गांव में खेत है, किसान बन सकते हैं, लेकिन 1,500 किलोमीटर दूर खेत में मजदूरी क्यों कर रहे बिहार से आये लोग?

हरियाणा में धान की बुवाई और गन्ने की कटाई करने वाले बिहार से आये मजदूरों के पास भी उनके गांवों में खेतिहर जमीन है। वे मजदूर की जगह किसान भी हो सकते हैं, फिर भी वे सैकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे के खेतों में मजदूरी क्यों कर रहे हैं? गांव कनेक्शन की करनाल, हरियाणा से ग्राउंड रिपोर्ट।

Anil ShardaAnil Sharda   26 Feb 2021 1:45 PM GMT

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gaon connection, farm labourer, farm labourer from bihar, farm labourer in punjab, migrant labourer from biharहरियाणा के करनाल जिले में गन्ने की खेत में काम करते बिहार से आये खतिहर मजदूर। (सभी फोटो- अनिल शारदा, गांव कनेक्शन)

करनाल (हरियाणा)। बिहार के जिला अररिया के पखंड शोरगांव पंचायत के रहने वाले 44 साल के रमेश शर्मा करनाल के गगसिना गांव में गन्ने की कटाई और छिलाई का काम कर रहे हैं। उनके साथ आठ मजदूर और हैं वे भी अररिया से आये हैं।

रमेश कहते हैं, "जून (2020) महीने में यहां आ गया था। तब यहां धान की बुवाई चल रही थी। हमें यहां हर साल सीजन के हिसाब से मजदूरी के लिए बुलाया जाता है और सीजन खत्म होते ही हम बिहार लौट जाते हैं।"

रमेश यहां धान की बुवाई के समय आते हैं और फिर उसकी कटाई के बाद गन्ने की कटाई में लग जाते हैं। एक क्विंटल गन्ना काटने पर मजदूरी के तौर पर 45 रुपए मिलते हैं। लगभग 10 से 12 क्विंटल गन्ना रोजाना काटने पर लगभग 600 सौ रुपए की कमाई हो जाती है।

गाँव में करीब सवा बीघा (लगभग एक एकड़) खेत है जो बाढ़ प्रभावित इलाके में होने के करण उसमें खेती नहीं हो पाती। परिवार के सात सदस्यों की जिम्मेवारी उठा रहे रमेश बताते हैं, "बिहार में कोई रोजगार नहीं है इसीलिए परिवार का पेट पालने के लिए खेतों में मजदूरी करनी पड़ रही है।"

रमेश वह पहली बार मजदूरी करने आए थे तब उनकी उम्र मात्र 10 साल थी। तब से वे कभी पंजाब तो कभी हरियाणा के खेतों में मजदूरी कर रहे हैं।

कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए मार्च 2020 में जब देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई तब बड़े शहरों से हजारों की संख्या में मजदूर अपने गांव लौटने लगे। यातायात की सुविधा बंद होने के कारण सड़कों पर पैदल चलने वाले मजदूरों की बाढ़ सी आ गई। सैकड़ों मजदूरों ने पैदल यात्रा करते-करते दम तोड़ दिया। ये बात और है कि सरकार के पास इसके आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं, लेकिन कई संस्थाओं ने इस पर रिपोर्ट की है।

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पैदल सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करने वाले मजदूरों में सबसे ज्यादा लोग बिहार के थे। शहरों में जब उनका काम बंद हो गया। खाने का अनाज खत्म हो गया तो उनके पास गांव लौटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा। और यही मजदूर फिर दो महीने बाद शहर लौटने लगे, जबकि तब भी देश में रोजाना कोरोना के हजारों मामले सामने आ रहे थे। इनमें से बहुत मजदूर ऐसे भी है जिनके पास खेतिहर जमीन है, फिर वे खेती न करके दूसरे खेत में मजदूरी क्यों कर रहे हैं?

