पंचायती राज दिवस: गांधी के सपनों से वर्तमान का सफ़र, सपने अधूरे रह गए

Amit | Apr 24, 2018, 18:12 IST
Mahatma Gandhi
"भले ही अभी नेहरु मेरी बात ना मानते हों, जो मतभेद होते हैं, जता देते हैं। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे बाद नेहरु, मेरी ही भाषा बोलेंगे। अगर ऐसा न भी हुआ फिर भी मैं तो इसी इच्छा से मरना चाहूंगा" ऐसा नहीं था कि नेहरू और गांधी के बीच मतभेद ना हों लेकिन फिर भी गांधी जी को विश्वास था कि नेहरु उनका कहा मानेंगे।

कहने को तो गांधी जी के ग्राम-स्वराज के सपने को संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में स्थान देकर गांधीवाद के प्रति अपनी निष्ठा जताई थी, लेकिन हक़ीक़त में गांधीवाद के प्रति वे कितने जुनूनी थे, इसके लिए हमें पंचायती राज की दिशा में हुई प्रगतियों को देखना होगा।

हमारे संविधान पर टीका लिखने वाले ग्रेनविल ऑस्टिन के इन शब्दों पर गौर कीजिए, "हालांकि कराची प्रस्ताव की रचना का श्रेय जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तित्व को दिया जाता है, लेकिन उसके गांधीवादी प्रावधानों की नेहरु के व्यक्तित्व से बहुत अधिक संगति नहीं बैठती।"

यद्पि इस कराची प्रस्ताव में ग्राम-स्वराज की कोई बात नहीं थी लेकिन चूंकि नीति-निर्देशक सिंद्धांतों की जड़ें इसी प्रस्ताव तक जाती हैं तो हम ऑस्टिन की इस टिप्पणी को अनदेखा भी नहीं कर सकते।

नेहरु के लिए 'प्रकाश-स्तंभ' गांधी के सपने कितने महत्वपूर्ण थे, इसके लिए हम तमाम मसलों पर तुलनात्मक दृष्टि देख सकते हैं। लेकिन चूंकि यह अवसर पंचायती राज से जुड़ा है, तो हम यहां अपने को सिर्फ इसी तक सीमित रखेंगे। गांधी जी के ग्राम-स्वराज के सपनों पर जिस तरह नेहरु के काल में प्रगति हुई उससे लगता है कि इस पर पं. नेहरु ने गांधी जी की भाषा नहीं बोली।

अपने राजनीति शिष्य जवाहरलाल नेहरु के लिए

देश की स्वतंत्रता के 12 साल बाद और गांधी जी की मृत्यु के 11 साल बाद पं. नेहरु ने प्रयोग के तौर पर ग्राम-स्वराज की शुरुआत की। वह प्रयोग भी बस कहने को ही था। सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए गांधी जी ने ग्राम-स्वराज पर जोर दिया लेकिन नेहरु सरकार ने इस दिशा में 1957 में जो समिति बनाई वह भी मूल रुप से ग्राम-स्वराज के लिए ना होकर सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा के लिए थी। बलवंत राय मेहता नाम से जानी जाने वाली इस समिति ने लोकतंत्र विकेंद्रीकरण की सिफारिश की। यहीं से तीन स्तरीय शासन पद्दति, जो कि अभी तक द्विस्तरीय संघ और प्रांत (राज्य) स्तर पर थी, की आस जगी। प्रयोग शुरु हुआ राजस्थान के नागौर से... दिन गांधी के जन्मदिन था, 2 अक्टूबर 1959. लेकिन संघ द्वारा निर्देशित एक क़ानून के अभाव में राज्यों के बीच इनके ढांचे में एक-रुपता नहीं थी। पंचायत स्तरीय शासन कहीं दो भागों में बंटा था, तो कहीं तीन और चार स्तरों में।

