संगठन जिन्हें पिछली सरकारें पालती रहीं।

आतंकवादियों के हौसले तब बढ़े जब 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मुहम्मद सईद देश के गृह मंत्री बने और उनकी बेटी रूबिया सईद को आतंकवादियों से छुड़ाने के बदले खूंखार आतंकवादियों को रिहा किया गया, जिन्होंने पंडितों को कश्मीर से बाहर किया। आतंकवाद को बल तब भी मिला जब अटल जी की सरकार ने विमान अपहरण कांड में अजहर मुहम्मद सहित अन्य आतंकवादियों को कंधार छोडने जसवंत सिंह को भेजा।

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आतंकवादियों के हौसले तब बुंलन्द होते हैं जब आतंकियों के जनाजे में हजारों लोग शामिल होते हैं और उन्हें मुसलमानों के कब्रिस्तान में बाइज्जत जगह मिलती हैं, भले ही उनका कोई धर्म नहीं है। उनके हौसले तब भी बढ़ते हैं जब मस्जिदों में उनके पक्ष में तकरीरें होती हैं और उन्हें बिरयानी खिलाई जाती है और मुस्लिम सैनिक श्रीनगर की मस्जिद में नमाज तक अता नहीं कर पाते।

सरकार यदि कश्मीर समस्या का समाधान चाहती है तो सबसे पहले संसद का सम्मान करते हुए उस संकल्प को पूरा करना चाहिए जो संसद ने सर्वसम्मति से लिया था। संकल्प था कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है और हम उसे हासिल करेंगे। यदि ऐसा हो सके तो पीरपंजाल जैसे इलाके जो सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, हमारे पास होंगे। दूसरी बात है कि कश्मीर घाटी में ही पत्थरबाज हैं, अलगाववादी हैं, आतंकवादी पनाह पाते हैं। इसलिए जम्मू कश्मीर के तीन प्रान्त बनाकर घाटी का अलग से इलाज करना चाहिए।


घाटी से कश्मीरियत कब की चली गई, राजीव गांधी कहते रहे हम देखेंगे, अटल जी बोलते रहे लक्ष्मण रेखा पार हो चुकी, मोदी जी कहते हैं हम बदला लेंगे, फिर भी भारत ने पाकिस्तान को 'मोस्ट फेवर्ड नेशन' का दर्जा दिया और सिंधु नदी समझौता नहीं तोड़ा, तब कैसे मान लें हम बदला लेंगे।

सेना को गुनहगार मानने वाले और सेना की निष्पक्षता पर शंका करने वालों का जब तक इलाज नहीं होगा हम घर में छिपे हुए गद्दारों से जूझते रहेंगे, आतंकवादी आते रहेंगे और कश्मीर समस्या बनी रहेगी। चीन जैसे देश अपने स्वार्थ के लिए मसूद अजहर को आतंकवादी तक नहीं मानते जो पुलवामा घटना की स्वयं जिम्मेदारी लेता है।

आज की बदली परिस्थिति में यदि युद्ध हुआ तो 1965 से भिन्न स्थिति होगी जब शास्त्री जी को मित्र देश रूस ने ही जीती हुई जमीन वापस करने को मजबूर किया था, 1971 से जब अमेरिका ने हस्तक्षेप करके इंदिरा गांधी और भुट्टो के बीच बातचीत कराई थी और जीती जमीन वापस करनी पड़ी थी। मोदी ने कुछ कड़े कदम उठाए जरूर हैं, लेकिन अब सर्जिकल स्ट्राइक से काम नहीं चलेगा। देश चाहता है निर्णायक कदम, जिससे पाकिस्तान को भविष्य में फन उठाने लायक न छोड़ा जाय।

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