क्या परंपरागत हर्बल ज्ञान को वैज्ञानिक प्रमाण की जरूरत है?

परंपरागत हर्बल दवाएं भी आधुनिक दवाओं की तरह कारगर हैं इसलिए जरूरी है कि आधुनिक मानदंड़ों पर उनकी प्रामाणिकता साबित हो और वे भी बाजार में उपलब्ध कराई जाएं

Deepak AcharyaDeepak Acharya   10 Sep 2018 12:06 PM GMT

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क्या परंपरागत हर्बल ज्ञान को वैज्ञानिक प्रमाण की जरूरत है?

हर्बल औषधियों का ज्ञान दुनिया की हर मानव जाति, संस्कृति और उसकी सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रहा है, कई जड़ी बूटियों को सोने से ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। अदरक, सेमल, लहसुन, अश्वगंधा, हल्दी, लौंग, धनिया, हर्र, आंवला, अमरूद और ऐसी हजारों जड़ी-बूटियों के प्रभावों की प्रमाणिकता आधुनिक विज्ञान साबित कर चुका है। इनमें से कई जड़ी-बूटियों को तो आधुनिक औषधि विज्ञान ने बाकायदा दवाओं के तौर पर आधुनिक अमली जामा भी पहनाया है।

सिनकोना नामक पेड़ से प्राप्त होने वाली छाल से क्वीनोन नामक दवा तैयार की गई और इसे मलेरिया के लिये रामबाण माना गया। दुनिया के तमाम देशों ने ऐसी रिसर्चों और खोज परिणामों से प्रोत्साहित होकर अनेक हर्बल मेडिसिन्स के वैज्ञानिक प्रमाण खोजने के प्रयास भी शुरु कर दिए। आज डंडेलियान नामक पौधे से कैंसर के इलाज की दवा खोजी जा रही है तो कहीं किसी देश में सदाबहार और कनेर जैसे पौधों से त्वचा पर होने वाले संक्रमण के इलाज पर अध्ययन हो रहा है। लेकिन यह भी बताना आवश्यक है कि आखिर इस शोध से होगा क्या?

केवल एक रसायन पर जोर देना कितना उचित

दुनिया भर में ऐसे हजारों वैज्ञानिक हैं जो हर्बल मेडिसिन्स पर जोर लगाकर शोध कर रहे हैं, और इस शोध से उन्हें यह जानकारी मिलेगी कि जड़ी-बूटी में आखिर वो कौन सा खास रसायन (एक्टिव कंपाउंड या मार्कर कंपाउंड) है जो किसी भी रोग निवारण के लिए कारगर है। इस तरह के रसायन की खोज होने के बाद इसे प्रयोगशालाओं में कृत्रिम तौर पर बनाया जाएगा और उसके बाद फार्मा कंपनियां दवा के तौर पर इसे बाज़ार में लाएगी। पारंपरिक हर्बल ज्ञान के नजरिए से देखा जाए तो ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि एक पौधे के अंदर सिर्फ एक रसायन नहीं होता है, पौधे के हिस्से या संपूर्ण पौधे में विद्यमान तमाम रसायन आपस में सहयोजी बनकर अपना प्रभाव डालते हैं। यदि किसी एक खास रसायन को ही रोग निवारण के लिए उपयोग में लाया जाए तो दो संभावनांए होंगी, एक तो यह है कि दवा उतनी असरकारक नही होगी जितनी होनी चाहिए और दूसरा यह कि अकेले रसायन का हमारे शरीर में क्या सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव होगा वो भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा होगा, जिस पर हमें सोचना होगा। अब जबकि पारंपरिक ज्ञान के अनुसार ऐसा करना उचित नहीं है तो फिर मार्कर कंपाउंड प्राप्त कर औषधि बनाना कितना उचित होगा?


पारंपरिक वैद्यों का तरीका ज्यादा व्यावहारिक

एक वैज्ञानिक होने के तौर पर मैं समझ सकता हूं कि परंपरागत ज्ञान का वैज्ञानिक प्रमाणन जरूरी है ताकि हम ये हकीकत समझ पाएं कि किस जड़ी-बूटी से कौन सा रोग वाकई में ठीक होता है और ऐसा कैसे संभव हो पाता है? लेकिन हमें यह भी सोचना जरूरी है कि आखिर पारंपरिक वैद्य क्यों 2, 3 या 4 खास जड़ी-बूटियों को मिलाकर दवाएं बनाते हैं? आखिर इन खास जड़ी-बूटियों का आपसी सामंजस्य भी रोग निवारण के महत्वपूर्ण होता होगा। जानकारों के अनुसार ऐसे फार्मुले जिनमें एक से ज्यादा जड़ी-बूटियों का समावेश हो या जिनमें पौधे के एक से अधिक अंगो का इस्तमाल होता हो वो ना सिर्फ रोग निवारण करते हैं, बल्कि शरीर को किसी अन्य नुकसान से भी बचाते हैं। मजे की बात यह है कि वैज्ञानिक प्रमाणन प्रक्रिया के दौरान इस बात का कतई ख्याल नहीं रखा जाता है।

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मेरा मानना है कि दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिकों को बजाए मार्कर कंपाउंड खोजने के, सीधे-सीधे हर्बल दवाओं के असर को खोजने के लिए रोगियों पर ही हर्बल जानकारों के साथ मिलकर प्रयोग करने चाहिए और इस प्रक्रिया में उन्हीं फार्मुलों का इस्तमाल हो जिन्हें ये जानकार बरसों से रोगियों के देते आ रहे हों, ताकि इसके दुष्परिणामों को लेकर रोगी में भय ना हो। टेस्ट ट्यूब, प्रयोगशाला, चूहों या बंदरों पर प्रयोग कर दवाओं के असर को खोजना यानि सिर्फ वक्त, पैसों और टैलेंट की बर्बादी है।


