प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा क्यों नहीं बनती चुनावी मुद्दा?

अपने देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं और मानव संसाधनों का न होना एक बड़ी समस्या है मगर देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं सकीं

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   25 March 2019 5:35 AM GMT

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प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा क्यों नहीं बनती चुनावी मुद्दा?

लखनऊ। हर साल स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारें करोड़ों रुपए का बजट पेश करती हैं, मगर आज भी देश के ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं सवालों के घेरे में हैं।

"पहले साइकिल पर अपने बेटे को बैठाकर 13 किमी. दूर देवा सीएचसी गया, मगर वहां दवा न होने की बात कहकर बाराबंकी जिला अस्पताल जाने को कहा, फिर 15 किमी. साइकिल से जिला अस्पताल पहुंचा, यहां भी दवाएं नहीं है, सरकार बीमा देने की बात कह रही है, पहले दवा ही मिल जाए, बीमा तो दूर की बात है," यह बात दिलीप कुमार झल्लाते हुए कहते हैं।

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दिलीप देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के जनपद बाराबंकी के देवा ब्लॉक के गाँव बबुरी के रहने वाले हैं। दिलीप के बेटे को पिछले दिनों कुत्ते ने काट लिया था और अपने बेटे को रैबीज का इंजेक्शन लगवाने के लिए वह सीएचसी और जिला अस्पताल का साइकिल से चक्कर लगाकर थक चुके थे।


ये हाल सिर्फ दिलीप का नहीं है, बल्कि प्रदेश के उन तमाम लोगों का है, जिन्हें न तो समय से इलाज मिल रहा है और न ही दवा। जबकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का सच यह है कि भारत में 27 फीसदी मौतें सिर्फ इसलिए हो जाती हैं क्योंकि लोगों को वक्त पर मेडिकल सुविधा नहीं मिलती है।

हाल में केंद्र सरकार ने देश में आयुष्मान भारत योजना की शुरुआत की। यह योजना वास्तव में देश के गरीब लोगों के लिए हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम है। इस योजना के तहत देश के 10 करोड़ परिवारों को सलाना 5 लाख रुपए का स्वास्थ्य बीमा मिल रहा है। मगर बड़ा सवाल यह भी है कि अगर मरीज को स्थानीय स्तर पर पहले ही बेहतर इलाज मिल जाए तो उसे बीमा का लाभ लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

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मध्य प्रदेश के हरदा निवासी जगदीश तारन (55 वर्ष) फोन पर 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "गंभीर रोगों के लिए आयुष्मान भारत योजना सही है, लेकिन सामान्य बीमारियों का इलाज समय से स्थानीय स्तर पर मिल जाए तो लोगों की मुश्किलें कम हो जाएं। उन्हें अस्पताल में भर्ती ही नहीं होना पड़ेगा।"


अपने देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं और मानव संसाधनों का न होना एक बड़ी समस्या है मगर देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं सकीं।

इससे पहले देश में स्वास्थ्य सेवाओं की इस चुनौती की ओर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ध्यान दिलाया था। दिसंबर, 2016 में उन्होंने कहा था, "देश भर में 24 लाख नर्सों की कमी है और नर्सों की संख्या बढ़ने की जगह लगातार घट रही है। साल 2009 में इनकी संख्या 16.50 लाख थी, जो 2015 में घटकर 15.60 लाख रह गई।"

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वहीं अगर देश में डॉक्टरों की बात करें तो खुद सरकार मानती है कि देश भर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। इतनी कमी होने के बावजूद हर साल केवल 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते हैं। देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 फीसदी से भी ज्यादा कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है।


इतना ही नहीं, पूर्व राष्ट्रपति ने सवा अरब से अधिक आबादी के लिए केवल 1.53 लाख स्वास्थ्य उपकेंद्र और 85,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने पर चिंता जाहिर की थी। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य सूचकांक में शामिल कुल 188 देशों के बीच भारत 143वें पायदान पर है। कई पहलुओं पर उसका हाल अफ्रीकी देशों से भी बुरा है।

