मुद्दा : किसान के उत्पाद के दाम को लेकर यह कैसा विरोधाभास

सरकार के सिर पर अचानक महंगाई की चिंता सवार हो गई है। इसीलिए रिज़र्व बैंक ने दो महीने के भीतर दूसरी बार रेपो रेट में 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर दी। मौजूदा सरकार को यह काम अपने शुरू के चार साल के कार्यकाल में एक बार भी नहीं करना पड़ा था।

Suvigya JainSuvigya Jain   8 Aug 2018 11:32 AM GMT

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मुद्दा : किसान के उत्पाद के दाम को लेकर यह कैसा विरोधाभास

रकार के सिर पर अचानक महंगाई की चिंता सवार हो गई है। इसीलिए रिज़र्व बैंक ने दो महीने के भीतर दूसरी बार रेपो रेट में 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर दी। मौजूदा सरकार को यह काम अपने शुरू के चार साल के कार्यकाल में एक बार भी नहीं करना पड़ा था। इसीलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस बीच देश में ऐसा हो क्या गया?

इसका सही जवाब पाना आसान नहीं है। लेकिन इतना जरूर पता है कि मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर बढ़ते-बढ़ते पांच फीसद तक पहुंच गई। आमतौर पर चार फीसद से ज्यादा महंगाई होने पर चिंता जताई जाने लगती है। सरकारी अर्थशास्त्री इसका एक ही कारण समझते और समझाते आए हैं कि बाजार के हाथ में पैसा ज्यादा होता हो तो महंगाई बढ़ती है।

और इसका आसान तरीका उसके पास यह है कि किसी तरह बाजार में पैसा कम कर कर दिया जाए। अब ये अलग बात है कि बाजार में पैसा कम करने से उत्पादक गतिविधियां भी कम होने लगती हैं और विकास की दर पर बुरा असर पड़ता है। रिज़र्व बैंक ने इन दोनों बातों पर गौर करने के बाद ही रेपो रेट बढ़ाने का फैसला किया होगा। लेकिन इसके अलावा रिज़र्व बैंक ने यह भी देखा है कि देश में कम बारिश के अंदेशे से कृषि उत्पादन घटने का अंदेशा है।

इस अंदेशे ने पैदा किया खतरा


इस अंदेशे ने अनाज के महंगे होने यानी खाद्य महंगाई बढ़ने का खतरा पैदा कर दिया है। लेकिन अंचभे की बात यह है कि सरकार का ही दूसरा विभाग यानी मौसम विभाग लगातार यह कहे चला जा रहा है कि देश में बारिश ठीक ठाक हो रही है। ये अलग बात है कि खबरें बाढ़ की दिखाई जा रही हैं। बहरहाल, मौसम विभाग का दावा है कि इक्का दुक्का इलाकों को छोड़कर वर्षा का समान वितरण है। उधर रिजर्व बैंक कम बारिश के अंदेशे में है। इस दुविधा पर गौर किया जाना चाहिए।

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रिज़र्व बैंक पहली तिमाही में ही महंगाई के आंकड़ों से ही चिंता में नहीं है। वह अगली तिमाही में महंगाई बढ़ने के अंदेशे से भी चिंतित है। उसी अंदेशे का हवाला देते हुए ही रिज़र्व बैंक ने कुछ महीनों के भीतर दूसरी बार रेपो रेट बढ़ाया। इतना ही नहीं, उसने खासतौर पर खाद्य महंगाई पर गौर किया है। और इसीलिए रेपो रेट बढ़ाकर रिज़र्व बैंक ने खाद्य महंगाई को काबू में लाने का तर्क दिया है।

खाद्य महंगाई, मतलब खाने का सामान महंगा होना। खाने का सामान का मतलब है किसान का उत्पाद। यानी मामला किसान के उत्पाद के दाम कम करने की कोशिश का है। गौरतलब यह है कि पिछले कुछ महीनों से पूरा जोर लगाकर यह प्रचार किया जा रहा था कि सरकार किसान के उत्पाद का दाम बढ़ाने की हरचंद कोशिश कर रही है ताकि बदहाल किसानों का दु:ख दूर हो। अब अगर रिजर्व बैंक किसान के उत्पाद के दाम कम करने के उपाय कर रहा है तो इसके मायने समझने पड़ेंगे।

रेपो रेट यानी लोगों की जेब छोटी करने का तरीका

रेपो रेट बढ़ाने को आसान भाषा में कहें तो ब्याज़ दर बढ़ा दी गई है। इससे लोगों की जेब में पैसे कम होंगे और वे ज्यादा खर्चा नहीं कर पाएंगे। यानी बाजार में चीजों की मांग घटेगी और चीजें सस्ती होंगी। अब सवाल यह है कि जब किसान को अपना उत्पाद सस्ते में बेचना पड़ेगा तो किसान के उत्पाद के दाम बढ़ाने का ढिंढोरा पीटने यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान करने का अर्थ ही क्या बचेगा? कोई कह सकता है कि किसानों को तो समर्थन मूल्य मिलेगा ही। लेकिन यह भी सबको पता है कि सरकार किसानों के कुछ उत्पादों का सिर्फ एक तिहाई ही समर्थन मूल्य पर खरीदती है। बाकी दो तिहाई उत्पाद उसे खुले बाजार में ही सस्ते में बेचना पड़ता है।

