राष्ट्रपति चुनाव पर विशेष : ऐसा भारत केवल सपना था

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राष्ट्रपति चुनाव पर विशेष : ऐसा भारत केवल सपना थासूखाग्रस्त उत्तर गुजरात के एक अतिपिछड़े राजनेता ने इन सबको कर दिखाया।

अन्ततः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता के त्रिभुज पर वंचितों को विराजमान कर ही डाला। खुद वड़नगर में चाय की रेहडी से बसर करते थे। कानपुर देहात के खेतिहर मजदूर मैकूलाल के बेटे को राष्ट्रपति भवन अब वे आवंटित कर रहें हैं। और अब भूखा बचपन गुजार चुके मुप्पवरपु वैंकय्या नायडू को तीसरा अहम संवैधानिक पद दे रहें हैं। ऐसा ही सपना था गांधी जी का। लोहिया की यही हसरत थी। भीम राव अंबेडकर से मायावती तक सभी इसे ही चाहते रह गये। सूखाग्रस्त उत्तर गुजरात के एक अतिपिछड़े राजनेता ने इन सबको कर दिखाया।

सागरतटीय नेल्लूर में “वारालू” द्वारा उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। तेलुगू प्रथा है कि संपन्न सात परिवार के लोग, विशेषकर विप्रजन, किसी निर्धन छात्र को सप्ताह में एक दिन का भोजन बारी बारी से कराते हैं। वैंकय्या नायडू इसी प्रथा के लाभार्थी थे। ब्राह्मण-बनियों की इस पार्टी का मानना था कि वर्चस्व बाहों के बूते नहीं, बल्कि हथेली की लकीरो के सहारे मुमकिन होता रहा है। पर वंचित जाति के इन तीनों नेताओं ने इसे झुठला दिया।

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हिन्दी, कन्नड, मातृ भाषा तेलुगु तथा अंग्रेजी में माहिर, अनुप्रास अलंकार के अत्यधिक मुरीद, नायडू को सियासी शोहरत मिली आपातकाल के दौरान (1975-77)। यादगार घटना पूछने पर, उन्होंने बताया एक दिन इन्दिरा गांधी के वली अहद, भारत के बिना निर्वाचित हुये शासक संजय गांधी विशाखापत्तनम की जनसभा में बोलने वाले थे। छात्र संघर्ष समिति के लोगों ने तय किया कि संजय की सभा में व्यवधान डालना है। तब भारत में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन चल रहा था। नायडु उसी के पुरोधाओं में थे। इन बागी युवाओं ने साजिश गढ़ी। पानी के विषहीन सांपों को प्लास्टिक की पन्नी में डालकर वे सब जनसभा में ले आये। संजय बोलने उठे कि “सांप, सांप” चीखती हुई भीड़ में भगदड़ मच गई। संजय जो अमूमन सात आठ मिनट ही बोलते थे, बिना कुछ बोले उखड़ गये।

इतिहास का मोड़ देखिये। भाजपा की महत्वपूर्ण बैठक पणजी (गोवा) में हुई (2002) । तब अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को राजधर्म सिखाना चाहा था। तय था कि दंगों को न रोक पाने के कारण मोदी त्यागपत्र देंगें अर्थात उनके राजनीतिक जीवन पर पटाक्षेप। तब भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी का साथ दिया। भाजपा अध्यक्ष वैंकय्या नायडू भी मोदी के पक्षधर थे। अटलजी की चली नही। मोदी आजतक नायडू की उस मदद को भूले नहीं।

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दो बार अध्यक्ष रहकर भाजपा की प्रगति में नायडू की कुछ प्रेरणा रही हो, मगर उन्होंने इन शाकाहारी भाजपाइयों के रस व्यंजन के स्वाद तो पलट दिये। मसालेदार, जायकेदार मांस और मछली के पकवान अब भाजपाई सम्मेलनों में परोसे जाते हैं। हालांकि अटलजी तो शुरू से ही मांस मदिरा के सेवन से परहेज नहीं रखते थे। खुद वैंकय्या बताते हैं कि अटल जी का अपने जिले में भाषण सुनकर वे जनसंघ के प्रति खीचें थे। हालांकि अपने गांव चवतपालेम में कबड्डी खेलने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में वे शामिल होते रहे।

भाजपा से इस लम्बे रिश्ते-नाते को तोड़ने पर व्यथित होकर, वे रूंधे स्वर में बोले, “मां से बिछुड़ने जैसा लग रहा है। पार्टी ही मेरा मां है”। नायडु की माता का निधन का उनके डेढ़ वर्ष की आयु पर ही हो गया था। मामाओं ने पालन पोषण किया। मां रमणम्मा अपने ग्राम देवता वेंकन्ना स्वामी की आराधक थी। और कहा करती थीं कि उनका बेटा बड़ा आदमी बनेगा। इसीलिए ग्राम देवता के नाम पर ही उनका वैंकय्या नामकरण हुआ। सम्पन्न होते ही नायडू ने अपने पुश्तैनी मकान को पुस्तकालय बना दिया। गांव को दान दे दिया।

