एक सिक्योरिटी गार्ड जो दिहाड़ी मजदूरों के बच्चों के लिए खुले आसमान के नीचे चलाता है स्कूल

महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजी नगर के इस स्कूल में छत नहीं है। लेकिन एक युवा शिक्षक मजदूरों के बच्चों को शिक्षित करने की कोशिश कर रहा है। साल 2019 से नीम के पेड़ पर लटका एक ब्लैक बोर्ड ही उनकी कक्षा है।

Komal JadhavKomal Jadhav   20 April 2023 10:30 AM GMT

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छत्रपति संभाजी नगर, महाराष्ट्र। भगवान हिम्मतराव सदावर्ते (29 वर्ष) महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजी नगर (जिसे पहले औरंगाबाद के नाम से जाना जाता था) में एक बहुमंजिला अपार्टमेंट परिसर में सुरक्षा गार्ड हैं। वे न केवल राज्य की राजधानी मुंबई से लगभग 250 किलोमीटर दूर स्थित इस परिसर में रहने वाले परिवारों की रखवाली करते हैं, बल्कि दिहाड़ी और घर बनाने वाले मजदूरों के बच्चों के भविष्य को भी सुरक्षित करने की कोशिश भी कर रहे हैं।

सदावर्ते पिछले चार सालों से दिहाड़ी मजदूरों और निर्माण श्रमिकों के बच्चों के लिए 'खुले आसमान के नीचे स्कूल' चला रहे हैं। 'स्कूल' एक नीम के पेड़ के नीचे चलता है और उसे केवल एक ब्लैकबोर्ड की जरूरत होती है जो पेड़ के तने से लटका होता है।

आज वहां पांच से दस वर्ष की उम्र के 74 लड़के और लड़कियां पढ़ने के लिए आते हैं। सदावर्ते उन्हें मुफ्त में पढ़ाते हैं और अपनी मामूली कमाई से भी उनके लिए किताब-कॉपी खरीदते हैं। वह रोजाना शाम 6 बजे से 8 बजे के बीच बच्‍चों को पढ़ाते हैं और उनकी लोकप्रियता ऐसी है कि नियमित स्कूल जाने वाले बच्चे भी इसमें शामिल होने लगे हैं।

सदावर्ते रोजाना शाम 6 बजे से 8 बजे के बीच बच्‍चों को पढ़ाते हैं और उनकी लोकप्रियता ऐसी है कि नियमित स्कूल जाने वाले बच्चे भी इसमें शामिल होने लगे हैं।

“मेरी बहू दूसरों के घरों में काम करती है जबकि मेरा बेटा मजदूर है। हमारे घर में दरवाजे तक नहीं हैं, इसलिए बच्चों को पढ़ाना हमारे लिए मुश्किल है। लेकिन सर (भगवान हिम्मतराव सदावर्ते) हमारे क्षेत्र के सभी छात्रों को मुफ्त में पढ़ाते हैं। वे पढ़ना और लिखना जानते हैं, "इस स्‍कूल में पढ़ने वाले एक छात्र की दादी ने गाँव कनेक्‍शन को बताया।

खुले आसमान के नीचे चलने वाला स्कूल, एक नई शुरुआत

सदावर्ते अपनी उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई करने और स्नातक करने के लिए वर्ष 2012 में पड़ोस के बुलढाणा जिले के चिंचोली सांगले गाँव से छत्रपति संभाजी नगर चले गए। उनके माता-पिता मजदूर थे, वे सदावर्ते की आगे की पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते थे। लेकिन यह इस युवा के रास्ते में नहीं आया जो पढ़ाई के दौरान खुद को सहारा देने के लिए होटलों और निजी कार्यालयों में पार्ट टाइम काम करते थे।

