शादी की उम्र एक समान करने से क्या लड़कियों को बराबरी का दर्जा मिल जाएगा?

शादी की उम्र को लेकर छिड़ी मौजूदा बहस में लिंग, जाति, वर्ग और धर्म पर बात नहीं हो रही है जबकि इन्हीं के कारण कम उम्र में शादियां होती हैं। इसकी बजाय लड़की और लड़के की शादी के बीच तीन साल के अंतर को असमानता बताया जा रहा है जिसे खत्म करने की जरूरत है।

Amita PitreAmita Pitre   27 Dec 2021 7:07 AM GMT

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शादी की उम्र एक समान करने से क्या लड़कियों को बराबरी का दर्जा मिल जाएगा?

सरकार ने महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने के लिए कानून का बिल इस सदन में पेश किया है।

'शादी की उम्र' संशोधन विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया है। यह एक स्वागत योग्य कदम है। बिल के पीछे की जो मंशा है उसकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन साथ ही हमें यह पड़ताल भी करनी होगी कि क्या यह कानून सच में लड़की के जीवन को बेहतर बना पाएगा और क्या इससे कोई ऐसा नुकसान तो नहीं होने वाला जिसके बारे में हमने अभी तक सोचा ही नहीं है।

यह एक मुश्किल विषय है और इस तरह की चिंताओं को समझने के लिए कुछ सवालों पर चर्चा होनी जरूरी है: 1978 से कानून बनने के बावजूद लड़कियों की शादी 18 साल से पहले क्यों हो जाती है? क्या शादी की उम्र बढ़ाकर 21 साल करने से लड़कियां अपने आप सशक्त हो जाएंगी? क्या इससे लड़कियों के लिए समानता को सुनिश्चित किया जा सकेगा? और लड़कियों के अधिकारों के प्रति जागरुकता और सशक्तिकरण के बारे में हमारी क्या सोच है?

हमारे युवा हमारा सबसे बड़ा संसाधन है और जब कानून युवाओं के लिए बन रहा है तो ऐसा कुछ भी करने से पहले हमें गंभीरता से सोचना होगा क्योंकि इसका युवाओं पर दीर्घकालीन असर पड़ने वाला है।

ग्रामीण भारत में कम उम्र की शादियां

कम उम्र में शादी की घटनाएं शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखी जाती है। 15 प्रतिशत शहरी लड़कियों (NFHS 5, 2019-21) की तुलना में 20 से 24 वर्ष की आयु के बीच की 27 प्रतिशत ग्रामीण युवा लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी गई थी। उसके बावजूद ग्रामीण युवाओं, खासकर लड़कियों की वर्तमान स्थिति को जानने या उसके लिए आवाज उठाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। न तो यह जानने की कोशिश की गई है कि उनका जीवन अभी कैसा है, जल्दी शादी के मुद्दों से निपटने के लिए फिलहाल उनके पास क्या कोई समर्थन है। नया संशोधित कानून उनके जीवन को कैसे प्रभावित करेगा? न ही उसके बारे में उनसे कोई बात की गई है।

मौजूदा समय में बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA),2006 के बारे में बहुत कम जागरूकता है। अगर युवा लड़कियां शादी का विरोध करना चाहिए विवाह के बाद इससे बाहर निकलना चाह रही हैं, तो ऐसे में उनके लिए कोई सरकारी या सामाजिक समर्थन नहीं है। ये अंतर बहुत बड़ा है जिसकी वजह से PCMA में कानूनी कार्रवाई बहुत कम होती है, जबकि समाचार रिपोर्टों में इससे बाल विवाह को रोकने की बात कही जा रही है।

NFHS 4 के आंकड़ों से पता चलता है कि जल्दी विवाह के 20 फीसदी मामले गरीब परिवारों से जुड़े हैं। शादी की उम्र को लेकर छिड़ी मौजूदा बहस में लिंग, जाति, वर्ग और धर्म पर बात नहीं हो रही है जबकि इन्हीं के कारण कम उम्र में शादियां होती हैं। इसके बजाय लड़की की शादी के लिए मौजूदा न्यूनतम उम्र (कानून के अनुसार 18 साल) और लड़के की न्यूनतम उम्र 21 के बीच तीन साल के अंतर को असमानता बताया जा रहा है जिसे खत्म करने की जरूरत है।