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भैरोसिंह शेखावत के बाद नायुडू दूसरे भाजपायी उपराष्ट्रपति होंगे। वे तेलुगुभाषी तीसरे व्यक्ति है जो राज्यसभा की अध्यक्षता करेंगे, डा. सर्वेपल्ली राधाकृष्णनन और वी.वी. गिरी के बाद। मोदी के अनुसार वैंकय्या भारत के सभी जनपदों की यात्रा कर चुके हैं। अपने वरिष्ठतम मंत्री को काबीना से दूर कर मोदी को कैसी प्रशासकीय हानि होगी, इसका आंकलन करना होगा। पर उनके सामने तत्काल दबाव पडेगा कि अपनी काबीना का पुनर्गठन करें। अभी अंशकालीन रक्षा मंत्री अरूण जेटली चीन के खतरे के बावजूद कुछ कर नही पा रहे हैं। अतः रिक्त मंत्री पद पर फैसला टाला नहीं जा सकता। नायडू के त्यागपत्र के बाद शीघ्रता से फैसला तो करना ही पड़ेगा।


मगर अधिक अपेक्षा नायडू से भाजपा को होगी कि वे राज्यसभा को संभालें। भाजपा के विरोधी इस ऊपरी सदन में वजनदार है। सीताराम येचुरी, गुलाम नबी आजाद, रामगोपाल यादव, सतीष मिश्र आदि। उनके शब्दशक्ति का सामना भाजपाई कर नहीं पा रहे हैं। अतः राज्यसभा के अपने लम्बे दौर के अनुभव के आधार पर नायडू इस सदन में मोदी सरकार का दामन बचायेंगे। इतनी महती जिम्मेदारी के कारण ही शायद अपनी उत्कट अनिच्छा के बावजूद, वैंकय्या नायडू ने उषापति के साथ उपराष्ट्रपति बनना भी स्वीकारा। वे बोले भी कि वे सभापति (राज्य सभा) बनेंगे, मगर “सबके पति” कदापि नही होंगे। दूसरी अपेक्षा भी है। विंध्याचल के दक्षिण में सारी भूमि भाजपा के लिए बंजर है। नायडू किसान है। उन्हें जोतना पड़ेगा ताकि भाजपा वहां पर जमें। नायडू को निजी हानि भी हुई है। मीडिया से लगातार संवाद तथा व्यापक यात्रायें उनकी फितरतें हैं। वे दोनों छूटेगीं।

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नायडू आपातकाल में भूमिगत थे, फिर पकड़े गये। वे इन्दिरा-गांधी विरोधी पोस्टरों से प्रदेश को पाट देते थे। यह पोस्टर हम लोगों ने चैन्नई में तत्कालीन डीएमके के मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि की मदद से छपवाये थी। इसमें सवाल उठाया गया था कि “आप किसके साथ हैं? लकुटी लिए महात्मा गांधी के या जेल-पुलिस वाली इन्दिरा गांधी के? “ लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती (11 अक्टूबर 2015) पर दिल्ली के विज्ञान भवन में नायडू ने कुछ लोकतंत्र प्रहरियों का सम्मान-समारोह आयोजित किया था। मंच पर उन आठ लोगों में (तीन राज्यपाल भी) मैं (के विक्रम राव) भी एक था। नायडू ने नजरबंदी के दौरान मेरी यातनाओं की चर्चा भी की।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तभी करोड़ों (टी.वी.-रेडियो) श्रोताओं को बताया भी किस प्रकार एक 24-वर्षीय स्वयं सेवक होकर वे बड़ौदा जेल के तन्हा कैद में मेरे लिए दैनिक समाचारपत्रों का बण्डल दे जाते थे। उस वक्त बड़ौदा डाइनामाइट केस का मुख्य अभियुक्त, मैं सजाये मौत की प्रतीक्षा कर रहा था।

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अब कुछ नायडू के प्रतिद्वंदी गोपालकृष्ण गांधी के बारे में भी। बापू ने हमेशा मना किया था अपने वंशजों को कि वे चुनावी राजनीति से दूर रहें। स्वयं गांधीजी कभी भी सत्ता के पद पर नहीं रहे। गांधीपुत्र सम्पादक देवदास गांधी के दोनों बेटे चुनावी राजनीति में रहे। राजमोहन गांधी को अमेठी से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता दल की ओर से प्रत्याशी (1989) बनाया था। राजीव गांधी कांग्रेस के उम्मीदवार थे। सिंह का दावा था कि असली गांधी बनाम नकली गांधी की यह टक्कर है। अपने लिखने, पढ़ने के व्यवसाय को छोड़कर राजमोहन गांधी अमेठी में धूल फांक कर चले गये।

अब गोपालकृष्ण गांधी का हश्र तो तय ही है। मगर गांधी-भक्तों की व्यथा को भी देखें। इतने दशकों से बापू के नाम को राजनेता भुनाते रहे। अब तो भाजपाइयों ने भी गांधीजी को प्रातः-पूजनीयों की सूची में रख लिया है। मगर बापू के नाम पर चुनावी राजनीति कर उनके पोते ने दादा की विरासत से तिजारत करना चाहा है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

       

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