करनाल के खेत में बिहार से मजदूरी करने आये बिहार के रमेश शर्मा।

22 साल के प्रद्युमन भी करनाल के एक खेत में गन्ना काट रहे हैं। गन्ना काट रहे हैं। वे आठवीं पास हैं और अपने पिता रमेश के साथ पिछली जून में ही यहां आ गये थे। प्रद्युमन बताते हैं, "हमारे लिए यहीं खेतों में घर बना हुआ है, जिसमें ट्यूबवेल लगा है। 15 बाय 10 के कमरे में आठ लोग रहते हैं। खाना बनाने के लिए किसान लकड़ियाँ दे देते हैं। ईंट और मिट्टी के बने चूल्हे पर दो टाइम का खाना बन जाता है।"

बिहार में नौकरी क्यों नहीं की, इस पर प्रद्युमन गन्ना काटते हुए जवाब देते हैं, "रोज़गार ना होने की वजह से 1,500 किलोमीटर दूर अपने परिवार को छोड़ कर आना पड़ता है। कई-कई महीनों तक घर परिवार से भेंट नहीं होती है। अगर वहीं कोई नौकरी होती तो भला क्यों कोई यहाँ काम करने आता।" वह आगे बताते हैं, " सरकार से कोई शिकायत नहीं है। सरकार अपना काम कर रही है और हम अपना। हमें मालूम है कि चाहे कोई भी सरकार आ जाए लेकिन हमारी दशा जो है वही रहेगी। कोई नेता हमारा या हमारे परिवार की स्थिति को ठीक नहीं कर सकता। हमारी याद सिर्फ वोट के समय आती है।"

सरकार सब जानती है

मज़दूरों के पलायन को लेकर कोसी नव निर्माण मंच जो कोसी नदी के बाढ़ प्रभाव क्षेत्र में काम करती है, के अध्यक्ष और जल आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़े महेंद्र यादव गांव कनेक्शन को बताते हैं, "लॉकडाउन के दौरान बिहार वापस लौटे प्रवासी मजदूरों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कई बार संवाद किया था और उनसे दोबारा रोजगार ढूंढने के लिए अन्य राज्यों में नहीं जाने की अपील भी की"

लेकिन वापस लौटे मजदूर अपने राज्यों में रोजगार की कमी को देखते हुए जून में ही वापस पंजाब, हरियाणा, मुंबई और गुजरात के जाने लगे थे, तब जब लॉकडाउन को लेकर कड़े नियम लागू थे। महेंद्र कहते हैं कि बिहार में रोज़गार के लिए सरकार को सबसे पहले एग्रो बेस इकॉनमी पर काम करने और उसे मजबूत करने की जरूरत है। "किसानों के उपज़ के आधार पर जो उद्योग धंधे सरकार स्थापित कर सकती है। उसमें भी सरकार की बहुत रुचि देखने को नहीं मिलती है।"

हमने इस विषय पर पूर्णिया जिले के पत्रकार और लेखक पुष्यमित्र से भी की जो बिहार को लेकर कई किताबें लिख चुके हैं। वे सीमांचल और कोसी क्षेत्रों के खेतिहर मजदूरों की बात करते हुए गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, इनकी पहली समस्या लैंडलेस होना है और दूसरी प्रमुख समस्या बाढ़ की है जिसकी वजह से इन्हें पलायन कर दूसरे शहरों और राज्यों में मजदूरी को जाना पड़ता है।"

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पुष्य मित्र आगे कहते हैं कि बिहार से लगभग हर दूसरे परिवार का कोई न कोई व्यक्ति पलायन करने के लिए मजबूर है। पलायन करने वालों में 90 फीसदी बाहर जाकर अकुशल मजदूर का काम करते हैं। इनमें से 85 फीसदी लोग दसवीं पास भी नहीं होते। इनकी औसत आमदनी दो-ढाई हजार रुपएये प्रति माह भी नहीं होती। पलायन करने वालों में ज्यादातर खेतीहर मजदूर और कंस्ट्रक्शन लेबर ही होते हैं। यह बात बिहार सरकार के सर्वेक्षण में भी सामने आयी है।

फसली सीजन में हर साल बिहार से सैकड़ों खेतिहर मजदूर हरियाणा और पंजाब मजदूरी करने आते हैं।