चार साल पहले की बात है। वर्ष 2019 में जब सदावर्ते शक्ति नगर में अपने कमरे में बैठकर पढ़ाई कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि बाहर कुछ छोटे बच्चे खेल रहे हैं और आपस में झगड़ रहे हैं। उन्हें स्कूल में होना चाहिए था। लेकिन वे वहां नहीं थे। ये वे बच्चे थे जो झुग्गियों में रहते थे जहां दिहाड़ी मजदूर रहते थे।


इसने सदावर्ते को गहराई से विचलित कर दिया। उन्हें पता चला कि ये दिहाड़ी मजदूरों के बच्चे हैं जो रोजी-रोटी कमाने के लिए काम पर गए थे।

“उसी समय मुझे आश्चर्य होने लगा कि मैं इन बच्चों को पढ़ने के लिए क्यों नहीं ला सका। मैंने उनके माता-पिता से संपर्क किया और उनसे बात की और उनके बच्चों को शिक्षित करने के महत्व पर जोर दिया, "सदावर्ते ने गाँव कनेक्शन को बताया।

माता-पिता उनके बहुत उत्साह के साथ नहीं मिले थे क्‍योंकि पूरे दिन काम करने के बाद उनके पास बस इतनी ही शक्‍त‍ि बची थी कि वे आराम से खाना खा सकें। किसी और काम के ल‍िए उनके पास ऊर्जा नहीं बची थी। उनमें कुछ शराबी भी थे। लेकिन सदावर्ते जिद पर अड़े रहे और धीरे-धीरे कई मजदूर उनके सोचने के तरीके से सहमत हो गये।

क्योंकि सदावर्ते के पास इतना पैसा नहीं था कि वे खुद बच्चों को स्कूल में डाल सकें, इसलिए उन्होंने दूसरा रास्‍ता अपनाया। उन्होंने नीम के तने पर एक ब्लैक बोर्ड लटका दिया और इस तरह जनवरी 2019 में अपना स्कूल शुरू किया।

खुशी और शिक्षा का विस्तार

“सर हमारे घर आए और हमें पढ़ाने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने हमारे परिवार को समझाया। अब हम रोज इस स्कूल आते हैं। हमें अच्छा लग रहा है, "छात्रों में से एक अजय कंगारे ने गाँव कनेक्शन को बताया।

कई बच्चे जिनके हाथों में कभी पेन या पेंसिल नहीं थी, वे अब अंग्रेजी बोल रहे हैं, पढ़ रहे हैं, लिख रहे हैं और गणित के सवाल कर रहे हैं।

“मैं नियमित एक स्कूल भी जाता हूं, लेकिन मैं यहां भी आता हूं। कई बार सदावर्ते सर ऐसी बातें समझाते हैं जो मुझे अपने नियमित स्कूल में समझ में नहीं आती थीं, "रूफलेस स्कूल में आने वाली पांचवीं कक्षा की छात्रा प्रीति शिंदे ने गाँव कनेक्शन को बताया। उन्होंने कहा, "पहले मैं अपना नाम मराठी में भी नहीं लिख पाती थी, लेकिन अब मैं इसे मराठी और अंग्रेजी दोनों में लिख सकती हूं।


शिक्षक यह भी आग्रह करते हैं कि बच्चे घर वापस जाएं और जो कुछ उन्होंने सीखा है उसे अपने माता-पिता के साथ साझा करें। इसने अधिक माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के विचार के लिए तैयार किया है।

“मेरे माता-पिता के पास मेरी शिक्षा के लिए पैसे नहीं थे। लेकिन, तीन साल पहले मैंने इसी पेड़ के नीचे सीखना शुरू किया। मुझे पहले अंग्रेजी नहीं आती थी, लेकिन अब मैं अंग्रेजी में पढ़ और लिख सकती हूं, "कक्षा सात की छात्रा सोनल कैलास उगले ने गाँव कनेक्शन को बताया।

