"कहती थीं न अम्मा! हाय हर चीज़ की बुरी"

मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। गांव कनेक्शन में उनका यह कॉलम अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की उनकी कोशिश है। अपने इस कॉलम में वह गांवों की बातें, उत्सवधर्मिता, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करेंगी।

Manisha KulshreshthaManisha Kulshreshtha   19 July 2018 8:29 AM GMT

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कहती थीं न अम्मा! हाय हर चीज़ की बुरी

नमस्ते साथियों,

गांव कनेक्शन मेरा बहुत पुराना है। सच कहें तो भीतर मेरे एक गांव की लड़की आज भी रहती है। जिसने बैलगाड़ी में से खींच कर गन्ने चुराए हैं। मैं याद करती हूं वो दिन जब गांव में घर ज्यादा होते थे, बाज़ार कम। खेत घरों से ज़्यादा और हर गांव के बाहर एक जंगल होता था। हवा शुद्ध होती थी और बीमारियां बहुत कम। लोग मेहनतकश होते थे, खूब खाते थे मगर मजबूत और दुबले के दुबले। मीलों यों ही चल लेते थे। नहीं?

अब जब मैं गांवो से गुज़रती हूं, जंगल तो बिलकुल नहीं मिलते, खेत भी कम-कम, घर-ढाबे, दुकानें जैसे सब कुछ बाज़ार में बदल गया हो ! नहीं? बड़ा जी दुखता है, हर जगह सीमेंट के घर !

लोग भी बदल गए, गांव जाते तो खाते घर की बनी मठरियां, सत्तू, शकरपारे, भुने अनाज, मूंगफलियां और पीते ताजा गन्ने का रस। अब तो गांव में भी प्लास्टिक में बंद चिप्स, कुरकुरे, नूडल और सॉफ्ट ड्रिंक। पहले गांव की लड़कियों के होते ये लम्बे कमर तक के बाल खैर ....वो ज़माना ही अलग था न। जब हमारी नानियां, दादियां- मां और मौसियों, चाचियों और बुआओं के रविवार के रविवार बाल धुलवाती थीं। वह भी शिकाकाई और रीठे से। फिर सब औरतें तेल लगा कर कंघी चोटी करतीं।

हम लोग बड़े हुए तो शैंम्पू करने लगे। कौन झंझट करता शिकाकाई आंवला भिगोने का। बाज़ार तरह-तरह के साबुनों - शैंम्पुओं से भर गया। कहते हैं न अति हर चीज़ की बुरी। हम देसी कपड़े धोने के पीले-भूरे साबुनों की जगह डिटर्जेंट वाले साबुन और पाउडर इस्तेमाल करने लगे।

अचानक हम में से कई औरतों को तरह-तरह की समस्याएं शुरू हो गईं। ज्यादा माहवारी, बच्चेदानी में गांठें। ब्रेस्ट कैंसर। बहुत खोजने पर एक सच सामने आया, डिटर्जेंट या इनसे प्रदूषित पानी में एक हार्मोन पाया जाता ज़ीनोएस्ट्रोजन जो हम महिलाओं के शरीर मे मिलने वाले एस्ट्रोजन की हूबहू नकल है। इसका स्तर हमारे शरीर में जब बढ़ता है तो ज्यादा ब्लीडिंग, गाँठों से लेकर ओवरी , ब्रेस्ट वगैरह के कैंसर हो सकते हैं।

मुझे भी यह सब समस्याएँ हुईं। मुझे अस्पतालों के चक्कर लगे। खून की कमी हो गई। साथ ही मैंने देखा ये पूरे पर्यावरण के लिए ही नुक़सानदेह हैं। तो कुछ चीजें तो मैंने तुरंत ही बाजार से बिलकुल लाना छोड़ दी। जो पर्यावरण का नाश मारते हैं। जैसे :


