यही है उम्मीद कि अब और मासूम न गुज़रें महिला खतने की तकलीफ़ से
मुस्लिम समाज का एक समुदाय है दाऊद बोहरा। दुनिया भर में बहुत ज्यादा तादाद नहीं है इनकी। इनकी कुल जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा भारत में विशेषकर गुजरात में रहता है। इस समुदाय की एक तकलीफदेह प्रथा है महिला खतना। हाल ही में इस प्रथा को रोकने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 9 जुलाई को सुनवाई की, अगली सुनवाई 16 जुलाई को है।
अनु रॉय 14 July 2018 11:44 AM GMT

"अगर लड़कियों का खतना नहीं किया जाता है तो वे आदमियों के पीछे भागने वाली वेश्याएं बन जाती हैं।" जी बिलकुल ठीक पढ़ा आपने। मुस्लिम समाज का एक समुदाय, बोहरा समुदाय आज भी लड़कियों में खतना हो इसकी वक़ालत इसी तर्क के साथ करता है। यह समुदाय मानता है कि महिलाओं को सेक्स सिर्फ बच्चा पैदा करने या पति को संतुष्ट करने के लिए ही करना चाहिए। इसके इतर अगर किसी भी लड़की या औरत में सेक्स से जुडी कोई भावना आई तो उन्हें पाप का भागीदार बनना होगा। तो लड़कियां पापी न बनें, उन्हें भी जन्नत नसीब हो इसके लिए उनकी योनि की काट-छांट कर अपने हिसाब से क्लाइटॉरिस को सिल दिया जाता है, ताकि भविष्य में वो सिर्फ और सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए ही सेक्स करें ख़ुद को सुख पहुंचाने के लिए नहीं।
सुन कर अजीब लग रहा होगा मगर बोहरा समाज की लड़कियों का खतना सदियों से होता आया है। उनका मानना है कि लड़कियों की योनि में अगर 'क्लाइटॉरिस' को रहने दिया जाये तो इससे उनमें सेक्स की भावना बढ़ेंगी। बोहरा समुदाय 'क्लाइटॉरिस' को 'हराम की बोटी' मानता है, जिसे अगर बचपन में ही काट कर हटा दिया जाए तो फिर महिलाएं सेक्स के लिए नहीं सोचेंगी। ऐसा इसलिए नहीं कि इनके मन में ऐसे ख्याल नहीं आएंगे बल्कि ऐसा इसलिए कि खतने के दौरान होने वाला दर्द उन्हें जिंदगी भर कुछ और सोचने देता नहीं। इसलिए वे पतियों के लिए वफ़ादार रहेंगी और सिर्फ़ बच्चे पैदा कर पाएंगी। इसलिए 2 से ले कर 10 साल तक की बच्चियों का खतना यानि Female Genital Mutilation (FGM) कर दिया जाता है।
इसके तहत किसी भी धारदार चीज़ से क्लाइटॉरिस को पूरी तरह से या कभी आंशिक रूप से काटा जाता है। ऐसा करते वक़्त उन बच्चियों के शरीर को न तो सुन्न किया जाता है न किसी प्रकार की कोई दवा दी जाती है। परिवार के कोई दो सदस्य हाथ-पैर पकड़ कर रखते हैं और फिर या तो कोई स्त्री या पुरुष जो उनके आस-पास इस खतना को करते हैं, वही ब्लेड या चाकू से काट कर हटा देते हैं क्लाइटॉरिस को। इसके बाद पानी में हल्दी घोल कर घाव पर लेप लगा दिया जाता है।
इससे ज़्यादा अमानवीय प्रक्रिया कुछ हो सकता है भला? इसकी वजह से न जानें कितनी ही मौतें हुई हैं। कई लड़कियाँ ताउम्र अवसाद में जीती हैं मगर उससे समाज को क्या? वो अवसाद में होते हुए भी बच्चे तो जन ही सकती हैं, पति को शारीरिक सुख दे ही सकती हैं फिर उनके बारे में सोचे कौन?
विश्व स्वास्थ संगठन की मानें तो अब तक एशिया और अफ्रीका के 30 देशों में लगभग 20 करोड़ से ज़्यादा लड़कियों का खतना हो चुका है। अकेले भारत में 5 लाख बोहरा सुमदाय के लोग रहते हैं। हाँ ये और बात है कि भारत में हुए खतना की कोई आधिकारिक रिपोर्ट नहीं है।
FGM is practised with lots of dark, superstitious rituals carried out over a period of days before the actual cut.
— The GIRDLE (@thegirdlengr) July 10, 2018
If VICTIMS die, instead of taking the blame for cutting them too deep or fatally, the circumcisers would say, "It's because the DEAD VICTIMS are WITCHES!"#endfgm pic.twitter.com/uV06GZwwFs
पिछले साल 8 मई 2017 को जब वक़ील सुनीता तिवारी ने इसे रोकने के लिए एक याचिका दायर की थी तब सुप्रीम-कोर्ट ने सरकार से राय मांगी थी। सुनीता ने 9 जुलाई 2018 को इस पर बहस करते हुए, इसे बैन करने की मांग की। केंद्र सरकार भी इस बैन के समर्थन में खड़ी है। वैसे अब तक अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सहित कई देशों में खतने को पूरी तरह से बैन कर दिया गया है।
अब देखना है भारत में क्या फ़ैसला आता है? सुनीता कहती हैं, "जिस तरह से एक बच्ची की योनि को छुआ और काटा जाता है वो पॉक्सो एक्ट के तहत आपराधिक मामला हो जाता है। यह क्रूरता की हद है और इसे बंद किया जाना ही चाहिए।"
लेकिन मुस्लिम बोहरा समुदाय ऐसी किसी भी बात पर सहमत होता नहीं दिख रहा है। उन्हें इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती और न ही वे इसे अमानवीय मानते हैं। वहीं, वे महिलाएं जिनके साथ ये हुआ है वे ताउम्र सेक्स की किसी भी भावना को ले कर अपराधबोध वाले भाव में जीती हैं। उनके दिमाग़ में सबसे प्राकृतिक चीज़ को घिनौनी बात कह कर बिठा दिया जाता है।
जहाँ मुस्लिम महिला समाज तलाक़, हलाला और बुर्क़ा को ले कर अपनी लड़ाई लड़ रहा है उसी में 'खतना' भी अब जुड़ चुका है। उम्मीद की जा सकती है कि उनके आने वाले दिल आशाओं और खुशियों से भरे हों और मासूमों को इस दर्दनाक परंपरा से न गुजरना पड़े।
(लेखिका अनु रॉय महिला एवं बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं. प्रकाशित लेख में उनके निजी विचार हैं।)
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