टीचर्स डायरी: "स्कूल में गाँव वाले बांधते थे जानवर, आज बच्चे पढ़ते हैं"

विवेक कुशवाहा, उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर के उच्च प्राथमिक विद्यालय दहेना, में सहायक अध्यापक हैं। इससे पहले वो दो और स्कूलों में अध्यापक रहे चुके हैं। कठिन परिस्थितियों में इन्होंने पढ़ाई की और अब बच्चों को बेहतर शिक्षा दे रहे हैं। टीचर्स डायरी में वो अपनी कहानी साझा कर रहे हैं।

Vivek KushwahaVivek Kushwaha   9 May 2023 9:59 AM GMT

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टीचर्स डायरी: स्कूल में गाँव वाले बांधते थे जानवर, आज बच्चे पढ़ते हैं

मैं जब बारहवीं कक्षा में पढ़ता था तभी से कोचिंग पढ़ाने लगा था। कोचिंग से पैसे बचाकर मैंने बीएससी में एडमिशन लिया। जब मैं बीएससी कर रहा था तो अपने सहपाठियों को भी पढ़ाता था, क्योंकि गणित शुरू से मेरा पसंदीदा विषय रहा है। मेरे पिता एक गैस एजेंसी में काम करते थे तो इतनी कमाई नहीं थी, फिर भी वो मुझे हमेशा सहयोग करते रहे हैं।

मैंने फिर बीएड और उसके बाद एमएससी की, लेकिन एमएससी की दौरान ही मेरे पिता पैरालाइज्ड हो गए। अब घर की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही आ गई और उसी गैस एजेंसी में काम करने लगा जहां मेरे पिता करते थे। मुझे हर 2000 रुपए मिलते थे, अब काम करना और भी जरूरी हो गया था, क्योंकि बहन की शादी भी करनी थी।

साल 2011 में बेसिक शिक्षा विभाग में शिक्षक भर्ती निकली, लेकिन मामला कोर्ट में चला गया । साल 2015 में जब कोर्ट ने फैसला सुनाया तो तो मैंने किसी तरह पैसों का इंतजाम करके फार्म भरा और मेरा चयन भी हो गया। छह महीने की ट्रेनिंग के बाद मेरी नियुक्ति लखीमपुर के एक प्राथमिक विद्यालय में हो गई।

साल 2013 में जब उच्च प्राथमिक विद्यालय में (गणित और विज्ञान) के टीचर्स की भर्ती निकली और मैंने फार्म भरा तो मेरा चयन इसमें भी हो गया। 21 सितंबर 2015 को मेरी नियुक्ति शाहजहांपुर जिले के उच्च प्राथमिक विद्यालय, भमोरा में हो गई।

ये स्कूल मेरे घर फर्रुखाबाद से लगभग 78 किमी दूर था। तब तो मैं बाइक भी नहीं चला पाता था। मुझे कलान तक तो सवारी मिल जाती थी, लेकिन आगे स्कूल तक नहीं। मुझे हर दिन कलान से 10 किमी पैदल जाना पड़ता था। मैं हर सुबह पांच निकलता और 08:30 तक पहुंचता, ये सिलसिला एक साल दो महीने तक चला।


इस गाँव में जब पहुंचा तो देखने को मिला कि ये स्कूल नहीं जानवरों का तबेला है। कुछ कमरे में जानवर रहते तो कुछ में उनका चारा। कभी जो टीचर यहाँ पढ़ाते थे उनका देहांत हो चुका था। ऐसे में स्कूल सिर्फ कहने को था।

अब मेरे लिए इस स्कूल के कमरों को खाली कराना किसी परीक्षा से कम नहीं था। वहीं कुछ गाँव के लोगों ने मशवरा दिया की प्रशासन की मदद लेनी चाहिए। फिर में प्रधान के पास गया और उनसे आग्रह किया कि स्कूल के कमरे को खाली कराए क्योंकि मुझे यहां पढ़ाने के लिए सरकार ने रखा है।

बड़ी मुश्किलों के बाद उसे खाली करवाया। फिर मैं गाँव के ही प्राथमिक स्कूल पहुंचा जहां से मैंने ड्रॉपआउट बच्चों का नाम निकलवाया। मैं उन बच्चों के घर-घर जाने लगा। ये काम आसान नहीं था। कभी इनके पिता मुझे डांटते तो कभी इनकी माता गालियां देती । कहतीं " हमारे बच्चे खेतों में काम करते हैं वो क्या करेंगे पढ़कर"?

बड़ी मुश्किल से 17 बच्चों का नामांकन हुआ और उन्हें पढ़ाना शुरू किया। गाँव में जा-जाकर लोगों को कहता कि अगर आपके बच्चे इंटर या बीएससी की गणित पढ़ना चाहते हैं तो मैं स्कूल में छुट्टी के बाद फ्री में पढ़ाऊंगा। इस स्कूल में शौचालय तक नहीं था, फिर मैंने प्रधान की सहायता से मिलकर बनवाया। एक साल दो महीने के भीतर 63 बच्चों का दाखिला कर दिया।

12 दिसंबर 2016 को मेरा ट्रांसफर शाहजहांपुर के ही दहेना उच्च प्राथमिक विद्यालय में हो गया।

इस स्कूल में 4 टीचर थे और 136 बच्चों का नामांकन था मगर 35-40 बच्चे ही रोज आते। यहां बच्चों का विज्ञान, गणित और अंग्रेजी का सिलेबस पूरा बचा हुआ था। क्योंकि यहां इस विषय को पढ़ाने वाला कोई टीचर नहीं था। पहले तो मैंने इनका सिलेबस पूरा कराया। यहां गेट तक नहीं था न दीवारों पर पुताई हुई थी।

बेसिक शिक्षा अधिकारी से मिलकर ये सब काम कराया। अभी वर्तमान में दो टीचर हैं। बाकी का ट्रांसफर हो चुका है। यहां मुझे अभी पांच विषय पढ़ाना होता है। विज्ञान, गणित, अंग्रेजी, सोशल साइंस और संस्कृत। संस्कृत को पढ़ाने मैं खुद पहले पढ़कर जाता हूं।

आप यकीन मानिए मैं पढ़ाने को कभी बोझ नहीं समझता और खुद में एन्जॉय करता हूं। मुझे ये नौकरी बड़ी मुश्किल से मिली है, इसलिए इसकी में बहुत कद्र करता हूं। कोरोना के समय जब सब घर में रह रहे थे तब में बच्चों के घर पर जाकर मोहल्ला क्लास लगाता, जहां 10-15 बच्चों को पढ़ाता। मैं इनको नई टेक्नोलॉजी से अवगत कराने के लिए खुद भी ऑनलाइन कोर्स करता हूं।बच्चों के लिए भी मैंने अपने पैसों से खरीद कर एलसीडी टीवी ला दी, जिससे बच्चों को और अच्छे से पढ़ा सकूं।

मैं नामांकन के समय बच्चों की माता को बुलाता हूं और उन्हें शिक्षा का महत्व समझाता हूं। माता अगर निरक्षर भी होंगी तब भी वो अपने बच्चों को पढ़ा लेंगी ये मेरा अपना अनुभव है। आज यहां 272 बच्चे का नामांकन है और 150 से ज्यादा बच्चे रोज आते हैं। इनको किताब से लेकर फोटो कॉपी सब कुछ मैं खुद इंतजाम कर देता हूं ताकि इन गरीब बच्चों का पैसा खर्च न हो।

जैसा कि विवेक कुशवाहा ने गाँव कनेक्शन के इंटर्न दानिश इकबाल से बताया

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