1. पोंछे में डालने वाले फिनाइल/ या कीटाणुनाशक

2. डियॉडरेंट

3. टैल्कम पाउडर

4. पैकेट में पैक बिस्किट

5. टॉयलेट पेपर्स

6. रूम फ्रेशनर्स

7. हिट टायप के कीटनाशक

8. प्लास्टिक का कोई भी कंटेनर

9. पॉलीथीन

10. वेट टिशूज


बहुत सारी चीजों का इस्तेमाल बहुत सीमित कर दिया, जो बॉडी में ज़ीनोएस्ट्रोजन की तरह घुस जाते हैं और हैवी ब्लीडिंग का कारण बनते हैं । आप इनका विकल्प ढूंढ सको तो अच्छा है। आप लोग तो जानते हो, मुलतानी मिट्टी का इस्तेमाल बालों के लिए अच्छा है। बेसन का मुंह धोने के लिए। शिकाकाई, रीठा और आँवला तो हैं ही। ये चीजें हैं:

1. शैंम्पू-कंडीशनर

2. बॉडी सोप

3. मॉइश्चराइज़र

4. डिटर्जेंट्स

5. हेयर ऑयल्स

6. कॉस्मेटिक्स

7. प्लास्टिक

ख़ुशबूदार सेंट और डियोज़ में एल्युमिनियम होता है, जो कैंसरकारक साबित हो चुका है, हम बगलों में लगाते हैं वह ब्रेस्ट में चला जाता है। पाउडर के नकली खुश्बुओं वाले पार्टिकल्स सीधे लंग्स में। मैं बिलकुल नहीं लगाती।

बस मेरी एक और बात मान लें, अपने घर से निकलने वाले कचरे को रोज चैक करें। कितनी प्लास्टिक आप रोज पर्यावरण में फेंक रहे हैं। कोशिश करें कम से कम फेंके। आप सोचो आपको क्या चाहिए आज के दिन प्लास्टिक या आने वाले समय में बच्चों के लिए साफ पानी? या फिर कैंसर की महामारी? आपको पता है न कैंसर लाइलाज है, इलाज है भी तो बहुत मंहगा और तकलीफ़देह।

घर में तो आप फ़िल्टर का या आरओ का पानी पी लेंगे। मगर तालाबों, नदियों का पानी आपकी सब्जियों, अनाजों, मछलियों, चिकन, मटन में जाएगा। उस पर आरओ के एक लीटर स्वच्छ पानी के लिए हम दस लीटर खराब पानी जमीन में पहुंचा देंगे। जिससे कुंए और ज़हरीले होते जाएंगे।

प्लास्टिक और रसायनों से तो प्रदूषित पानी जाएगा ही धरती में।

साथियों चलो फिर लौट चलें भारतीय पुरानी परंपराओं की तरफ। थैला लेकर चलें सब्जी लेने, स्टील बरनियां दूध लाने, तेल लाने के लिए फिर से बरतें। प्लास्टिक/ पॉलीथीन बिलकुल घर न लाएं।

प्लास्टिक के डिब्बे, बोतलों को भी ना कहो। कांच की बोतलें सहेज लो उनमें पानी भर कर पियो।

सबसे जरूरी बात, बाजार तो थोपेगा हम पर जरूरत। पर हम वही खरीदें जिसकी जरूरत हो। पहले अम्मा कहती थीं न हाय! हर चीज की बुरी। पैसा तुम्हारे जेब में होगा तो बाजार कोशिश करेगा कि वह उसकी जेब में चला जाए, वह तुम्हें ललचाएगा - भैया ये ले लो, इसके बिना तुम्हारी जिंदगानी बेकार। पर दिमाग से सोचो सच में तुम्हें वह चीज चाहिए? न चाहिए हो तो कतई मत लो। बाजार की चालाकी पर मत जाओ। बाजार अगर ललचा कर बीमारी, गरीबी, और धरती का नाश कर रहा है तो भैया बचो उसके लालच से।

आखिरी बात, हवा शुद्ध रहे तो आंगन में फलदार पेड़ लगाओ। सब्जी की बाड़ी लायक जगह हो तो क्या बात, घर की ताज़ी सब्जी खाओ। तो हमने बता दी आपको एक बहुत जरूरी बात। याद रखिएगा।

(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। इनका जन्म और शिक्षा राजस्थान में हुई। फौजी परिवेश ने इन्हें यायावरी दी और यायावरी ने विशद अनुभव। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों, सम्मानों, फैलोशिप्स से सम्मानित मनीषा के सात कहानी कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मनीषा आज कल संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो हैं और ' मेघदूत की राह पर' यात्रावृत्तांत लिख रही हैं। उनकी कहानियां और उपन्यास रूसी, डच, अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुके हैं।)

     

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