सरकारी अस्पतालों के हाल पर गोरखपुर निवासी अमित कुमार (35 वर्ष) 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "पिछले साल रोड एक्सीडेंट में मेरे बड़े भाई को गंभीर चोंटें आईं, हम लोग तुरंत उन्हें सीएचसी ले गए, मगर वहां कोई डॉक्टर नहीं था, मैंने देखा कि एक नर्स और एक वॉर्ड ब्वॉय वहां मरीजों का इलाज कर रहे थे।"

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अमित आगे कहते हैं, "वहां से निकल कर हम लोग सीधे निजी अस्पताल पहुंचे, जहां उनका इलाज शुरू हो सका। वहां डॉक्टर ने कहा कि थोड़ा और लेट कर दिए होते तो स्थिति काफी खतरनाक हो सकती थी क्योंकि खून काफी बह गया था। तबसे मुझे सरकारी अस्पताल से भरोसा उठ गया है।"

अगस्त 2016 में ओडिशा के पिछड़े जिले कालाहांडी में एक आदिवासी को अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर लेकर करीब 10 किलोमीटर तक चलना पड़ा क्योंकि उसे अस्पताल से शव को घर तक ले जाने के लिए कोई वाहन नहीं मिल सका था। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठना लाजमी है।


मध्य प्रदेश के मुरैना निवासी कुलदीप कुमार (40 वर्ष) का कहना है, "सीएचसी और पीएससी की हालत खराब है, डॉक्टर नहीं है, आधुनिक उपकरणों की कमी है, जरूरत की दवाएं अस्पतालों में नहीं हैं और सरकार हम लोगों का स्वास्थ बीमा करा रही है। अगर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार ध्यान दे दे तो लोगों को बीमा कराने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।"

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गाँव कनेक्शन से बात करते हुए स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. अभय शुक्ला ने कहा, "जो हम सुझा रहे हैं और जो सरकार कर रही है, उसमें जमीन आसमान का अंतर है। हम मांग कर रहे हैं सभी के लिए अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था। विदेशों में सभी लोगों को प्राइमरी और सेकेंडरी हेल्थ केयर सरकार की ओर से मुफ्त मिलती है, लेकिन प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में सभी लोग कवर ही नहीं हो रहे हैं, उसमें सिर्फ 50 करोड़ लोग ही कवर्ड हैं, जबकि बाकी के 80 करोड़ लोग कवर्ड ही नहीं हैं।"

ग्रामीण इलाकों में कम से कम 58 फीसदी और शहरी इलाकों में 68 फीसदी भारतीय निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं पर निर्भर हैं। आंकड़ें बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर बढ़ते खर्च की वजह से हर साल 3.9 करोड़ लोग वापस गरीबी में पहुंच जाते हैं।


मौजूदा हालात की वजह से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से लोगों का भरोसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वह भारी-भरकम रकम चुकाकर बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र की शरण में जा रहे हैं। सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके।

वहीं ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी- 2016 के आंकड़ों की मानें तो उत्तर प्रदेश के सीएचसी में 84 फीसदी विशेषज्ञों की कमी है। यदि पीएचसी और सीएचसी, दोनों को एक साथ लिया जाए तो उनकी जरूरत की तुलना में मात्र पचास फीसदी स्टाफ है।

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देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की मालिनी आइसोला गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "आयुष्मान भारत योजना का लाभ लोगों को मिल रहा है, यह अच्छी बात है। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि इस योजना में प्राथमिक चिकित्सा पर ध्यान नहीं दिया गया, जो भारत जैसे देश के लिए काफी जरूरी है।"

वह आगे कहती हैं, "जब तक हम प्राथमिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ नहीं करेंगे तब तक ये योजनाएं शत प्रतिशत लाभकारी नहीं हो सकती हैं। बुनियादी स्वास्थ्य को मजबूत करने की बेहद जरूरत है।"

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