क्या फार्मा कंपनियों के निजी हित आड़े आते हैं

मेरी नजर से ऐसी प्रक्रियाओं को ना अपनाया जाना फार्मा कंपनियों की एक सोची समझी रणनीति है, क्योंकि प्रक्रिया को जितना उलझा दिया जाए वह उनके बाज़ारीकरण और शीर्ष पर बने रहने में मददगार होता है। यदि कंपनियां मार्कर कंपाउंड्स निकाल लेती हैं तो उसे कृत्रिम रूप से तैयार कर सस्ती उत्पादन दर के साथ ज्यादा से ज्यादा पैसा बाज़ार से खींचा जा सकता है। औषधीय पौधों में सिर्फ एक नहीं, हजारों रसायन और उनके समूह पाए जाते हैं और कौन जाने, कौन सा रसायन प्रभावी गुणों वाला होगा इसलिए मार्कर कंपाउंड शोध पर वैसे ही प्रश्नवाचक चिन्ह लग जाता है।

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एस्परिन का उदाहरण सामने है

एस्परिन से बेहतर उदाहरण क्या होगा, एस्परिन टेबलेट्स में मार्कर कंपाउंड के नाम पर सेलिसिलिक एसिड होता है जिसे सबसे पहले व्हाईट विल्लो ट्री नामक पेड़ से प्राप्त किया गया। सेलिसिलिक एसिड को कृत्रिम तौर पर तैयार किया गया और एस्परिन नामक औषधि बाजार में लाई गई। दर्द निवारक गुणों के लिए मशहूर इस दवा के सेवन के बाद कई रोगियों को पेट में गड़बड़ी और अनेक को पेट में छालों की समस्याओं से जूझना पड़ा। लेकिन व्हाईट विल्लो ट्री की छाल का काढा कई हर्बल जानकार दर्द निवारण के लिए सदियों से देते आएं हैं और रोगियों को कभी किसी तरह की शिकायत नहीं हुई। क्या निष्कर्ष निकालेंगे आप? दरअसल छाल के काढे में वो भी रसायन हैं जो छालों की रोकथाम के लिए कारगर माने गए हैं और कई रसायन ऐसे भी है जो पेट दर्द और दस्त रोकने आदि लिए महत्वपूर्ण हैं। अब आप किसे चुनेंगे, साइड इफेक्ट या नो साइड इफेक्ट?


फार्मा कंपनियों की दवाएं सिर्फ राहत पहुंचाती हैं या इलाज भी करती हैं

जब ऐसे परिणाम हमारे सामने हैं तो हमे क्यों बाधित किया जाता है कि हम कृत्रिम रसायनों पर आधारित दवाओं का सेवन करें? उसका सीधा जवाब यह है कि पूरी जड़ी-बूटियों को लेकर दवा बनाने से फार्मा कंपनियों की कमाई का एक बडा हिस्सा बिल्कुल कम हो जाता है। यह भी देखा गया है कि पूर्ण रूप से और सही जड़ी-बूटियों को लेकर बनाई गई औषधियों से रोगी के एक से ज्यादा रोगों पर एक साथ काबू पाया जा सकता है। जड़ी-बूटियों को आसानी उगाया जा सकता है और ये लगभग मुफ्त की तरह उगती हुई दिखाई भी देती हैं और इन दवाओं के अचूक असर की वजह से रोगी काफी लंबे वक्त तक स्वस्थ रहता है। इस तरह की हालातों में फार्मा कंपनियों के उत्पाद सिर्फ एक ही बार बिक पाएंगे और जब सब स्वस्थ हो जाएं तो फिर इन्हें खरीदेगा कौन? फार्मा कंपनियां ज्यादातर रोगों में आराम के लिए दवाएं तैयार करती हैं, सिर्फ आराम, इलाज नहीं। जिसका मूल यह है कि आप अक्सर अपने डॉक्टर से मुलाकात करते रहेंगे, दवाओं की लगातार बिक्री जारी रहेगी, स्वास्थ्य अक्सर बेडौल या बिगडता भी रहेगा और इस तरह बाज़ारीकरण जारी रहेगा।

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जरूरी है हर्बल दवाओं को जांचकर उन्हें बाजार में लाया जाए

लेकिन मेरी बातों का अनर्थ भी नहीं निकाला जाना चाहिए, सभी फार्मा कंपनियां ऐसा करती हैं, या सभी डॉक्टर्स ऐसा करते हैं, ऐसा नहीं हैं। आज भी कई दवाएं जीवनदायी हैं और जिनके असर और क्षमता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता, लेकिन मेरा मानना है कि हर्बल मेडिसिन्स भी इतनी ही कारगर है बशर्ते उन्हें सही तरह से इस्तमाल किया जाए और प्रामाणिकता साबित कर बाजार में लाया जाए। हम हर दिन अखबारों में, टी.वी. पर, किताबों, पत्र- पत्रिकाओं में, इंटरनेट पर नए-नए हर्बल नुस्खों के बारे में सुनते और पढते रहते हैं। सवाल ये है कि इनकी प्रामाणिकता कैसे साबित हो? क्या आधुनिक औषधि विज्ञान हमारे ग्रामीण और पारंपरिक हर्बल जानकारों की राय मानकर और उन्हें साथ रखकर, उनके दिशा- निर्देशों और मार्गदर्शन के साथ किसी तरह के प्रयोग करेंगे? ये सोचने वाली बात है...

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(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

     

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