छत्तीसगढ़िया गांव: यहां बारहों महीने है तीज–त्यौहार का मौसम

मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। गांव कनेक्शन में उनका यह कॉलम अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की उनकी कोशिश है। अपने इस कॉलम में वह गांवों की बातें, उत्सवधर्मिता, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करेंगी।

Manisha KulshreshthaManisha Kulshreshtha   15 Feb 2019 10:30 AM GMT

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छत्तीसगढ़िया गांव: यहां बारहों महीने है तीज–त्यौहार का मौसम

नमस्ते ! राम राम!

मैं थोड़े ही दिन पहले घूम कर आई हूं। यादें ताजा हैं, तो सोचा चलो आपसे बांट लें। अरे! बड़ा आनंद रहा। गांव जैसे गांव। सजीले कच्चे घर। धान से भरे कुठार। अब सरगुजा इलाका तो है ही 'धान का कटोरा' हमारे देस का। हजारों किस्म के धान। रंग, रूप, स्वाद और महक में।

हमारे संग थे, उसी इलाके के देश के बड़े पुरातत्ववेत्ता और ज्ञानी राहुल सिंह जी। हम जो आंखों से देख रहे थे वह तो अनोखा था ही, हरा–भरा सुंदर इलाका। खेतों में धान, कनक (गेहूं) के अलावा भी कई तरह के पौष्टिक अनाज वहां उगाए जाते हैं। कच्चे घर ऐसे बड़े–बड़े कि पूछो मत। दालान के बाद कुठार, कुठार के बाद गोल गलियारे आंगन को जोड़ते हुए। आंगन में एक ओर रसोई, दूसरी ओर कमरे। सब कच्चा, लिपा हुआ। मगर ऐसा सुंदर कलाकारी से लिपा हुआ कि संगमरमर की चिकनाई को मात करे। उंगली के पोरुओं से डिज़ाईनें टाइलों को मात करें। गोबर में, माटी, गेरू मिला कर ऐसा सुंदर फर्श बना दें कि देखते रह जाओ। गलियारों में जाली पर मिट्टी के सुआ, चिड़ियां, बतख, लंगूर, बेलें, फूल, वृक्ष, नर–नारी। छत पर खपरैलों पर भी झोंपड़ियों के ऊपर चिड़ियां बिठा रखीं हैं।

इस कला की भागीरथ रहीं सोनाबाई। यह कला उन्हीं के नाम से जानी जाती है। हमें राहुल सिंह जी ने बताया कि वह ये कला अपने मायके से सीख कर आईं और उसे बहुत ऊंचा उठा दिया। राहुल जी के माध्यम से हमें संयोग मिला कि हम सोना बाई का अपना घर देखें। सोना बाई तो गत वर्षों में स्वर्ग सिधार गईं, मगर अपनी कला को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बना गईं। लोग वह कला सीखने सरगुजा आते हैं।

हां, तो हम उनके घर गए। उनके परिवारजन, पुत्र, बहू, पौत्र, पुतोहू सब थे। घर क्या था एक 'आर्ट गैलरी' था। सब तरफ उनके बनाए सजीव उभरे दृश्य। पानी भरती औरत, पेड़ पर बंदर, तोते, बेलें। आंगन में रखा धान ख़ुशहाली का प्रतीक।


सरगुजिहा लोगों का प्रकृति प्रेम देखते बनता है। एक तो कम बरबाद हुए जंगल, चमकीले बाज़ारों की जगह 'हाट'। खूब धान देने वाली धरती मैय्या। प्रकृति ने दोनों हाथों से सुंदरता दी, उस पर वहां के लोगों ने उसे सहेजा भी है। साफ–सफाई, साफ नदियाँ, लोक संगीत–नाच से प्यार करने वाले लोग। पॉलीथीन का प्रकोप वहां न के बराबर दिखता है। वहां के लोगों में सबसे बड़ा धन 'संतोष धन' है। जहां संतोष धन होता है, वहां उत्सव और मंगलकारी रीति रिवाज भी बहुत होते हैं। क्योंकि आपस में भाईचारा होता है, तो मन करता है न मिल कर कुछ न कुछ करें कि ज़िंदगानी खुशी से कट जाए। सो यहां बारहों महीना कोई न कोई तीज–त्यौहार का मौसम।