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कम बारिश की मार

रिज़र्व बैंक ने खाद्य महंगाई बढ़ने के अपने अंदेशे का एक और कारण इस बार अबतक कम हुई बारिश को बताया है। रिजर्व बैंक ने जब ब्याज दर बढाने का फैसला किया तब तक देश में 7 फीसद बारिश कम हुई थी। इधर गुज़रे पांच दिनों में यह आंकड़ा 10 फीसद कम बारिश तक पहुंच गया है। खरीफ की फसल की बुआई में कमी दर्ज की गई है। खासकर धान की फसल आठ फीसद कम बोई गई। इसी आधार पर रिज़र्व बैंक को अंदेशा है कि इस बार धान और दूसरी फसलों की उपज कम हो सकती है।

यानी मांग और आपूर्ति के नियम के लिहाज़ से बाज़ार में कम अनाज आने की वजह से दाम और बढ़ सकते हैं। रेपो रेट के जरिए अनाज के दामों में इसी बढ़ोतरी को रोकने की काशिश है। यहां सोचने की एक बड़ी बात यह है कि अबतक की कम वर्षा के मारे जिस किसान की उपज ही कम होगी उसे तो घाटे की भरपाई के लिए और ज्यादा दाम की जरूरत पड़ेगी। उसकी पहले से घटी फसल की कीमत को अगर और कम करने की कोशिश की जाएगी तो वह कहां जाएगा।

दलहन किसानों का क्या?


पिछले महीने सरकार ने विदेशों से खरीदी जाने वाली दालों पर इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने का एलान किया था। कारण यह बताया गया था कि सरकार दालों पर दी जाने वाली सब्सिडी घटाना चाहती है। इसलिए विदेशों से दालों की खरीद कम करके वह किसानों के इस उत्पाद के दाम बढ़ाने का मौका पैदा कर रही है। इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ने से अंदाजा लगाया था कि कनाडा और ऑस्ट्रेलिया से आने वाली दालों के आयात में 80 फीसद कमी आएगी।

बड़े शौक से कहा गया था कि इससे घरेलू किसानों को दालें उगाने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। देसी किसानों की दालें महंगी बिकेंगी। लेकिन सरकार को अब किसान के उत्पाद के दाम बढ़ने की चिंता हो रही है। अब रेपो रेट बढ़ाकर खाद्य महंगाई कम करने के उपाय किए जा रहे हैं। ऐसा करने से दालों की मांग पर कितना असर पड़ेगा? इसे भी अभी से सोचकर रख लेना चाहिए।

सवाल लक्ष्यों के विरोधाभास का

यह बात अपनी जगह ठीक है कि यह समय अगले लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले का नाज़ुक वक़्त है।लिहाज़ा सरकार नहीं चाहेगी कि उसे शहरी भारत में खाद्य महंगाई जैसे मुद्दे का सामना करना पड़े। लेकिन लक्ष्य विरोधाभासी तो नहीं होने चाहिए। एक तरफ हम किसान को उसके उत्पाद के वाजिब दाम दिलाकर उसकी आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य बता रहे हैं। और दूसरी तरफ खाद्य महंगाई को काबू में रखने के नाम पर खाद्य उत्पादों की मांग और दाम घटाने की बातें भी सुना रहे हैं। कहीं यह अपने घोषित लक्ष्य से उलट काम तो नहीं।

तलाशने पड़ेंगे दूसरे उपाय

बेशक शहरी भारत के हित को देखते हुए खाद्य महंगाई को काबू में रखना जरूरी है। लेकिन इसके लिए किसान के उत्पाद को सस्ता करने के अलावा दूसरे उपाय सोचना पड़ेंगे। वैसे गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा का कानून अपना कारगर असर दिखा ही रहा है। इसके अलावा शहरी मध्य वर्ग को पेट्रोल के दाम घटाकर भी राहत दी जा सकती है। कुछ समय से कच्चे तेल के दाम स्थिर हैं। बल्कि कुछ हफ़्तो से उतार पर हैं। इधर तेल को जीएसटी के दायरे में लाने की बातें पहले से हो ही रही हैं। यानी सरकार के पास पेट्रोल डीजल पर टैक्स घटाकर महंगाई को काबू में करने का अचूक तरीका उपलब्ध है। दशकों से हम कहते आए हैं कि तेल के दाम का महंगाई से सीधा संबंध है। कुलमिलाकर महंगाई को काबू में रखने के लिए कम से कम किसान के उत्पाद को सस्ता करने का कोई तुक नहीं बैठता।

(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं।)

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