विभिन्न राज्यों की युवा लड़कियों, जो यंगवॉयस नेशनल मूवमेंट का हिस्सा हैं, ने इस मुद्दे पर सांसदों को पत्र लिखा है। वे कहती हैं….. "हम लड़कियां और युवतियां इस प्रस्ताव (विवाह की उम्र बढ़ाने के) का विरोध करती हैं। और इस देश की संसद से हमारे वयस्क होने और वयस्क होने की यात्रा में अपने स्वयं के जीवन के बारे में निर्णय लेने के मौलिक अधिकार और सुरक्षा उपायों की मांग करती हैं। क्या ऐसा कानून हमारे समाज में साथी की पसंद, वैवाहिक संबंधों और ससुराल में बराबरी का हक या फिर समानता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में सक्षम होगा? हमारा मानना है कि इस तरह के बदलाव के लिए, सरकार को चाहिए कि समाज में महिलाओं को लेकर जो दोयम दर्जे का व्यवहार है, उस दिशा में काम करे। इसके लिए प्रगतिशील सोच बनाने और अपनाए जाने की जरूरत है।"

अक्सरहमनें देखा कि गैर सरकारी संस्थाओं या 'चाइल्ड-लाइन' जैसे कार्यक्रमों की सक्रिय उपस्थिति के कारण ही ज्यादातर बाल विवाह रोके जाते हैं और लड़कियों को शिक्षा से जोड़ा जाता है। इस संगठन ने बाल विवाह को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन चाइल्ड-लाइन नंबर के बारे में भी ज्यादातर लोगों को जानकारी उन्हीं क्षेत्रों में है, जहां गैर सरकारी संगठन मजबूती के साथ काम कर रहे होते हैं।

युवा लड़कियां, उनकी पहुंच से दूर वाले इस तरह के कानून का उपयोग कैसे कर सकती हैं और कैसे अपनी खुद की शादियों को रोक सकती हैं या उन्हें अमान्य बना सकती हैं? और अगर वे ऐसा करती भी हैं तो लड़कियों के लिए काम करने वाली संस्थाएं या सशक्त महिला संगठन या फिर आवासीय सुविधाएं कहां हैं जो उन्हें अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने में सहायता करेंगी? 18 साल में शादी को अपराध घोषित करने के बजाय हमें एक ऐसा वातावरण तैयार करने की जरूरत है जहां लड़कियां 18 साल की होने के बाद स्वयं इस बारें में निर्णय ले सकें। भले ही ये फैसला शादी न करने का हो।


पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देने की जरूरत

1978 से पहले, एक लड़की की शादी की न्यूनतम आयु 15 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष थी। इस अंतर को 1978 में भी बनाए रखते हुए लड़के और लड़की की शादी की उम्र को बढ़ाकर 21 और 18 साल कर दी गई थी। इस अंतर को बनाए रखना पुरूष प्रधान सोच को ही दर्शाता है जिसके अनुसार एक लड़की को अपने से बड़े व्यक्ति से शादी करनी चाहिए। और यह प्रथा आज भी बड़े पैमाने पर हमारे समाज में मौजूद है। समाज में एक मानसिकता बना दी गई है कि लड़के को लड़कियों की तुलना में लंबा, बड़ा, ज्यादा पढ़ा-लिखा, आर्थिक रूप से मजबूत और ज्यादा कमाने वाला होना चाहिए। शादी के लिए उम्र को बदलने की बजाय इस पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती दी जानी चाहिए।

ये हमारी सामाजिक मान्यताएं ही हैं जो तय करती हैं कि एक लड़की की शादी के लिए दहेज कितना जरूरी है, और बड़ी उम्र की लड़कियों की शादी के लिए ज्यादा दहेज की जरूरत होगी, या लड़की की पवित्रता उसका सबसे बड़ा गुण है, और एक छोटी उम्र की दुल्हन ज्यादा आज्ञाकारी होगी और नए घर में आसानी से रम जाएगी।

