माओवादियों के डर से अपने घर खाली कर रहे छत्तीसगढ़ के गाँवों के आदिवासी

छत्तीसगढ़ के डोरनापाल गांव में पिछले दो महीनों में ही तीन आदिवासी मारे गए। तीनों ही किसान थे और अपने खेतों में जाते समय माओवादियों द्वारा बिछाए माइन ब्लास्ट का शिकार बन गए। ऐसे ही कई बेकसूर लोग पिछले कई सालों से आये दिन नक्सलियों का शिकार बनते आ रहे हैं।

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
माओवादियों के डर से अपने घर खाली कर रहे छत्तीसगढ़ के गाँवों के आदिवासी

बस्तर। छत्तीसगढ़ के डोरनापाल गांव में पिछले दो महीनों में ही तीन आदिवासी मारे गए। तीनों ही किसान थे और अपने खेतों में जाते समय माओवादियों द्वारा बिछाए माइन ब्लास्ट का शिकार बन गए। ऐसे ही कई बेकसूर लोग पिछले कई सालों से आये दिन नक्सलियों का शिकार बनते आ रहे हैं।

"राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं तो हो सकता है इनकी गतिविधियां बढ़े। जब हम जंगलों में पेट्रोलिंग के लिए जाते हैं तो वो कभी हमारे सामने नहीं आते। उनको पता है के वो हमारा सामना नहीं कर पाएंगे क्योंकि हम पूरी फोर्स लेकर जाते हैं। लेकिन दुःख इस बात का है कि बहुत से बेकसूर आदिवासी इसमें मारे जाते हैं, खासकर वो जो अन्दर जंगलों में रहते हैं। " डोरनापाल पुलिस थाने के सब इन्स्पेक्टर प्रह्लाद साहू ने बताया।

हालांकि छत्तीसगढ़ के सड़कों पर घूम के जंगलों में होने वाली दहशत का अंदाज़ा नहीं होता, लेकिन अन्दर के गांवों के रहने वाले लोगों की सारी ज़िन्दगी नक्सालियों से डर के निकल जाती है।

छत्तीसगढ़ के इस गांव में स्कूल तो हैं पर शिक्षक नहीं, बच्चों ने छोड़ी पढ़ाई

हनपरसयु गांव का नजारा। यहां पहुंचने के लिए पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।

शेख आज़म एक शिक्षक हैं और एर्राबोर गांव में रहते हैं। वो जंगल के भीतर स्थित गेंदरा गांव के एक स्कूल में पढ़ाते हैं। कभी-कभी आते समय देर हो जाती है तो काफी डर लगता है। कई साल पहले जब उस इलाके में नक्सल बहुत सक्रिय थे तब आज़म के साथ एक हादसा हुआ था, जिसकी वजह से वो अब तक डरे हुए हैं।

आजम ने बताया, "हमारा गांव तो सड़क से सटा हुआ है तब भी यहाँ नेता आने में हिचकिचाते हैं। बहुत जरूरी है की वो अन्दर के गांवों में जाएं और वहां की हालत देखें जो काफी ख़राब है।"

डोरनापाल में करीब 17000 लोग रहते हैं और यहां के करीब पचास प्रतिशत परिवार नक्सल पीड़ित हैं। ये ऐसे परिवार हैं जिन्होंने नक्सलियों के डर से गांव छोड़ा है और कई उनके द्वारा भगा दिए गए हैं। "कई बार आदिवासी खुद भाग के आते हैं। ये गरीब लोग हैं जो मुश्किल से अपना गुज़ारा करते हैं।

ऐसे में जब उन्हें नक्सालियों को भी खाना खिलाना या उन्हें शरण देनी पड़ती है तो उनके लिए मुसीबत हो जाती है। कई बार नक्सली ही पुलिस का मुखबिर कह कर उन्हें भगा देते हैं। आदिवासियों को रातों रात अपना गाँव छोड़कर आना पड़ता है। " यह माडवी जोड़ा ने बताया जो डोरनापाल में नवीन बालक आश्रम चलाते हैं। वर्ष 2006 में ये सलवा जुडूम के इस इलाके के मुख्य थे जिसके चलते आज भी उन्हें नक्सालियो से धमकियां आती हैं।

गांधी की राह पर चलकर हिंसा से बाहर निकलने का रास्ता खोजने निकलेंगे आदिवासी

धरमपुर गांव को जोड़ने वाली सड़क।

कोंटा के कन्कर्लंका गांव में रहने वाली मान्यी सोले एक नक्सल-पीड़ित परिवार से आती हैं। वर्ष 2000 में नक्सालियों ने इनके ससुर को जो गांव के सरपंच थे, उनको सारे परिवार के सामने मार दिया था और बाकि सदस्यों को खूब मारा था। वहां उनकी खेती होने की बावजूद वो गांव छोड़ के भागे और इतने साल बाद भी उन्हें वापस न आने की धमकी मिलती है।

"वो लोग क्यों लड़ते हैं और चाहते क्या हैं हम सबकी समझ से बाहर है। लेकिन ये जो भी लड़ाई है इसमें बेचारा गरीब और कमज़ोर आदिवासी ही मारा जाता है।" उन्होंने आगे बताया।

शिवलाल शुंडी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने आदिवासियों के साथ बहुत काम किया है और इसी वजह से वो कुछ नक्सलियों से भी मिल चुके हैं। "जब हमने उनसे बात करके उनकी लड़ाई के बारे में जानना चाहा तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। जो उनमें शामिल होते हैं वो ज्यादातर आदिवासी ही होते हैं जो अन्दर के गांवों में बसे हुए हैँ, जो खुद भी उनकी लड़ाई को गहराई से समझ नहीं सकते। " शिवलाल ने बताया।

बस्तर का पर्व नवा खानी : धान की नई फसल पकने पर ग्रामीण मनाते हैं जश्न

डोरनापाल के नवीन बालक आश्रम में पढ़ने वाले बच्चे।

"बेरोज़गारी एक मुख्य कारण है की यह लड़ाई अभी भी ज़ारी है। अगर विकास होगा, सब लोग पढ़-लिख लेंगे और नौकरियां होंगी तो आदिवासी खुद ही समझ लेगा के उसके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। " डोरनापाल के सरपंच जोगी आस ने बताया।"

बातचीत से ही यह मसला हल हो सकता है, बन्दूक से नहीं। आने वाले चुनावों में मेरे ख्याल से सभी आदिवासियों का सरकार से यही अनुरोध होगा की नक्सालियों से बात करे। सड़क के किनारे तो विकास पहुंच गया है, लेकिन अन्दर जंगलों में रहने वाले आदिवासी भी बेखौफ जीने का पूरा हक़ रखते हैं।" नवीन बालक आश्रम के माडवी जोड़ा ने कहा।

(स्वाति सुभेदार अहमदाबाद से हैं, कई बड़े मीडिया संस्थानों के साथ जुड़ी रही हैं, फिलहाल स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

पत्थलगड़ी: विरोध का नया तरीका या परंपरा का हिस्सा, आखिर क्या है पत्थलगड़ी?


     

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.