चीजें बिना किसी ठोस रणनीति की मानों अपने आप चलती रहीं। नेहरु के बाद शास्त्री जी का छोटा सा कार्यकाल रहा, फिर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी। अधिक से अधिक सत्ता अपने हाथ में केंद्रित करने की चाह रखने वाली इंदिरा गांधी के समय में इस दिशा में कुछ बदलाव या नई पहल हुई हो, ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता। फिर जब जनता सरकार आई तो इनसे सुध लेते हुए अशोक मेहता समिति का गठन किया। इससे पहले कि समिति का कार्यकाल पूरा हो पाता, आंतरिक झगड़ों ने जनता सरकार का कार्यकाल पूरा कर दिया गया। परिणाम स्वरुप किसी ने इनकी सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया।

ग्रामीण विकास और गरीबी मुक्ति कार्यक्रम की व्यवस्था के लिए योजना आयोग द्वारा 1985 में जीवीके राव समिति का गठन हुआ। इस समिति का निष्कर्ष ही वास्तव में आज भी प्रासंगिक है। समिति का मानना था कि विकास प्रक्रिया दफ़्तरशाही युक्त होकर पंचायती राज से दूर हो गई है। राव समिति ने इसे 'बिना जड़ की घास' की संज्ञा दी है। इस समिति के अनुसार पंचायती स्तर पर नीति-निर्माण में जिला-स्तरीय प्रशासन की भूमिका कम की जानी चाहिए। हम गौर करें तो पाएंगे कि यही समस्या आज भी बनी हुई है। कहने को ग्रामसभा से युक्त ग्राम-पंचायत हमारे बीच हैं लेकिन उनके हाथ में नीति-निर्माण के कार्य बहुत कम ही आते हैं, उनके हिस्से सिर्फ क्रियान्वयन छोड़ दिया गया है।

पंचायती राज को आधुनिक ढांचा देने की सिफारिश सबसे ठोस पहल 1986 में बनी एल.एम सिंहवी समिति ने की। लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पुनर्जीवन के लिए बनी इस समिति ने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक सिफारिश देने की सिफारिश की। राजीव गांधी सरकार ने सिफारिशों को अमलीजामा पहनाने के लिए 64वां संविधान संशोधन करने का प्रयास किया लेकिन लोकसभा में प्रचंडतम बहुमत लिए राजीव सरकार राज्यसभा की बाधा पार ना कर सकी।

वीपी सिंह सरकार ने भी अपने छोटे से कार्यकाल में संशोधन बिल पेश किया लेकिन सरकार गिरी और बिल भी व्यपगत हो गया। आखिर गांधी जी के सपनों को हक़ीक़त में बदलने का सौभाग्य पीवी नरसिम्हा राव को मिला, जिसकी परिणति 73वें और 74वें संशोधन के रुप में हुई।

प्रश्न उठता है कि जिन महात्मा गांधी के प्रिय शिष्य नेहरु ने जिस ग्राम-स्वराज के लिए लगभग कुछ ना किया, गांधी जी के उस सपने के लिए राजीव गांधी और फिर उनके बाद की सरकारों ने इतनी तेजी से प्रयास क्यों किए?

प्रभु चावला मई 1989 में लिखे एक लेख में इसके कारणों की ओर इशारा करते हैं। प्रभु चावला के अनुसार 542 में 450 सीटें ऐसी थीं, जिन पर ग्रामीण प्रभाव स्पष्ट था। देश में सवा दो लाख के आसपास पंचायतें थीं और इन पंचायतों को रिझाकर धर्म और जातियता के बंधन भी तोड़े जा सकते थे। कुल मिलाकर यह ऐसी चाल थी जिस पर अगर दांव लगाया जाता तो हार नहीं थी या हार की गुंजाइश बहुत कम थी। अतः आने वाले चुनावों में ग्रामीण मतदाताओं को रिझाकर अपनी जीत सुनिश्चित करने लिए राजीव गांधी ये पांसा फेंका था।

इसे हम तत्कालीन राजनीतिक परिस्थियों से भी देख सकते हैं। 1989 का चुनाव आते-आते बोफोर्स की धमक राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी को हारने की हद तक परेशान करने लगी थी। लोकसभा में भले ही प्रचंड बहुमत था लेकिन राज्यों में कांग्रेस को चुनौती देने वाले पर्याप्त संख्या में आ चुके थे। ऐसे में राजीव गांधी सीधे गाँवों में पहुंचकर गाँवों को अपना बनाने की सोच रहे थे। प्रभु चावला इसे 'दून' से 'देहात' की रणनीति का नाम दिया है। लेकिन ऐसा हो ना सका। उसके बाद जो कुछ हुआ, वह इतिहास है।

