पश्चिम बंगाल: दो बार धोखा खा चुके बर्धमान के किसान अपनी जमीन वापस चाहते हैं
पंद्रह साल पहले पूर्व बर्धमान में 1,500 से अधिक किसानों ने 225 हेक्टेयर कृषि भूमि को एक थर्मल पवार प्रोजेक्ट के लिए छोड़ दिया था। पावर प्लांट अभी शुरू नहीं हो पाया है। किसान अपनी जमीन और मुआवजे का पैसा, दोनों गंवा चुके हैं, वे अब अपनी जमीन वापस चाहते हैं।
Gurvinder Singh 30 March 2021 5:30 AM GMT
कटवा (पश्चिम बंगाल)। पंद्रह साल पहले सुभाष चंद्र घोष एक व्यस्त किसान थे जो देबकुंडा गांव में अपने खेत में धान और सब्जियों की खेती करते थे। आज वे 50 साल के हो चुके हैं और ग्रामीणों से बात करने के लिए, टाइम पास करने के लिए गाँव में घूमते हैं, या गाँव के मंदिर में बेकार बैठे रहते हैं। उनका जीवन अपनी असली पहचान खो चुका है।
यह दर्दनाक बदलाव एक थर्मल पावर प्रोजेक्ट की वजह से आया है जो अभी तक अस्तित्व में भी नहीं है। इसके लिए सुभाष जैसे 1,500 से अधिक किसानों ने राज्य की राजधानी कोलकाता से 150 किलोमीटर दूर पुरबा बर्धमान जिले में अपनी कृषि भूमि छोड़ दी।
इसके अलावा जमीन के बदले मिला मुवावजा भी अधिकांश ग्रामीण गंवा चुके हैं। ग्रामीणों ने चिट फंड कंपनियों में मुआवजे का पैसे का निवेश किया था जिसने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा।
अब जब पश्चिम बंगाल में 294 विधानसभा क्षेत्रों के लिए आठ चरण के चुनाव शुरू हो चुके हैं, ये 1,500 किसान जिन्होंने अपनी जमीनें दीं और चिट फंड कंपनियों से धोखा भी खाया, वे विकास के खोखले दावों से निराश हैं। वे कहते हैं कि 22 अप्रैल को होने वाले चुनाव में वे राजनेताओं को उचित जवाब देंगे।
''हमने अपनी जमीन इस उम्मीद में दी थी कि थर्मल पावर स्टेशन से यहां बड़ी संख्या में रोजगार पैदा होंगे। हम खुश थे। सरकार ने भी वादा किया था जिन किसानों की जमीन ली जाएगी उनके घर के कम से कम सदस्य को नौकरी मिलेगी। हमने सोचा कि हमारे क्षेत्र में अच्छा विकास होगा।" सुभाष कहते हैं।
कटवा प्रोजेक्ट
प्रस्तावित 8,000 करोड़ रुपए की 1,320 मेगावाट (मेगा वाट) कटवा थर्मल पावर परियोजना की परिकल्पना वामपंथी सरकार ने की थी और इसका संचालन पश्चिम बंगाल पावर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा राज्य की बिजली आपूर्ति के लिए की जानी चाहिए थी।
वर्ष 2006 में पुरबा बर्धमान जिले के छह गाँवों - देबकुंडा, गांगुली दंगा, कौशिक ग्राम, चुरपुनी, राजुआ और श्रीखंड के 1,500 से अधिक किसानों ने प्रस्तावित बिजली परियोजना के लिए 556 एकड़ (225 हेक्टेयर) कृषि भूमि का त्याग किया। कुल भूमि की आवश्यकता 1,030 एकड़ (417 हेक्टेयर) थी।
दो बीघा (0.32 हेक्टेयर) भूमि के मालिक सुभाष को लगभग 3.20 लाख रुपए प्रति बीघा (0.16 हेक्टेयर) का मुआवजा मिला।
दो साल बाद 2008 में कुछ जमीन मालिकों और नेताओं ने कड़ा विरोध किया और भूमि अधिग्रहण का आरोप लगाया जिसके बाद प्रोजेक्ट नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (NTPC) को दिया गया था।
टाटा की नैनो कार परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहित करने के लिए सिंगूर में इसी तरह के विरोध का सामना करने के बाद वामपंथी सरकार पहले से ही बैकफुट पर थी और वह उसे दोहराना नहीं चाहती थी।
परियोजना ने कुछ प्रगति की और 2010 में NTPC ने कटवा परियोजना से बिजली बेचने के लिए पश्चिम बंगाल सहित कुछ राज्यों के साथ बिजली खरीद समझौतों पर हस्ताक्षर किए। एक साल बाद अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने वाम दलों को सत्ता से बेदखल कर 2011 में सरकार बनाई।
भूमि अधिग्रहण के डर से परियोजना फरवरी 2014 तक रुकी रही। जब पश्चिम बंगाल सरकार ने प्रस्तावित संयंत्र के लिए और 96 एकड़ (38.8 हेक्टेयर) जमीन आवंटित किया और स्थानीय लोगों ने कुल जमीन में और 150 एकड़ (60.7 हेक्टेयर) जोड़ने पर सहमति व्यक्त की।
