सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ बना क़ानून क्या है, क्यों पड़ी इसकी ज़रूरत

Anusha MishraAnusha Mishra   20 July 2017 4:24 PM GMT

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सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ बना क़ानून क्या है, क्यों पड़ी इसकी ज़रूरतमहाराष्ट्र में सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ लागू हुआ कानून

लखनऊ। आप में से कई लोगों ने बचपन में एक कहानी पढ़ी होगी ‘पंचलाइट’। फणीश्वर नाथ रेणु की यह कहानी हमें बचपन में ही ये बता देती है कि सामाजिक बहिष्कार के असली मायने क्या हैं और यह किस तरह से देश के कई हिस्सों में एक व्यवस्था की तरह लागू है। इस कहानी में गाँव के एक युवक गोधन को दूसरी जाति की लड़की मुनरी से प्यार हो जाता है जिससे नाराज़ होकर पंचायत उसका बहिष्कार कर देती है। उसका हुक्का पानी बंद कर दिया जाता है लेकिन एक दिन गाँव के लोग एक मेले से सामाजिक उपयोग के लिए पेट्रोमैक्स ख़रीद कर लाते हैं जिसे भोजपुरी भाषा में पंचलाइट भी कहा जाता है।

पूरा गाँव इस पंचलाइट को जलाने की कोशिश करता है लेकिन उनमें से किसी को नहीं पता कि आख़िर पंचलाइट जलाते कैसे हैं। स्थिति यह हो जाती है कि दूसरे गाँव के लोग इस गाँव के लोगों का मज़ाक उड़ाने लगने हैं, पूरा गाँव परेशान हो जाता है कि अब करें तो क्या करें, गाँव की इज़्ज़त का सवाल है। तब मुनरी अपनी सहेलियों के ज़रिए गाँव के पंचों तक ये बात पहुंचाती है कि गोधन को पंचलाइट जलाना आता है। तब जाकर पंच गोधन को पंचलाइट जलाने के लिए बुलाते हैं और उसे माफ कर उसका हुक्का पानी बहाल कर देते हैं।

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आप लोग सोच रहे होंगे कि आख़िर मैं ये कहानी आप सबको क्यों बता रही हूं। तो बता दूं कि सामाजिक बहिष्कार पर ये कहानी भले ही 1950 से 60 के दशक में लिखी गई हो लेकिन हमारे देश के कई हिस्सों में आज भी ये एक व्यवस्था की तरह लागू है पर ऐसे में एक ख़बर ये है कि महाराष्ट्र में पिछले हफ्ते सामाजिक बहिष्कार (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम लागू कर दिया गया है। यानि अब यहां जाति, समुदाय, धर्म, अनुष्ठान या रीति-रिवाजों के नाम पर किसी भी व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार करना क़ानूनन ज़ुर्म होगा।

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क्या कहता है नया नियम

अगर कोई भी व्यक्ति या समूह किसी अन्य व्यक्ति या समूह को किसी भी सामाजिक या धार्मिक, सांस्कृतिक, सामुदायिक समारोह, मंडली, बैठक या जुलूस में भाग लेने से रोकने की कोशिश करता है या रोकता है तो उसे सामाजिक बहिष्कार (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2016 के तहत सज़ा दी जाएगी। किसी भी धर्म को मानना, रीति-रिवाजों को निभाना हर व्यक्ति की अपनी पसंद है, नए कानून के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी को इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकता कि वह किस धर्म का अनुसरण करे या किस तरह के रीति रिवाजों को निभाए।

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यहां तक कि इस क़ानून में किसी के जाति के बाहर शादी करने, पूजा स्थलों पर जाने, अपनी पसंद के कपड़े पहनने और किसी भी विशिष्ट भाषा का उपयोग करने की स्वतंत्रता भी शामिल है। यहां तक कि नैतिकता, राजनीतिक विचारधारा और लिंग के आधार पर भेदभाव करना भी इस क़ानून के हिसाब से सामाजिक बहिष्कार में आता है। यही नहीं, बच्चों को किसी स्थान पर खेलने से रोकना, श्मशान या कब्रिस्तान का प्रयोग करने से रोकना, सामुदायिक हॉल या शैक्षिक संस्थानों में भेदभाव भी अब यहां ग़ैर क़ानूनी होगा।

कैसे काम करेगा क़ानून

इस कानून के तहत अगर किसी ज़िला अधिकारी को सामाजिक बहिष्कार से जुड़े किसी काम की जानकारी मिलती है तो वह उसे आदेश देकर तुरंत रोक सकता है। क़ानून तोड़ने वाले को तीन साल की सज़ा या एक लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है, या फिर दोनों भी। क़ानून सिर्फ एक व्यक्ति ने तोड़ा हो या किसी समूह ने सज़ा एक बराबर ही दी जाएगी। सामाजिक बहिष्कार का अपराध जमानती है। जल्दी न्याय मिल सके इसके लिए यह निर्धारित किया गया है कि चार्जशीट दाखिल करने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर परीक्षण पूरा करना होगा।

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महाराष्ट्र में क्यों पड़ी इस क़ानून की ज़रूरत

यह निर्णय जाति पंचायत या स्वयंभुओं द्वारा लोगों पर अत्याचारों की बढ़ती घटनाओं के कारण लिया गया। पिछले कुछ समय में महाराष्ट्र के रायगढ़, रत्नागिरि और नासिक जिलों से इस तरह की घटनाओं की सबसे ज़्यादा सूचनाएं मिली थीं और सामाजिक बहिष्कार के ज़्यादातर मामलों में वजह अंतरजातीय विवाह था। 2013 - 14 में रायगढ़ में इस तरह के 38 मामले सामने आए। इससे पहले जो क़ानून थे उनमें कुछ इस तरह की कमियां थीं कि अपराधी बच निकलते थे। लेकिन अगर सामाजिक बहिष्कार के आरोप को साबित करने के ठोस सबूत हैं, तो नया अधिनियम भारतीय दंड संहिता की धारा 34, 120-ए, 120-बी, 14 9, 153-ए, 383 से 389 और 511 के तहत दोषी को सजा दी जाएगी।

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