यह कोई भूलने की बात है? हमारे यहां भी साल भर कोई न कोई त्यौहार तो होता ही था। वो बात अलग है, पढ़-लिख कर हम छोड़ते गए। होली के बाद ही कितने त्यौहार, छोटे त्यौहार –टेसू, बछबारस, सीता सप्तमी, तीजें छोड़ दीं हमने, या कम मनाते हैं। वरना, बछड़ों की संभाल, पेड़ों की संभाल, कुओं की संभाल हमारे गरीब कामगारों, जुलाहों, कुम्हारों, नाइयों, मालियों, अनाज भूनने वालों, छोटे किसानों की देखभाल इन्हीं त्यौहारों के चलते हो जाती थी।

राहुल सिंह जी को भी बहुत प्रिय है, सरगुजा यानि अंबिकापुर जिला और उसके गांव। वहां उस अंचल की जमीनी बातें बताईं उन्होंने। एक तो धान की 23 हजार क़िस्में सहेजी जा रहीं हैं उस इलाके की। दूसरे यह इलाका अपने भीतर पुराना इतिहास लिए है, इसलिए यहां अकसर खुदाई में मंदिर, महल निकलते हैं। उन्होंने मुझे रामगढ़ की गुफाएं दिखाईं। कहते हैं जहां कालिदास ने बैठकर मेघदूत की कल्पना की थी। उस गुफ़ा में ब्राह्मी लिपि में लिखा एक संदेश था। जिसे विश्व का पहला प्रेम संदेश कहा गया। जिसमें सुतनुका दासी रूपदीन दक्ष को प्रेम निवेदन कर रही है। वहां से हम महेशपुर गए, जहां बहुत पुराने शिवमंदिरों के अवशेष थे। यहां की माटी ने बड़े गुणीजनों को जन्म दिया है। साहित्यकार, इतिहासकार, वैज्ञानिक, मानव शास्त्री, दार्शनिक आदि। लोक कलाकारों की तो गिनती ही नहीं।

हम होली के दिनों में गए थे सो सैला और सुआ नाच की धूम थी। हमें रास्ते भर लोकनर्तकों की टोलियाँ मिलीं। मैंने तो उन रंगीले फुंदनों बाँधे सजीले नर्तकों के संग फोटो भी खिंचा ली। यहां बांस का बहुत शानदार काम होता है। राष्ट्रीय स्तर के बांस शिल्पी यहां हैं। यहां के व्यंजन, धान से ही ज्यादातर बनते हैं। फरा, धुसका, बरा, मालपुआ, करी–लाडू, खाजा। मैं तो भात की महक से ही मगन थी, जब तरह–तरह के व्यंजन खाए तो मन झूम गया।

राहुल जी ने लौटते हुए बहुत मजेदार बात बताई– यहां दो मित्र सावन के दिनों में आपस में 'मितान' बांधते हैं। मित्रता का धागा। जिसमें मित्र को दोना में पान, साबुत मूंग, गंगाजल, प्रसाद भेजा जाता है। मित्रता स्थायी करने को। इसमें, जाति, वर्गभेद नहीं होता। फिर इन दो मित्रों के परिवार आजीवन सुख-दुख में साथ निभाते हैं। है ना! कितनी प्यारी बात। चलिए तो आज से बांधा मैंने 'मितान' आप सबको।

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(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। इनका जन्म और शिक्षा राजस्थान में हुई। फौजी परिवेश ने इन्हें यायावरी दी और यायावरी ने विशद अनुभव। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों, सम्मानों, फैलोशिप्स से सम्मानित मनीषा के सात कहानी कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मनीषा आज कल संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो हैं और ' मेघदूत की राह पर' यात्रावृत्तांत लिख रही हैं। उनकी कहानियां और उपन्यास रूसी, डच, अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुके हैं।)

      

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