छह साल से अधिक समय के बाद कोई प्रगति नहीं हुई है और थर्मल पावर प्लांट को अभी भी अस्तित्व में आना बाकि है।
"वाम शासन के दौरान इसकी कल्पना की गई थी। TMC ने परियोजना को क्रियान्वित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उन्होंने छोटी पार्टी की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया और नौकरियों और आजीविका के मामले को नजरअंदाज कर दिया," स्थानीय वाम नेता और देबकुंडु गाँव के पूर्व ग्राम प्रधान रणजीत घोष ने गाँव कनेक्शन को बताया।
किसानों पर दोहरी मार
ग्रामीणों ने गाँव कनेक्शन को बताया असली त्रासदी तो जमीन के बदले मिले मुआवजे के बाद शुरू हुई।
चिट फंड कंपनियों के एजेंट घर आने लगे और उन्हें ज्यादा रिटर्न के लिए अपनी कंपनियों में निवेश करने के लिए प्रेरित करने लगे।
'उन्हें सरकार से मिले मुआवजे के बारे में पता था। शुरू में हमने उन पर भरोसा नहीं किया, लेकिन हमारे गाँव के
कई युवा थे जो हमारे सामने बड़े हुए थे, हमने उन पर विश्वास किया और धोखा खा गए।" पांच लाख रुपए गंवाने वाले 72 वर्षीय किसान पंचानन घोष गाँव कनेक्शन से कहते हैं।
एजेंटों ने ग्रामीणों से वादा किया था एक लाख रुपए निवेश करने पर उन्हें हर महीने लगभग 1,000 रुपए ब्याज के रूप में मिलेगा।
"चिट-फंड कंपनियों में पैसा लगाना हमारी सबसे गलती थी। कंपनी भाग गई और एजेंटों ने यह कहकर पैसा लौटाने से मना कर दिया कि उनके पास पैसे ही नहीं हैं। हमने अपनी जमीन और पैसे, दोनों खो दिये और अब हम भिखारी हैं।" पंचानन कहते हैं। उनके अनुसार जिन 1,500 किसानों को मुआवजा मिला था, उनमें से 90 फीसदी लोगों ने चिट-फंड कंपनी में निवेश किया था और अपने पैसे गंवा दिये।
अब उनकी आय का एकमात्र स्रोत MGNREGA (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत काम है जहां कभी-कभी काम मिल जाता है। देबकुंडा के 66 वर्षीय सुभाष मोंडल कहते हैं, "हमें हमेशा काम नहीं मिलता, और परिवार चलाना लगभग असंभव हो गया है।" सुभाष एक बीघा (0.16 हेक्टेयर) भूमि पर खेती करते थे। किसान अपनी जमीन वापस मांग रहे हैं।
सिंगूर में जहां निर्माण के मलबे ने उपजाऊ जमीन को अनुपयोगी बना दिया था तो वहीं कटवा में जमीन अभी भी उपजाऊ है, क्योंकि बाउंड्री बनने के बाद से ही काम बंद है।
"गार्ड हमें खेत के अंदर नहीं जाने देते। एक खेत जिसमें सालभर में कई फसलों का उत्पादन होता था वह बेकार पड़ी है। यह हमारा और सरकार दोनों का नुकसान है। उन्हें हमारी जमीन वापस करनी चाहिए" 60 वर्षीय बिद्युत मोंडल ने कहा, जिन्होंने अपनी जमीन के दो बीघा (0.32 हेक्टेयर) इस प्रोजेक्ट में दिए हैं।
किसानों के एक वर्ग ने परियोजना की देरी के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच संबंधों में खटास को जिम्मेदार ठहराया। "राज्य और केंद्र लगातार झगड़ते रहते हैं और हम लोग इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। परियोजना पूरे पुरवा बर्धमान क्षेत्र के लिए एक जीवन रेखा हो सकती थी। यह बंगाल में औद्योगीकरण की सच्ची तस्वीर है।" देबकुंडु गाँव के 50 वर्षीय किसान लाडन माझी कहते हैं।
"केंद्र सरकार पहले से ही बेचने की होड़ में है। इसके औद्योगिकीकरण में कोई दिलचस्पी नहीं है और कटवा अपनी गलत नीतियों का एक उदाहरण है।" रवींद्रनाथ चटर्जी ने कहा जो कटवा के टीएमसी विधायक हैं और इस बार भी मैदान में हैं।
इस मामले में कटवा एनटीपीसी कार्यालय से किसी ने कुछ भी बोलने से यह कहते हुए मना कर दिया कि यहां के अधिकारियों का तबादला हो चुका है।
अनुवाद- संतोष कुमार
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