1992 में हुए इस बदलाव को ढाई दशक से ज्यादा समय बीत गया है लेकिन यदि हम अपने आसपास देखें तो यह गांधी जी के सपनों के आसपास भी नहीं भटकता। इसके क्या कारण हैं? संविधानविद ब्रजकिशोर शर्मा बहुत सफल ना बताते हुए अपनी किताब भारतीय संविधान-एक परिचय में कई कारण बताते हैं, जिनमें हैं:

  • शक्ति का अंतरण वास्तविक नहीं है
  • पिछड़े वर्गों और स्त्रियों के लिए आरक्षण से चुनने का लोकतांत्रिक अधिकार बहुत सीमित हो गया है।
  • जनसंख्या के अनुपात में स्थानों के आरक्षण से लोगों की निष्ठा राष्ट्र के प्रति ना होकर जाति के प्रति हो गई है, इससे विभाजनकारी प्रवृतियों को बढ़ावा मिला है
  • गाँवों में प्रधान जाति के हाथ में शक्ति आ गई है, जिसका प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए कर रही है, समूचे गाँव के लिए।
इन कारणों के केंद्र में आरक्षण घूमता है और चूंकि वर्तमान समय में इस पर बोलने की मनाही सी है तो कुछ देर के लिए इन पहलुओं को छोड़िए और यदि आपकी जड़ें गाँवों में हैं तो गौर कीजिए कि आपके गाँव में ग्राम-सभा की बैठक कब हुई थी? या आपने अपने आसपास कब इस तरह की बैठक सुनी या देखी है?

याद नहीं कर पाएंगे क्योंकि ऐसा होता ही नहीं है। यहीं शब्द ख़त्म होते हैं, यही गांधी के सपने टूट जाते हैं। पहले स्वालंबन के उनके चरखे तो तोड़ा गया, अब गाँवों तो तोड़कर उनके असली भारत को ख़त्म किया जाएगा।

चलते-चलते ग्राम-स्वराज के इस उदाहरण को देखिए:- जनपद जालौन की जालौन तहसील के अंतर्गत आने वाले सींगपुरा ग्राम-पंचायत में लेफ्टीनेंट कर्नल (रिटा.) यशवंत सिंह राठौर सरपंच हैं। वे पिछले दो साल से अपने गाँव में ग्रामीणों को पानी की उपलब्धता के लिए प्रशासन से हैंडपंप की मांग कर रहे हैं। 2016 में ही उन्हें जल-निगम द्वारा सर्वेक्षण के बाद 8 हैंडपंप लगाने की स्वीकृति मिल गई थी। लेकिन अब उनके पास यह अधिकार नहीं कि वे हैंडपंप लगवा सकें। यशवंत सिंह इस बारे में प्रशासन को लगभग आधा-दर्जन बार लिख भी चुके हैं।

इस संबंध में गाँव कनेक्शन ने जब जिलाधिकारी डॉ. मन्नान अख़्तर से पूछा तो उन्होंने कहा कि गाँव में हर व्यक्ति के घर हैंडपंप लगाने का प्रावधान नहीं होता। मानक के अनुसार जनपद में साढ़े आठ (8,500) हज़ार हैंडपंप होने चाहिए लेकिन 28 हज़ार है और चूंकि अब हैंडपंप का कोटा संबंधित विधायक के पास होता है तो वही इस बारे में कुछ कर सकते हैं।

तो एक सरपंच अपने गाँव के लोगों को पीने का पर्याप्त पानी भी उपलब्ध कराने की क्षमता नहीं रखता। यही है आज का ग्राम-स्वराज।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने निजी विचार है।)

Tags:
  • Mahatma Gandhi
  • panchayti raj divas
  • Jawaharlal Nehru‬
  • Gram panchayai

Follow us
Contact
  • Gomti Nagar, Lucknow, Uttar Pradesh 226010
  • neelesh@gaonconnection.com

© 2025 All Rights Reserved.