ये सामाजिक मानदंड गरीबी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते रहते हैं। बाल विवाह का मुख्य कारण गरीबी ही है। शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सस्ती और सुलभ सेवाओं की कमी के चलते यहां बच्चों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है। सबसे गरीब और हाशिए पर रहने वाले ये गरीब परिवार ही इस नए कदम का खामियाजा भुगतेंगे, उन्हें अपराधी बना दिया जाएगा। खासकर जब केविड-19 ने उनमें से कई को बेसहारा बना दिया है। इन परिवारों को अपराधी बनाए जाने की जगह उन्हें इस लायक बनाया जाना चाहिए जहां वे अपने परिवार का उचित ढंग से पालन-पोषण कर सकें और उन्हें बेहतर सुविधा दे सकें।

लड़कियों की समाजिक-आर्थिक स्थिति में आया बदलाव ही सालों से चली आ रही इन सामाजिक मान्यताओं को बदल सकता है। जब हम देखेंगे कि वह निडर है, माध्यमिक और उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है, कमा रही है, जरूरत पड़ने पर अपने माता-पिता की सहायता कर रही है, अपने फैसले खुद ले पा रही है, साइकिल की सवारी कर रहीं हैं, फुटबॉल खेल रही हैं और अपनी शर्तों पर जीवन जी रही हैं- तो समाज एक लड़की के जीवन की अलग तरह से कल्पना करना सीख जाएगा।

जब ऑक्सफैम इंडिया ने बिहार और झारखंड के कुछ गांवों में लड़कियों की फुटबॉल टीम बनाने की शुरुआत की तो समाज में हमें एक परिवर्तन देखने को मिला। ये समुदाय अब ये समझ पाने में सक्षम था कि उनकी लड़कियों को किससे खुशी मिल रही है या क्या चीज उन्हें खुश कर पा रही है! ऑक्सफैम के साथ भागीदारी करने वाली एक महिला अधिकार संगठन 'लोकस्वर' की मदद से झारखंड में इन लड़कियों की मांओं ने अपनी फुटबॉल टीम बनाई और इसका खूब मजा लिया। उन्होंने अपने स्वयं के अवरोधों पर काबू पाने, अपनी बेटियों के लिए लड़ने, खेलने के अपने अधिकार और ग्रामीणों को अपनी-अपनी लड़कियों और महिला टीमों को प्रेरित करने के लिए ये सफर तय किया था।

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लड़कियों के लिए मुफ्त और सुलभ शिक्षा

लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए हमें ठोस, सुसंगत और लंबे समय तक चलने वाले उपायों की जरुरत है। जैसे: 18 साल तक की उम्र लड़कियों के लिए शिक्षा को मुफ्त और सुलभ बनाना, स्कूली शिक्षा के खर्च को उठा पाएं इसके लिए लड़कियों को साइकिल और छात्र वृत्ति देना, अलग और साफ शौचालय के साथ पब्लिक स्कूलों के नेटवर्क को मजबूत करना, सहमति के साथ संबंध बनाने वाले किशोरों को अपराध से अलग रखना। इसके बजाय राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के माध्यम से उन्हें यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने में निवेश करना, सार्वजनिक स्थानों को लड़कियों के लिए सुरक्षित बनाने में निवेश करना और सबसे ऊपर युवाओं को स्कूलों और अन्य माध्यमों से सेक्स शिक्षा को व्यापक रूप से उपलब्ध कराना होगा।

बाल विवाह निषेध कानून में प्रस्तावित संशोधन, सिर्फ उम्र की बात करता है। वो यह नहीं बताता कि इन उपायों को कैसे शुरु किया जाएगा!

अगर आज हम यह तर्क दे रहे हैं कि एक लड़की 18 साल की उम्र में बालिग हो जाती है और इस उम्र में वह अपने लिए निर्णय लेने में सक्षम है, तो फिर लड़कों के लिए भी यही तर्क है। 2008 की विधि आयोग की रिपोर्ट संख्या 205, वास्तव में,लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम आयु लड़कियों के बराबर 18 वर्ष करने की सिफारिश करती है। जो लोग शादी की उम्र में अंतर को लेकर परेशान हैं और असमानता की बात कह रहे हैं, उनके लिए यह एक सटीक और उपयुक्त जवाब है।

अमिता पित्रे, ऑक्सफैम इंडिया की लीडस्पेशलिस्ट (जेंडरजस्टिस) हैं। उनके ये विचार व्यक्तिगत हैं।

संबंधित खबर अंग्रेजी में यहां पढ़ें-


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