"सरकार चाहे तो लैंड रिफ़ोर्म कर के लैंडलेस किसानों के लिए भी जमीन की व्यवस्था कर सकती है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां भूमि सीमित है और भूमि का अभाव है तथा जहाँ अधिकतर ग्रामीण जनता गरीबी रेखा से नीचे रहती है, वहाँ आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से भूमि सुधार अनिवार्य हो जाता है। लेकिन विडंबना यह है की बिहार सरकार इसके लिए कदम नहीं उठा रही।" वे कहते हैं।

खेत होने के बाद भी मजदूरी करने बाहर क्यों जा रहे किसान

कोसी नव निर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव इसके मुख्य दो कारण गिनाते है। एक- बिहार में बाढ़ की समस्या और दूसरा यहाँ मंडी व्यवस्था का खत्म होना और किसानों की फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर ना ख़रीदा जाना।

न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी वह मूल्य है जिस पर सरकार किसानों से उनकी फसल खरीदती है। ये व्यवस्था किसानों को खुले बाज़ार में फ़सलों की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए लागू की गई है। इसे सरल भाषा में ऐसे समझिए कि अगर बाजार में फसलों की कीमत गिर भी जाए तब भी सरकार तय एमएसपी पर ही किसानों से उनकी फसल खरीदती है।

सरकार में आने के बाद साल 2006 से नीतीश सरकार ने एपीएमसी (कृषि उपज मंडी समिति) में APMC मंडियों को खत्म कर दिया था। इस फ़ैसले के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का तर्क था कि इससे किसानों न को बिचौलियों से छुटकारा मिलेगा और उनकी स्थिति में बदलाव होगा, लेकिन जमीन पर किसानों की प्रतिक्रिया तो कुछ और ही कहती है। उत्साहजनक नहीं दिखती है। किसानों का दावा है कि ये सुधार उनके लिए बहुत फायदेमंद नहीं रहा है क्योंकि किसानों को अपनी उपज निजी कंपनियों को औने-पौने कीमतों पर बेचनी पड़ती है।

22 साल के प्रद्युमन भी करनाल के खेतों के मजदूरी करते हैं।

महेंद्र यादव बताते हैं की, "बिहार मक्का का उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्यों में से एक है।. सब्जी ब्जी और जियों के उत्पादन में बिहार का चौथा और फलों के उत्पादन में भी बिहार की स्थिति अच्छी है। आठवां स्थान है. बिहार भले बाढ़ प्रभावित राज्यों में आता है , "लेकिन कृषि क्षेत्र में हर तरह की फसलों की उपज़ को लेकर भी बिहार का नाम आता है। यहां बिहार में करीब 70 से 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है,। लेकिन बिहार में मंडियों की व्यवस्था खत्मख़त्म होने के बाद से यहाँ के किसानों की समयाओं के निदान को लेकर सरकारों ने कोई जरूरीज़रूरी पहल नहीं की।"

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बिहार की गिनती भारत के सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में होती है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत हिस्सा बिहार में है, जिस पर देश की कुल बाढ़ प्रभावित जनसंख्या की 22.1 प्रतिशत आबादी है। इसका मतलब यह होता है कि अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर बाढ़ से त्रस्त ज्यादा लोग बिहार में निवास करते हैं।

महेंद्र यादव आगे कहते कहते है, "ऐसा नहीं है की मज़दूरों के पास खेत नहीं है। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन हैं भी तो वह डूब में आ जाता है। ऐसे में इनके पास विकल्प में एक ही रास्ता बचता है है-पलायन।

रमेश कहते हैं उन्हें तो उपज की सही कीमत ही नहीं मिलती। वे बताते हैं, ""हमारा घर और जमीन बाढ़ प्रभावित इलाके में है। खेती का ज्यादातर हिस्सा बाढ़ से खराब हो जाता है। जो थोड़ा बहुत बचता है उसे बिचौलियों को बेचना पड़ता है जिससे घाटा ही होता है। सरकारी खरीद केंद्रों पर ठीक से खरीद भी नहीं होती। लागत निकल जाये यही बड़ी बात है। सही वजह है कि हम शहरों में काम के लिए आ जाते हैं।"

  

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