"मेरे छात्रों को पैसे की नहीं शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा एक महंगा व्यवसाय बन गया है। मजदूर मुश्किल से गुजारा कर पाते हैं, वे अपने बच्चों को स्कूल में कैसे दाखिला दिलाएंगे, ”सदावर्ते ने कहा। उन्होंने ओ कहा, "ये बच्चे रचनात्मक हैं, इनमें प्रतिभा है बस इनके पास उसे व्यक्त करने के लिए सही मंच नहीं है।"

मदद के लिए आगे लोग

सुरक्षा गार्ड के रूप में हर महीने लगभग 3,000 रुपये की मामूली कमाई के साथ बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है। क्योंकि उनके पास रहने के लिए एक जगह है जो उन्‍हें अपार्टमेंट से म‍िला है जहां वे सुरक्षा गार्ड हैं। उन्‍हें खाने के भी पैसे नहीं देने पड़ते। सदावर्ते ने कहा क‍ि मैं हार मानने वाला नहीं हूं। वहीं अब कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके इस काम में उनकी मदद भी कर रहे हैं।

महात्मा फुले समता परिषद जो एक सामाजिक सेवा संगठन है, ने बच्चों के लिए पाँच साइकिलों की मदद की है। ये उन बच्‍चों को दी गई जो दूर से क्‍लास लेने के ल‍िए आते हैं।

छात्रावास अधीक्षक लता जाधव ने सदावर्ते को दिन में दो समय का खाना उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया है। वह अपने छात्रों के कल्याण के लिए बाल अंकुर संस्था नाम की एक संस्था का पंजीकरण कराना चाहते थे, लेकिन उनके पास इस उद्देश्य के लिए बैंक खाता खोलने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं था। एक अन्य सहयोगी वेंकट मैलापुरे जो इप्का लेबोरेटरीज नामक एक संगठन के एक अधिकारी हैं, उन्होंने सीएसआर फंड से 35,000 रुपए का चेक दिया और उनकी मदद की।


छत्रपति संभाजी नगर के संयुक्त चैरिटी कमिश्नर सुरेंद्र बियाणी इस स्कूल से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सभी छात्रों को मुफ्त स्वास्थ्य कार्ड प्रदान किए।

इस बीच सदावर्ते ने भी लगभग 12 किलोमीटर दूर वालुज के लिए साइकिल चलाना शुरू कर दिया है, जहां वह 20-25 बच्चों को फिर से एक बबूल के पेड़ के नीचे पढ़ाते हैं। वालुज में प्रवासी मजदूरों की एक बड़ी आबादी है क्योंकि यह एक औद्योगिक क्षेत्र है। वहां वह अपने बच्चों को पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।

“यह बहुत कठिन जीवन है जो प्रवासी मजदूर जीते हैं। यह अस्तित्व के लिए संघर्ष है। लेकिन मैंने उनसे कहा कि अगर उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित नहीं किया तो वे वैसे ही अभाव और गरीबी में जिंदगी बिताएंगे जैसे वे हैं। इसने उनमें से कुछ को अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजने के लिए राजी कर लिया, ”सदावर्ते ने कहा।

यह पूरी कहानी नहीं है। सदावर्ते यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) और कुछ अन्य परीक्षाओं में सफल होने की उम्मीद कर रहे हैं और वह इसके लिए कड़ी तैयारी कर रहे हैं। अपार्टमेंट में अपनी सुरक्षा गार्ड की नौकरी करने और कोई भी अन्य दूसरे काम के बीच में वह पढ़ाई में कड़ी मेहनत कर रहे हैं। वर्ष 2015 में उन्होंने देवगिरी कॉलेज, औरंगाबाद से स्नातक किया जहाँ उन्होंने अंग्रेजी की पढ़ाई की।

"स्कूल की स्थापना करके, मैंने कुछ खास नहीं किया है। मैं केवल उन बच्चों को कम से कम शिक्षा की मूल बातें देने की कोशिश कर रहा हूं, नहीं तो ये पीछे रह जाएंगे। तो बारिश हो या धूप, ये स्कूल खुला रहता है, और बच्चे आते रहते हैं, "सदावर्ते मुस्कुराए।

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